१. शांति करना
वृद्धावस्थामें इंद्रियां अकार्यक्षम होने लगती हैं, उदा. कम सुनाई देना, कम दिखाई देना, विविध रोग निर्माण होना इत्यादि । देवताओंकी कृपासे इन व्याधियोंका परिहार हो एवं शेष आयु सुखपूर्वक बीते, इस हेतु शास्त्रके अनुसार ५० वर्षसे १०० वर्षकी आयुतक प्रत्येक ५ वर्षोपरांत शांतिविधि करनी चाहिए ।शांति करनेका दिन : प्रत्येक शांति उस वर्षके प्रारंभदिनपर करें । वह दिन शुभ न हो, तो जन्मनक्षत्र-दिन अथवा उसके पश्चात् किसी भी शुभदिन करें ।
२. आयुके अनुसार शांतिके प्रकार, शांतिके प्रमुख देवताव हवनीय द्रव्य
शांतिका प्रकार | कितनी आयु होनेपर करते हैं ? |
प्रमुख देवता | हवनीय द्रव्य |
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१. वैष्णवी शांति | ५० | श्रीविष्णु | समिधा, आज्य, चरु व पायस |
२. वारुणी शांति | ५५ | वरुण | समिधा, आज्य, चरु व पायस |
३. उग्ररथ शांति | ६० | मार्कंडेय | समिधा, आज्य, चरु, दूर्वा व पायस |
४. मृत्युंजय महारथी शांति |
६५ | मृत्युंजयमहारथ | समिधा, आज्य, चरु व पायस |
५. भैमरथी शांति | ७० | भीमरथमृत्युंजयरुद्र | घृताक्त तिल |
६. ऐंद्री शांति | ७५ | इंद्रकौशिक | समिधा, आज्य, चरु व पायस |
७. सहस्त्रचंद्रदर्शन शांति |
८० | चंद्र | आज्य |
८. रौद्री शांति | ८५ | रुद्र | समिधा, आज्य, चरु व पायस |
९. सौरी शांति | ९० | कालस्वरूपसूर्य | समिधा, आज्य, चरु व पायस |
१०. त्रैयंबक मृत्युंजय शांति |
९५ | मृत्युंजयरुद्र | समिधा, आज्य, चरु व पायस |
११. महामृत्युंजय शांति |
१०० | महामृत्युंजय | समिधा, आज्य, चरु व पायस |
टीप १ : आज्य अर्थात् घी, चरु अर्थात् पकाए गए चावल एवं पायस अर्थात् पानीके प्रयोग बिना मात्र दूधमें पकाए गए चावल ।
टीप २ : घीमें भिगोए गए तिल |
अ. सहस्रचंद्रदर्शन शांतिविधिका महत्त्व
शिव समाधिस्थ रहकर अधिकतर अप्रकट रहते हैं । शिवका तारक रूप यदाकदा प्रकट होता है । इससे तारक रूपसे चंद्रके समान चैतन्य एवं आनंद प्राप्त कर, जीवनमें शिवके आशीर्वाद प्राप्त करनेके लिए सहस्रचंद्रदर्शन विधि की जाती है । शिवके आशीर्वाद प्राप्त होनेसे व्यक्तिकी ऐहिक व पारमार्थिक पीडा और क्लेश दूर होते हैं और उसकी आयुमें वृद्धि होती है । इस विधिमें केवल एक चंद्रका (सोमका) दर्शन न कर, सहस्र चंद्रोंकी शीतलता एवं चैतन्य प्रदान करनेकी क्षमतावाले सूक्ष्ममें चंद्रदेवताके दर्शन पाने हेतु यह विधि की जाती है । इस विधिसे प्राप्त चैतन्यसे व्यक्तिके लिंगदेहको केवल इस जन्ममें ही नहीं, अपितु आगामी जन्ममें भी चैतन्यका लाभ प्राप्त होता है ।
आ. मृत्युके पश्चात् व्यक्तिकी लिंगदेहकी चारों ओर संरक्षक-कवच निर्माण होना
चैतन्यका स्वरूप चंदेरी जलके समान है । उसमें जडत्व नहीं है । इसलिए वह हलका है और लिंगदेह उसे ग्रहण कर सकती है । मृत्युके पश्चात् यह चैतन्य लिंगदेहके साथ जाता है एवं इस चैतन्यकी शीतलताका सूक्ष्म-वायुसे संपर्क होकर जलका घनीकरण होता है और उसका रूपांतर चैतन्यमय संरक्षक-कवचमें होता है । इसीको `तारक रूपसे मारक रूपमें चैतन्यका रूपांतर’ कहते हैं ।
इ. विधिके मंत्रोंसे संभावित लाभ
१. विधिके मंत्रोंमें साधना एवं जीवनका उद्देश्य बताया गया है । इस कारण लिंगदेहपर चैतन्यके साथ साधनाका संस्कार भी होता है ।
२. मृत्युतक एवं मृत्युके समय इस ज्ञानके स्मरणके कारण जीवका अहं कम होनेमें सहायता मिलती है ।
३. जीवके मनमें सत्के विचारोंकी एवं उसकी सात्त्विकताकी वृद्धिमें सहायता होती है ।
४. इस कारण पुन: जन्म लेते समय, जीवमें अनिष्ट शक्तियोंके प्रतिकारकी क्षमता जन्मत: निर्माण होती है ।
५. इस प्रकारके जीवको गर्भमें धारण करनेवाली माताको भी प्रसूतिसे पूर्व एवं प्रसूतिके समय शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक स्तरके कष्ट कम होते हैं ।
६. इसके विपरीत, गर्भस्थ जीवकी सूक्ष्मदेहपर चैतन्य एवं साधनाके संस्कारके कारण माताको गर्भस्थ जीवके सत्संगका लाभ मिलता है तथा आनंद एवं चैतन्यकी अनुभूति होती है ।
संदर्भ : सनातन का ग्रंथ ‘पारिवारिक धार्मिक व सामाजिक कृतियोंका आधारभूत अध्यात्मशास्त्र’