हिन्दुओंमें क्षात्रवृत्ति जागृत करनेवाले दीपावलीके किले !

कार्तिक कृष्ण पक्ष द्वादशी, कलियुग वर्ष ५११६

        पू. डॉ. चारूदत्त पिंगळे

हिन्दुओंमें विद्यमान क्षात्रवृत्ति अल्प होने लगी है । इसलिए भावी पीढियोंकी क्षात्रवृत्ति एवं छत्रपति शिवाजी महाराजके हिंदवी स्वराज्य अर्थात ‘हिन्दू राष्ट्र’का बचपनसे स्मरण होने हेतु बच्चोंको किले  निर्माण करना सिखानेकी प्रथाका आरंभ हुआ ।

१. किलेके पीछेकी आध्यात्मिक संकल्पना !

मनुष्यकी देह एक किला है । देहबुद्धि किलेके समान (प्रत्येक जन्मके संस्कार एवं षडरिपुके कारण स्वस्वरूप अथवा आत्मबुद्धि झाकी जाती है) है । ऊपरी तौरपर ऐसा प्रतीत होता है कि कुछ किले भेद्य एवं कुछ अभेद्य हैं । प्रत्यक्षमें प्रत्येक किला भेद्य एवं उसपर सफलता प्राप्त करनेयोग्य होता है । उसीप्रकार  देहबुद्धिरूपी किलेको भेदकर आत्मबुद्धिरूपी धर्मपताका फहराना अर्थात आत्मस्वरूप जानकर उसमें स्थिर होना मनुष्यजन्मका ध्येय है ।

२. व्यष्टि साधनाकी दृष्टिसे किलोंका महत्त्वfort

किला  निर्माणकी संकल्पनाका अर्थ है प्रथम रज-तम (षडरिपु एवं अनिष्ट संस्कार) गुणोंपर सत्त्वगुणसे मात करना एवं पश्चात सत्त्वगुणका त्याग कर गुणातीत होना, यह सच्चा हिन्दुत्व है । इस परंपरासे ‘हीनानि गुणानि दूषयति इति हिन्दू’ इस व्याख्याके अनुसार अंतरमें अर्थात पिंडमें हिंदवी स्वराज्यकी (ईश्‍वरी राज्यकी) स्थापना करना, युवा पीढीको स्वयंपर यह व्यष्टि उद्देश्य अंकित करना आवश्यक है ।

३. समष्टिकी दृष्टिसे किलोंका महत्त्व !

शत्रुके नियंत्रणवाला किला युद्धमें जीतकरं उसपर अपना ध्वज फहराना अर्थात परतंत्रतासे मुक्त होकर स्वतंत्र होना । परतंत्रता अंधेरेके समान है एवं स्वतंत्रता प्रकाशके समान है । दीपावली अंधेरेपर विजय एवं प्रकाशमार्गके प्रवासकी अनुभूति देनेवाला त्यौहार है ।

४. किलेपर सजावट एवं उसका भावार्थ

४ अ. सिंहासन निर्गुण ब्रह्मका अर्थात शाश्‍वत सत्ताका प्रतीक है । राजा  सगुण ब्रह्म है । देहधारी राजा समयके अनुसार परिवर्तित होता रहता है परंतु सिंहासन वही रहता है । यह जीवका आत्मा एवं देहस्वरूपका (नाशवंत शरीर) प्रतीक है ।

४ आ. सिंहासनपर आरूढ छत्रपति शिवाजी महाराज ‘हिन्दू राष्ट्र’के संस्थापकके प्रतीक हैं ।

४ इ. धर्मसत्ताके सामर्थ्य एवं उन्नतोंके मार्गदर्शनसे राजनेता राजधर्मका पालन करता है । समाजको साधनाकी अर्थात सत्त्वगुणकी ओर मोडकर रज-तमका नाश करता है । ऐसे समय हिन्दवी राज्यकी (‘हिन्दू राष्ट्र’की) स्थापना होती है ।

४ ई. ईश्‍वरीय राज्यमें अधिकांश नागरिक साधना करनेवाले, सत्त्वगुणी अर्थात नम्र, निःस्वार्थी, कर्तव्यदक्ष, परिश्रमी, राष्ट्र-धर्मके ज्वलंत अभिमानसे भरपूर एवं राष्ट्र तथा धर्मकी रक्षाके लिए सर्वस्व अर्पण करनेवाले होते हैं ।

– पू. डॉ. चारुदत्त पिंगळे, राष्ट्रीय मार्गदर्शक, हिन्दू जनजागृति समिति

स्त्रोत : दैनिक सनातन प्रभात

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