Menu Close

Video : श्रीक्षेत्र पंढरपूर (महाराष्ट्र) की वारी में निहित चैतन्य का महत्त्व हिरन जैसे प्राणी के समझ में आता है; तो ये पुरो(अधो)गामी उसे क्यों नहीं समझ लेते ?

क्या, इसे भी वे ‘अंधश्रद्धा’ ही कहेंगे !

प.पू. परशराम पांडे महाराज

‘आषाढी वारी के उपलक्ष्य में श्री पांडुरंग के दर्शन की आस में जब भक्त अपने घर से निकलता है, तब पांडुरंग उस भक्त के साथ ही वारी में होते हैं ! अतः वारी में पैदल चलते समय इतनी कठीन स्थिति में भी भक्त को आनंद प्रतीत होता है। इससे एक प्रकार से उसकी साधना ही होती है। इस साधना के द्वारा ही भक्त को पांडुरंग का वास्तविक दर्शन होता है। इस प्रकार से वारी में न जाकर केवल पैसे देकर पांडुरंग का दर्शन करनेवालों को यह आनंद प्राप्त नहीं होता। अतः वारी में पैदल जानेवालों को प्राप्त होनेवाले आनंद का महत्त्व उनको ज्ञात नहीं होता !

इस प्रकार से पैदल वारी में जाने की परंपरा बहुत पुरानी है। संतश्रेष्ठ ज्ञानेश्‍वर महाराज के पिता विठ्ठलपंतद्वारा पंढरपुर की वारी में जाने का उल्लेख मिलता है। यह वारी संत ज्ञानेश्‍वर महाराज एवं अन्य संत-महात्माओं के आत्मशक्तिद्वारा ही चल रही है। इस वर्ष ‘श्रीक्षेत्र शेगाव से आ रही पालकी के साथ पंढरपुर जानेवाली वारी में एक हिरन भी सम्मिलित हुआ था ! इसमें विशेष बात यह है कि, वह रात के समय किए जानेवाले कीर्तन में भी बैठता है। इससे ‘वारी में निहित चैतन्य का महत्त्व प्राणियों के भी समझ में आता है, यह ध्यान में आता है; परंतु यह बात आज के पुरो(अधो)गामियों के ध्यान में क्यों नहीं आती ?, इसका आश्‍चर्य होता है !

प.पू. परशराम पांडे महाराज, सनातन आश्रम, देवद, पनवेल (२.७.२०१७)


स्त्रोत : दैनिक सनातन प्रभात

Related News

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *