इतने वर्षों बाद सच्चार्इ बतानेवाले शिया वक्फ बोर्ड का अभिनंदन ! क्या अभी देश के तथाकथित धर्मनिरपेक्षवादी अयोध्या में राममंदिर बनाने का समर्थन करेंगे ? – सम्पादक, हिन्दुजागृति
नई देहली : बाबरी मस्जिद के मालिकाना हक की कानूनी लड़ाई हारने के ७१ वर्ष बाद उत्तर प्रदेश का शिया वक्फ बोर्ड बुधवार को उच्चतम न्यायालय पहुंचा। बोर्ड ने ३० मार्च १९४६ को निचली न्यायालय की ओर से सुनाए गए उस निर्णय को चुनौती दी, जिसमें मस्जिद को सुन्नी वक्फ बोर्ड की संपत्ति बताया गया था। उच्चतम न्यायालय में दाखिल याचिका में शिया वक्फ बोर्ड ने कहा कि, बाबरी मस्जिद को उस जगह बने मंदिर को नष्ट करके बनाया गया था। बता दें कि, राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद पर उच्चतम न्यायालय शुक्रवार को सुनवाई करने वाला है। वक्फ बोर्ड ने सिफ़ारिश की है कि, अन्य याचिकाओं के साथ उसकी याचिका पर भी निर्णय लिया जाए।
बता दें कि, याचिका दायर करने से एक दिन पहले ही वक्फ बोर्ड ने माना था कि, वह विवादित मस्जिद को दूसरी जगह हटाएं जाने के लिए तैयार है ताकि इस विवाद को समाप्त किया जा सके। शिया वक्फ बोर्ड ने न्यायालय में अपनी याचिका वकील एमसी धींगरा के माध्यम से दाखिल की है। इसमें बोर्ड ने कहा है कि, निचली न्यायालय ने बाबरी मस्जिद को सुन्नी वक्फ बोर्ड की संपत्ति घोषित करके गंभीर गलती की है, क्योंकि इस मस्जिद को शिया मुस्लिम ने बनवाया था। मस्जिद को मुगल बादशाह बाबर ने बनवाया था, इस आम धारणा को चुनौती देते हुए बोर्ड ने दावा किया कि, बाबरी मस्जिद का निर्माण बाबर के एक मंत्री अब्दुल मीर बाकी ने अपने पैसों से करवाया था। बाकी एक शिया मुस्लिम थे, जबकि बाबर एक सुन्नी मुसलमान।
शिया वक्फ बोर्ड की याचिका में कहा गया है, ‘बाबर अयोध्या के निकट ५ या ६ दिन ही ठहरा, क्योंकि मस्जिद बनवाने में ज्यादा समय (मंदिर को तोड़ना और मस्जिद बनाना) लगना था। निचली न्यायालय यह समझने में असफल रहा कि, केवल मस्जिद बनने का आदेश देना किसी व्यक्ति को उस संपत्ति का वाकिफ नहीं बना देता। बाबर ने शायद बाकी को मस्जिद बनवाने कहा हो, पंरतु बाकी ही वह व्यक्ति थे, जिन्होंने जगह की पहचान की और मंदिर गिरवाया ताकि मस्जिद का निर्माण करवाया जा सके।’ बता दें कि, जानकार वाकिफ वह व्यक्ति होता है, जो किसी संपत्ति को ऊपरवाले को समर्पित करके उसे वक्फ का दर्जा देता है।
शिया बोर्ड का आरोप है कि, मस्जिद के बनने के बाद से उसकी देखरेख शिया समुदाय के लोग ही कर रहे थे, पंरतु ब्रिटिश सरकार ने अनुचित ढंग से १९४४ में इसे सुन्नी वक्फ बता दिया। इसके बाद वह १९४५ में फैजाबाद सिविल न्यायालय पहुंचे, जिसने उसका दावा खारिज कर दिया। निचली न्यायालय के निष्कर्षों को चुनौती देते हुए बोर्ड ने कहा कि, मस्जिद में ऐसे शिलालेख मौजूद हैं, जिनपर विस्तार से यह बताया गया है कि, बाकी ही इस मस्जिद के निर्माता थे और न्यायालय ने उसके दावे को खारिज करके गंभीर गलती की है।
स्त्रोत : नवभारत टाइम्स