कश्मीर की स्थिति प्रतिदिन बिगडती जा रही है। विगत ढाई दशकों से इस्लामी आतंकवाद ने यहां के हिन्दुओं को पलायन करने पर बाध्य किया। आज के दिन हमारी सेना पर स्थानीय विभाजनवादियोंद्वारा होनेवाला जानेवाला पथराव, उनकेद्वारा आतंकियों की की जानेवाली सहायता, पाकिस्तान एवं इसिस के ध्वज फहराने के कारण भारत के राष्ट्रीयत्व को ही चुनौती दी जा रही है। विगत कुछ वर्षों में कश्मीर अधिक ही सुलग रहा है। मूलरूप से विभाजन के समय ही राज्यकर्ताओंद्वारा की गई गंभीर चुकों के परिणाम अब हमें भुगतने पड रहे हैं ! निरंतर धधगते रहे कश्मीर का वास्तव इस लेखमाला के माध्यम से प्रस्तुत किया जा रहा है . . .
लेखमाला का नाम : धधकते कश्मीर का वास्तव !
नेहरू शासन का ‘जम्मू एवं कश्मीर’ से ‘जम्मू’ शब्द को हटाने का षडयंत्र तथा उसका कठोरता के साथ विरोध करनेवाले प्रा. शहा एवं श्री. मैत्रा !
‘मार्च १८४६ में जम्मू के राजा गुलाबसिंह एवं ब्रिटीश शासन में किए गए अमृतसर अनुबंध के अनुसार ‘जम्मू एवं कश्मीर राज्य’ अस्तित्व में आया। ब्रिटीशों की विस्तारवादी नीति के कारण जब भारत में स्थित अन्य राज्य ताश के पत्ते की तरह गिर रहे थे, तब यह राज्य अस्तित्व में आ गया, यह विशेष बात है। इसके कारण डोग्रा संस्थान के जम्मू राज्य से कश्मीर जुड गया (अन्य किसी भी पद्धति से नहीं) और उसका एकत्रिकरण होकर भी राज्य की राजधानी का स्थान जम्मू को ही रखा गया।
१. कश्मीर का राज्य शेख अब्दुल्ला के हाथ में सौंपकर राज्य के नाम से ‘जम्मू’ शब्द को हटाने का नेहरू का षडयंत्र ! : अक्तूबर १९४७ में जम्मू का भारत में विलय होनेपर उससे नाटकीय मोड प्राप्त हुआ। तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने महाराजा हरिसिंग पर दबाव बनाकर उन्हें इस राज्य को नेहरू के कश्मीर में स्थित मित्र शेख अब्दुल्ला को सौंपने के लिए कहा। इससे भी उनको संतोष नहीं हुआ; इसलिए जम्मू के डोग्रा के घावपर नमक छिडकने हेतु उन्होंने इस राज्य का नाम केवल ‘कश्मीर’ रखने का षडयंत्र रचा। २९.५.१९४९ को जम्मू एवं कश्मीर के कार्यकारी मंत्री गोपालस्वामी अय्यंगार ने संविधान बनाने का अथवा उसमें परिवर्तन करने का अधिकार प्राप्त सभा में (संविधान विधानमंडल) यह प्रस्ताव रखा कि, संविधान विधानमंडल की धारा ४ के अनुसार प्रधानमंत्री के परामर्श के अनुसार कश्मीर राज्य के विधानसभा के सभी स्थान (सीटें) कश्मीरी संस्थानिक भर दे।
२. ‘जम्मू’ नाम को हटा देने से होनेवाले भीषण परिणामों का भान रखनेवाले प्रा. शहा एवं पंडित मित्रा ! : इस अधिकृत प्रस्तावपर अनेक आपत्तियां दर्शाई गईं। राज्य के नाम से ‘जम्मू’ शब्द को हटाने से अनेक सदस्य क्षुब्ध बन गए। इस चर्चा में मुख्यरूप से बंगाल के पंडित लक्ष्मीकांता मित्रा एवं बिहार के प्रा. के.टी. शहा अंतर्निहित थे। प्रा. शहा को यह राज्य एवं वहां की जनता के प्रति प्रत्यक्षरूप से अनुभव था। अक्तूबर १९४६ के पहले वे इस संस्थान से संबंधित कार्य से १५ वर्ष तक जुडे हुए थे। वर्ष १९३१ में वहांपर हुई उथलपुथल के वे प्रत्यक्षरूप से साक्षी थे तथा कुछ वर्ष तक वे इस राज्य के ‘नियोजन समुपदेशक’ थे। कश्मीर के नैशनल कॉन्फरन्स के अध्यक्ष शेख महंमद अब्दुल्ला उनसे मिलने हेतु श्रीनगर से मुंबई गए थे। उनकी उनके साथ ‘नई कश्मीर योजना’ के विषय में १५ दिनोंतक बातचीत हुई थी। अतः प्रा. शहा को इस प्रस्ताव के कारण भविष्य में उत्पन्न संभावित गंभीर परिणामों का भान था। (सितंबर १९४४ में नैशनल कॉन्फरन्सद्वारा अपने ‘नया कश्मीर’ अभियान के माध्यम से यह मांग की गई थी कि, ‘अमृतसर अनुबंध’ तो बिक्री का अनुबंध होने से यह वहां के लोगों का अपमान है; इसलिए उसको ‘कश्मीर राज्य’ कहनेवाला वह अनुबंध तत्काल रद्द किया जाए। उन्होंने वर्ष १९४६ में इस सूत्र के आधारपर ‘कश्मीर छोडो’ आंदोलन का प्रारंभ किया।)
३. जम्मू के समर्थन में विधानमंडल में श्री. मैत्रा एवं प्रा. शहाद्वारा दिए गए मुंहतोड वक्तव्य ! : श्री. मैत्रा ने संविधान विधानमंडल में एक के पश्चात एक ऐसे अनेक प्रश्न किए कि, क्या ‘कश्मीर’ शब्द में ‘जम्मू’ नाम आता है ? तो प्रा. शहा ने इस प्रस्ताव में सुधार कर प्रत्येक बार ‘कश्मीर’ शब्द के पहले ‘जम्मू’ नाम आना ही चाहिए’, यह मांग की। अपने इस सुधार को रखते हुए श्री. शहा ने कहा, ‘‘इस राज्य का प्राचीन नाम ‘जम्मू’ है और उसका एक अलग महत्त्व है। अतः आपको (अय्यंगार को) इस शीर्षक को हटाना नहीं चाहिए। आप इस राज्य को केवल ‘कश्मीर’ नाम देकर अयोग्य कृत्य कर रहे हैं। आप एक विशिष्ट पंथ (सुन्नी) के प्रभाव में आकर संबंधित व्यक्तित्व को (शेख एवं उनके सहयोगी) महत्त्व देने का अर्थ दूसरे पक्ष का महत्त्व न्यून करना है। राज्य का नाम ‘जम्मू एवं कश्मीर राज्य’ होते हुए केवल ‘कश्मीर’ के विषय में बोलना यदि चूक है, तो उसके शासकीय अभिलेखों में उसी प्रकार से चालू रखना नहीं है क्या ? प्रस्ताव रखनेवाले ने ‘जम्मू राज्य’ नाम में व्याप्त सच्चाई को अस्वीकार नहीं किया है !’’
४. नामकरण के कारण होनेवाले दुष्परिणामों का भान कराकर प्रा. शहा एवं श्री. मैत्राद्वारा किए गए अथक प्रयास : प्रा. शहा ने संविधान विधानमंडल को बताया, ‘‘कश्मीर एवं जम्मू में निहित संबंध मैत्रीपूर्ण नहीं हैं। इस राज्य के प्रधानमंत्री शेख अब्दुल्ला का वर्ष १९४६ में किया गया ‘कश्मीर छोडो’ आंदोलन तथा उससे संबंधित घटनाक्रम को आप ध्यान में लीजिए। आपने यदि इस प्रकार से पारिभाषिक नामकरण किया, तो उससे अवधारणाएं फैलती हैं और सार्वजनिक प्रविष्टि में गडबडी हो जाती है। ‘स्टेट ऑफ जम्मू एन्ड कश्मीर’ का ‘जम्मू एवं कश्मीर’ उल्लेख योग्य है। स्कॉटलैंड एवं इंग्लैंड एक ही साम्राज्य में निहित २ राज्य हैं। उन राज्यों में किंग जेम्स षष्ट एवं किंग जेम्स प्रथम ये शासक थे; परंतु वहां एक ही व्यक्ति राजमुकुट धारण करती थी। जम्मू-कश्मीर में भी वर्ष १९३१ में हुए वांशिक दंगे के पश्चात केवल प्रशासनिक सुविधा हेतु एक ही शासक के अधिकार में इस राज्य के २ भाग किए गए !’’ वे केवल यहां तक ही रूके नहीं; किंतु वे विधानमंडल को सजग करते रहे। ‘यह केवल पारिभाषिक नामकरण का प्रश्न अथवा शाब्दिक सहमति का प्रश्न नहीं, अपितु उसके पीछे एक अर्थ एवं घटनाक्रम है, जो केवल इस विधानमंडल अथवा देश से संबंधित नहीं है। उसके परिणाम इस देश के बाहर भी होनेवाले हैं। अतः हम हमारी अभिव्यक्ति में एवं पारिभाषिक नामकरण में प्रत्यक्ष स्थिति का अचूक वर्णन करनेवाले शब्दों का उपयोग करना चाहिए’, ऐसा उन्होंने कहा।
५. राज्य के नाम से ‘जम्मू’ शब्द को हटाने का समर्थन करनेवाले नेहरू ! : कश्मीर का अर्थ ‘जम्मू एवं कश्मीर’ का अधिक स्पष्टीकरण करते हुए अय्यंगार ने कहा, ‘‘संविधान के प्रारूप में इसका उल्लेख ‘स्टेट ऑफ कश्मीर’ है तथा संविधान विधानमंडल की नियम पत्रिका को जोडे गए परिपत्र में ‘कश्मीर’ का संदर्भ होने की बात कह कर उन्होंने सदस्यों को इस पर अर्थहीन आपत्ति न जताकर जो ‘स्टेट ऑफ कश्मीर’ के विषय में जो कुछ स्पष्टीकरण है; उसको यथास्थिति में रहने देने का अनुरोध किया; क्योंकि उसमें परिवर्तन करने से उससे संबंधित सूत्रों को अन्य नियमपत्रिकाओं में परिवर्तन करना पडेगा !’’ दूसरे शब्दों में अय्यंगार ने ‘जम्मू एवं’ इन शब्दों को ‘कश्मीर’ के पहले लगाने का विरोध किया। उसके कारण केवल उनको ही ज्ञात थे। शहा एवं मैत्रा को अय्यंगार इसका संतोषजनक स्पष्टीकरण देना संभव नहीं होगा, इसका भान होने से प्रधानमंत्री नेहरू ने आगे आकर अय्यंगार का बचाव कर उनके वक्तव्य की पुष्टि की। उस समय नेहरूद्वारा किए गए भाषण में नेहरू ने कहा, ‘‘मैं कश्मीर से अनेक प्रकार से जुडा हुआ हूं। भारत में स्थित अन्य किसी भी राज्य की अपेक्षा मेरा कश्मीर से निहित संबंध अधिक गहरा है। मैने कश्मीर के स्वतंत्रता की लडाई में भाग लिया है। अतः मैं इस सदन में इस विषय में कुछ बोलने की स्वतंत्रता ले रहा हूं। इस विषय में प्रा. शहा की अपेक्षा मुझे अधिक ज्ञान है !’’, ऐसा कहते हुए उन्होंने श्री. शहाद्वारा रखे गए सूत्र के विरोध में बहुत लंबा विवेचन किया। उसमें उन्होंने शेख अब्दुल्ला, उनका राजनीतिक दल नैशनल कॉन्फरन्स एवं ‘कश्मीर छोडो’ आंदोलन की प्रशंसा की। ऐसा बोलकर उन्होंने इस राज्य के नाम में एक छोटासा परिवर्तन सुझाया। जम्मू के नाम को हटाने के आधार के रूप में उन्होंने लोगों के मन में व्याप्त संभ्रम का आवरण चढा दिया। प्रत्यक्ष रूप में उन्होंने इस राज्य का उल्लेख ‘कश्मीर राज्य’ ही किया जाए और कंस में ‘जम्मू’ लिखने का प्रस्ताव किया। उस समय इस राज्य को ‘स्टेट ऑफ कश्मीर एन्ड जम्मू’ से जाना जाता था।
६. ‘जम्मू’ नाम को न्यूनतम कंस में तो भी स्थान प्राप्त कर देनेवाले प्रा. शहा एवं मैत्रा ! : वर्ष १८४६ से १९४९ की अवधि में इस राज्य को कभी भी ‘स्टेट ऑफ कश्मीर एन्ड जम्मू’ नहीं कहा जाता था। उसको ‘स्टेट ऑफ जम्मू एन्ड कश्मीर’ ही कहा जाता था। जम्मू इस राज्य की शाश्वत राजधानी थी। वर्ष १८५७ से १८८५ के महाराजा रणबीर सिंह के शासनकाल में जम्मू में स्थित मंत्रालय को कश्मीर में स्थानांतरित किया गया। इसके पीछे अंग्रेजों की राजनीति थी। उनको कश्मीर घाटी में महाराज के विरुद्ध वातावरण उत्पन्न कर वहां अपने पैर जमाने थे। उससे उनको गिलगिट शहर के आसपास रशियाद्वारा चलनेवाली गतिविधियोंपर ध्यान रखना सुलभ होनेवाला था। प्रधानमंत्री नेहरू का बचाव निष्फल सिद्ध हुआ, उसके साथ ही प्रा. शहा की ओर से विधानमंडल में अपने प्रस्ताव को पारित करने के प्रयास भी अल्प नहीं हुए। अतः इस विषय पर बना गतिरोध वैसा ही रह गया। अंततः अय्यंगार ने इस प्रस्ताव को अपने अधिकार में आगे भेजा तथा इस राज्य का नाम ‘स्टेट ऑफ कश्मीर’ हो, ऐसा सुनिश्चित किया गया। विधानमंडल ने इस प्रस्ताव को पारित किया और जिस जम्मू ने कश्मीरपर १०१ वर्षोंतक राज्य किया, उसको इस राज्य के पारिभाषिक नामकरण में न्यूनतम कंस में तो स्थान प्राप्त हुआ और यह केवल प्रा. शहाद्वारा किए गए अथक प्रयासों के कारण तथा उनको प्राप्त मित्रा के सहयोग कारण ही संभव हो सका। विधानमंडल के अन्य सदस्यों की भांति यदि ये दोनों शांत रहे होते; तो इस राज्य के नाम से ‘जम्मू’ शब्द विलुप्त हुआ होता !’
– प्रा. हरि ओम महाजन, पूर्व विभागप्रमुख, सामाजिक शास्त्र शाखा, जम्मू एवं कश्मीर विश्वविद्यालय
(swarajyamag.com/amp/story)
स्त्रोत : दैनिक सनातन प्रभात