सनातन के रामनाथी गोवा आश्रम में ‘वक्ता प्रशिक्षण कार्यशाला’ का आरंभ
रामनाथी (गोवा) : राजधर्म ही प्राचीन पारंपरिक व्यवस्था की नींव थी । इस परंपरा के अनुसार वर्ष १९४७ तक भारत में राज्यशासन चलाया जाता था । पहले के राजा धर्मशास्त्र के जानकार थे । राज्यव्यवस्था की संकल्पना कोई नए सिरे से उत्पन्न नहीं हुई है, अपितु सृष्टि के प्रारंभ में ब्रह्मदेव ने ऋषियों को धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष इन ४ पुरुषार्थोंपर आधारित खंड सौंप दिये थे । आगे जाकर उसी आधार पर ही उस ज्ञान की अलग-अलग स्मृतिग्रंथों के माध्यम से सभी को शिक्षा दी जा रही थी । इसमें राजा को केवल न्यायदान का अधिकार था तथा धर्मशास्त्र, साथ ही परंपराओं का अध्ययन राजा का प्रथम कर्तव्य था !
वर्ष १९४७ तक इस राजधर्म का सर्वत्र पालन किया जाता था ! उसके पश्चात अंग्रेजोंद्वारा भारतीय स्वतंत्रता कानून के अनुसार सत्ता का हस्तांतरण किए जाने के पश्चात वर्तमान राज्यव्यवस्था का आरंभ हुआ । प्रा. रामेश्वर मिश्रा ने ऐसा मार्गदर्शन किया । आज से यहां पर ‘वक्ता प्रशिक्षण कार्यशाला’ का आरंभ हुआ । इस कार्यशाला में ‘वर्तमान प्रशासनिक व्यवस्था का स्वरूप’ इस सत्र में वे ऐसा बोल रहे थे ।
इस अवसर पर व्यासपीठ पर धर्मपाल शोधपीठ की पूर्व संचालिका तथा अर्थशास्त्र की अभ्यासिका प्रा. कुसुमलता केडिया और सनातन संस्था के राष्ट्रीय प्रवक्ता श्री. चेतन राजहंस उपस्थित थे । आरंभ में श्री. चेतन राजहंस ने कार्यशाला का उद्देश्य स्पष्ट किया ।
प्रा. मिश्रद्वारा अपने मार्गदर्शन में बताए गए अन्य सूत्र . . .
१. आज की व्यवस्था लचीली है । इस व्यवस्था का सदुपयोग हो सकता है अथवा दुरूपयोग भी हो सकता है ! सदुपयोग करना शासनकर्ताओं का दायित्व है । इस व्यवस्था का योग्य पद्धति से क्रियान्वयन होने हेतु राज्यकर्ताओं में इच्छाशक्ति का होना महत्त्वपूर्ण है !
२. प्राचीन काल के अलग-अलग धर्मशास्त्रों में व्यवस्था कैसी होनी है, इसका विवरण दिया है; परंतु शासनकर्ताओं का सक्षम न होना ही इस व्यवस्था में निहित त्रुटियों का कारण है !
३. राज्यव्यवस्था में परिवर्तन होने हेतु पहले ‘शिक्षाव्यवस्था’ में परिवर्तन होना आवश्यक है ! आयएएस एवं आयपीएस की परीक्षा देनेवाले छात्रों को भारतीय परंपराएं एवं हिन्दू धर्मशास्त्र के ज्ञान की शिक्षा दी जाना आवश्यक है !
स्त्रोत : दैनिक सनातन प्रभात