कार्तिक शुक्ल पक्ष एकादशी, कलियुग वर्ष ५११६
हिन्दू पुराणों के अनुसार भगवान ब्रहमा ने सृष्टि के आरम्भ में पुष्कर में यज्ञ का आयोजन किया था। यज्ञ करते समय उनकी पत्नी सावित्री यज्ञस्थल पर मौजूद नहीं थी जबकि यज्ञ करते समय पत्नी का होना आवश्यक है। धीरे धीरे यज्ञ का शुभ मुहूर्त निकलने लगा, तब कोई उपाय न देखकर उन्हें नंदिनी गाय के मुख से गायत्री को प्रकट कर उसे सावित्री की जगह बिठाना पड़ा।
यज्ञ के कुछ ही देर बाद सावित्री वहां पहुंच गई और ब्रहमाजी केसाथ अन्य स्त्री को बैठे देख नाराज हो गई और श्राप दिया कि उनकी पूजा पुष्कर के अलावा अन्यत्र कहीं नहीं हो सकेगी। हालांकि सृष्टि रचने वाले देवता ब्रहमाजी के पूरे विश्व में कुछ ही मंदिर बने हुए हैं। इनमें पुष्कर के अतिरिक्त कुल्लू, बाड़मेर, कोल्लम, तिरूचिरापल्ली, तंजावुर, साबरकंठा, सत्तारी, त्रिची और गुंटूर है। माना जाता है कि ब्रहमाजी को श्राप मिला हुआ है जिसके कारण उनके पुष्कर स्थित मंदिर में ही पूजा-अर्चना की मान्यता प्राप्त होगी।
सदियों पुराना है पुष्कर का ब्रहमा मंदिर
मंदिर मूल रूप से कब बना है, इसका कोई आधिकारिक रिकॉर्ड नहीं है। सरकारी रिकॉर्ड के मुताबिक वर्तमान मंदिर 14वीं सदी में बनाया गया था। मंदिर में कमल पर विराजमान ब्रहमाजी की राजसी छवि वाले चार मुख की मूर्ति स्थापित है। इसमें उनके बाएं तरफ गायत्री तथा दाईं तरफ सावित्री बैठी हुई है।
ब्रहमाजी की वजह से विष्णुजी को भी मिला श्राप
जनश्रुतियों के अनुसार ब्रहमाजी की गायत्री से विवाह कराने में विष्णुजी ने मुख्य भूमिका निभाई थी जिसका पता चलने पर सावित्री ने उन्हें भी श्राप दिया कि आपको अपने पत्नी का वियोग सहना होगा। इसी श्राप के चलते उनका रामावतार के समय सीताजी से वियोग हुआ और उन्हें विरह की अग्नि में जलना पड़ा।
इसके बाद भी उनका क्रोध शांत नहीं हुआ। उन्होंने नंदिनी गाय को कलियुग में गंदगी खाने और नारद को आजीवन कुंवारा रहने का श्राप दिया। वहां मौजूद ब्राहमण को भी श्राप मिला कि वे कभी संतुष्ट नहीं होंगे और अग्निदेव को भी कलियुग में अपमानित होने का श्राप मिला। क्रोध शांत होने के बाद सावित्री पुष्कर में मौजूद पहाडियों में जाकर तपस्या में लीन हो गई और वहीं रहकर भक्तों का कल्याण करने लगी।
स्त्रोत : पत्रिका