‘दत्तजयंती’ दत्तभक्तों के लिए आनंद का पर्व है । भगवान दत्तात्रेय की उपासना केवल सांप्रदायिक उपासना नहीं, वह सभी के लिए उपयुक्त है । मार्गशीर्ष पूर्णिमा के दिन मृग नक्षत्रपर सायंकाल भगवान दत्तात्रेय का जन्म हुआ, इसलिए इस दिन भगवान दत्तात्रेय का जन्मोत्सव सर्व दत्तक्षेत्रों में मनाया जाता है । दत्तजयंती पर दत्ततत्त्व पृथ्वी पर सदाकी तुलना में १००० गुना कार्यरत रहता है । इस दिन दत्त की भक्तिभाव से नामजपादि उपासना करनेपर दत्ततत्त्व का अधिकाधिक लाभ मिलने में सहायता होती है ।
भगवान दत्तात्रेय के जन्म का इतिहास
पुराणों के अनुसार अत्रि ऋषि की पत्नी अनसूया महापतिव्रता थी, जिसके कारण ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश ने निश्चय किया कि, उनकी पतिव्रता की परीक्षा लेंगे । एक बार अत्रि ऋषि अनुष्ठान के लिए बाहर गए हुए थे, तब अतिथि के वेशमें त्रिमूर्ति (ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश) पधारे एवं उन्होंने अनसूया से भोजन मांगा । अनसूयाने कहा, ‘ऋषि अनुष्ठान के लिए बाहर गए हैं, उनके आनेतक आप प्रतीक्षा करें ।’ त्रिमूर्ति अनसूयासे बोले, ‘‘ऋषि को आने में समय लगेगा, हमें बहुत भूख लगी है । तुरंत भोजन दो, अन्यथा हम कहीं और चले जाएंगे । हमने सुना है कि, आप आश्रम में पधारे अथितियों को इच्छाभोजन देते हैं, इसलिए हम इच्छाभोजन करने आए हैं ।’’ अनसूया ने उनका स्वागत किया और बैठने की विनती की । वे भोजन करने बैठे । जब अनसूया भोजन परोसने लगी तब वे बोले, ‘‘हमारी इच्छा है कि, तुम निर्वस्त्र होकर हमें परोसो ।’’ इसपर उसने सोचा, ‘अथिति को विमुख भेजना अनुचित होगा । मेरा मन निर्मल है । मेरे पतिका तपफल मुझे तारेगा ।’ ऐसा विचार कर उसने अतिथियोंसे कहा, ‘‘अच्छा ! आप भोजन करने बैठें ।’’ तत्पश्चात् रसोईघर में जाकर पतिका ध्यान कर उसने मनमें भाव रखा, ‘अतिथि मेरे शिशु हैं’ । आकर देखती हैं, तो वहां अतिथियों के स्थानपर रोते-बिलखते तीन बालक थे ! उन्हें गोद में लेकर उसने स्तनपान कराया एवं बालकों का रोना रुक गया ।
इतने में अत्रिऋषि आए । उसने उन्हें पूरा वृत्तांत सुनाया । उसने कहा, ‘‘स्वामिन् देवेन दत्तम् ।’’ अर्थात – ‘हे स्वामी, भगवानद्वारा प्रदत्त (बालक) ।’ इस आधारपर अत्रि ऋषिने उन बालकोंका नामकरण ‘दत्त’ किया । अंतर्ज्ञानसे ऋषिने बालकों का वास्तविक रूप पहचान लिया और उन्हें नमस्कार किया । बालक पालने में रहे एवं ब्रह्मा, विष्णु, महेश उनके सामने आकर खडे हो गए और प्रसन्न होकर उन्हें वर मांगने के लिए कहा । अत्रि एवं अनसूयाने वर मांगा, ‘ये बालक हमारे घरपर रहें ।’ वह वर देकर देवता अपने लोक चले गए । आगे ब्रह्मदेवता से चंद्र, श्रीविष्णु से दत्त एवं शंकर से दुर्वास हुए । तीनों में से चंद्र एवं दुर्वास तप करने की आज्ञा लेकर क्रमशः चंद्रलोक एवं तीर्थक्षेत्र चले गए । तीसरे, दत्त विष्णुकार्य के लिए भूतलपर रहे । यही है गुरुका मूल पीठ ।
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