वर्तमानमें समाजका एक भाग नीतिपर आधारित होना, तो दूसरा अर्थपर आधृत विकास करनेके लिए संघर्षरत होना : ‘किसी राष्ट्रके लिए ६० वर्षोंका काल अल्प नहीं होता । स्वतंत्रताके ६० वर्ष पश्चात हम जिस मोडपर खडे हैं, वहां समाज दो भागोंमें विभाजित दिखाई दे रहा है । एक भाग नीतिपर आधारित है, तो दूसरा अर्थपर आधारित समाज विकसित हो, इसके लिए संघर्षरत है । समाजमें एक वर्ग ऐसा भी है, जिसके पास एक पुस्तक क्रय करनेके लिए पैसा नहीं, तो वहीं दूसरा वर्ग अपने बच्चेको विद्यालयमें प्रवेश दिलवानेके लिए करोडों रुपए व्यय करता है । जहां ३० प्रतिशत लोग एक रोटीके लिए दिनभर पसीना बहाते हैं, वहीं एक उद्योगपति अपनी पत्नीकी वर्षगांठपर करोडों रुपयोंका उपहार दे देता है । यह कैसा न्याय ? यह कैसी स्वतंत्रता ? ६० रुपए प्रतिदिन पारिश्रमिक के स्थानपर २०-३० रुपए थमाकर उसकी दिनभरकी ईमानदारी क्रय की जा रही है । छोटे बच्चोंतक पहुंचनेवाले दूधके साथ खिलवाड हो रहा है । जिन बच्चोंको खेलना था, वे चायकी दुकानपर कप-प्लेटें धोते हुए दिखाई देते हैं । क्या यही है हमारी स्वतंत्रताका ?’
जिस राष्ट्रके पास ५० प्रतिशतसे भी अधिक युवाशक्तिरूपी साधन-संपत्ति है, वह राष्ट्र शक्तिशाली होकर प्रगति कर सकता है; किंतु उसके लिए इस युवाशक्तिको नीतिपर आधारित समाजका प्रमुख कर्णधार बनाना आवश्यक : ‘क्या हमारी स्वतंत्रता इस रूपमें परिवर्तित हो गई है कि हमारे पौराणिक रीतिरिवाज दूरदर्शनपर दिखाकर उन्हें एक वस्तुके समान विक्रय किया जाए ? समाज भी यह सब चावसे देखते हुए तालियां बजाता है; किंतु इन तालियोंकी अनुगूंजके पीछे हमारे नैतिक पतनकी गूंज सुनाई दे रही है । हमने पश्चिमी संस्कृतिके आधारपर जीवनपद्धतिसहित नगरोंकी रचना भी कर डाली । अर्थपर आधारित समाजने आडे-खडे धागे बुननेके चक्करमें नीतिपर आधारित समाजको अनदेखा कर दिया । विचार करनेकी बात है कि जिस राष्ट्रके पास ५० प्रतिशतसे भी अधिक युवाशक्तिरूपी साधन-संपत्ति है, वह राष्ट्र वैसे भी शक्तिशाली होकर प्रगति कर सकता है; किंतु यह तब संभव है, जब इस युवाशक्तिको नीतिपर आधारित समाजका प्रमुख कर्णधार बनाएंगे । भारतके इन भावी कर्णधारोंको वेद, पुराण और उपनिषदोंके उपदेशोंसे प्रगतिके वास्तविक अर्थसे परिचित करवा देंगे ।’
स्वतंत्रताका यह राष्ट्रीय उत्सव केवल एक दिन मनाना पर्याप्त नहीं, अपितु इस स्वतंत्रताका अनुभव हमें शेष ३६४ दिन भी होना चाहिए ! : ‘स्वतंत्रताका यह राष्ट्रीय उत्सव केवल एक दिन मनाना पर्याप्त नहीं होगा, अपितु इस स्वतंत्रताका अनुभव हमें शेष ३६४ दिन भी करना आना चाहिए । इसके लिए हमें ३६४ दिन एक आदर्श, संस्कारित नागरिक होकर २४ घंटे राष्ट्र, धर्म और मानवताको जागृत रखनेके लिए कार्यरत रहना चाहिए । इन तीन तत्त्वोंका आश्रय लेकर हम ईश्वरकी आराधनामें उच्चकोटि का आनंद प्राप्त कर सकते हैं । इसी आधारपर यह राष्ट्र जगद्गुरु होगा ।’ – प.पू. भय्युजी महाराज, इंदौर (धर्मादित्य टाईम्स)