हिन्दू विधिज्ञ परिषद आयोजित राष्ट्रीय ‘अधिवक्ता अधिवेशन’ का द्वितीय दिवस
अधिवक्ता अधिवेशन के समापन सत्र में मान्यवरों का मार्गदर्शन और हिन्दुत्वनिष्ठों का अनुभवकथन !
अधिवक्ता अधिवेशन के समापन सत्र में राष्ट्र एवं धर्म रक्षणार्थ अधिवक्ताओं ने व्यक्तिगत स्तर पर किए कार्य के संदर्भ में अपने अनुभव बताए। साथ ही भारत सरकार के भूतपूर्व सांस्कृतिक सलाहाकार प्रा. रामेश्वर मिश्र ने विद्यमान न्याय-व्यवस्था की त्रुटियां दूर करने हेतु किए गए प्रयासों के संदर्भ में मार्गदर्शन किया। इसीका वृत्तांत यहां प्रस्तुत कर रहे हैं . . .
‘धर्मनिरपेक्षता’ एवं ‘समाजवाद’ इन शब्दों की संवैधानिक व्याख्या करें, ऐसी मांग करनी चाहिए ! – प्रा. रामेश्वर मिश्र
आपात्कालीन परिस्थिति में संविधान में सुधार कर, ‘धर्मनिरपेक्षता’ और ‘समाजवाद’ ये शब्द संविधान में घुसेड दिए गए। धर्मनिरपेक्षता का अर्थ आज ‘हिन्दूद्रोह’ बन गया है ! समाजवाद का सर्वमान्य ऐसा प्राथमिक अर्थ है, सभी बातों पर राज्य का पूर्ण नियंत्रण ! भारत के संविधान में ‘समाजवाद’ यह शब्द घुसेड दिया गया है और देश में जागतिकीकरण, उदारीकरण की हवा चल रही है ! आज संविधान में उल्लेख एक और उसकी वास्तविकता कुछ और ही, ऐसी हास्यास्पद परिस्थिति है ! धर्मनिरपेक्षता एवं समाजवाद, इन शब्दों की व्याख्या की जाए, ऐसी मांग पूरे देश से होनी चाहिए, तो ही धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद के नाम पर चल रहे हिन्दूद्रोह पर रोक लगेगी, ऐसा प्रतिपादन भारत सरकार के पूर्व सांस्कृतिक सलाहकार प्रा. रामेश्वर मिश्र ने किया। वे सप्तम अखिल भारतीय हिन्दू अधिवेशन के द्वितीय दिन के उद्बोधन सत्र को संबोधित कर रहे थे।
उन्होंने आगे कहा, ‘‘देश में आर्थिक और सामाजिक न्याय के साथ आध्यात्मिक न्याय मिले’, ऐसी भी मांग करनी चाहिए। आज भारत में अल्पसंख्यकों के धर्म को संरक्षण प्राप्त है; परंतु बहुसंख्यकों के धर्म को संरक्षण नहीं है, यह आध्यात्मिक अन्याय है ! ‘उसे दूर करने की अर्थात जैसे अल्पसंख्यकों के धर्म को है, उसी प्रकार बहुसंख्यकों के धर्म को भी संरक्षण प्राप्त होना चाहिए’, ऐसी मांग पूरे देश से होनी चाहिए !’’
प्रा. रामेश्वर मिश्रद्वारा प्रस्तुत अन्य सूत्र ….
१. हिन्दू कानूनों का स्रोत हिन्दुओं का धर्मशास्त्र और उनकी प्रथा-परंपराएं थीं ! स्वातंत्र्य के पश्चात ऐसा निर्णय दिया गया कि हिन्दू कानून का प्राथमिक स्रोत ब्रिटिश काल में दिए गए निर्णय ही होंगे ! ऊपर से यह सर्वसाधारण लगता है, किंतु प्रत्यक्ष में यह हिन्दूविरोधी है !
२. आज इंग्लैंड में ऐसा एक भी अधिवक्ता अथवा एक भी न्यायाधीश नहीं है, जो चर्च से संबंधित नहीं अथवा जिसने ईसाई पंथ की शिक्षा न ली हो ! इंग्लैंड, साथ ही युरोप के सभीं देशों में आज भी बहुसंख्यकों के धर्म को अधिकृत संरक्षण प्राप्त है ! ‘अधिकृत संरक्षण’ का अर्थ है कानून का प्राथमिक आधार वहां की प्रथा-परंपराएं ही हैं !
३. कानून बनानेवालों के लिए (जनप्रतिनिधियों के लिए) कोई भी अर्हता नहीं है, यह चमत्कारिक है ! जनप्रतिनिधियों को कानून का ज्ञान होना चाहिए, ऐसी व्यवस्था ही वर्तमान स्थिति में नहीं है !
४. मतदान का अधिकार मिल गया इसका अर्थ लोगों का राज्य आ गया, ऐसी मूर्खतापूर्ण भावना आज प्रचलित है ! मतदान का अधिकार, राज्य करने का अधिकार नहीं होता है, यह ध्यान में रखना चाहिए !
५. अब तक हिन्दुओं ने केवल बचावात्मक भूमिका अपनाई है ! ब्राह्मतेज और क्षात्रतेज आत्मसात कर, अब आक्रमक भूमिका अपनानी चाहिए !
६. ‘जो हिन्दुओं का धर्मांतरण करेगा, जो हिन्दुओं के देवी-देवताओं के विरोध में बोलेगा, उसे प्राणदंड देने का संवैधानिक प्रावधान होना चाहिए’, ऐसी भी मांग हिन्दुओं ने करनी चाहिए ! कानूनी दृष्टि से भी यह एक तेजस्वी मांग है ! उसे स्वीकृती मिलेगी अथवा नहीं, यह अलग बात है; परंतु ऐसी मांग करने में समस्या क्या है ?