सातव्या अखिल भारतीय हिन्दू अधिवेशन के अंतर्गत अधिवक्ता अधिवेशन के द्वितीय दिन मान्यवरोंद्वारा किया गया ओजस्वी मार्गदर्शन !
स्वतंत्रता के ७० वर्ष उपरांत भी न्यायव्यवस्था के सभी कानून, परिधान, न्यायालय में लगाए जानेवाले छायाचित्र, सब ब्रिटिशकालीन है । अनेक वर्ष उपरांत मिलनेवाले निर्णय को न्याय कह सकते हैं क्या ? आज न्याय नहीं, न्यायालय से केवल निर्णय मिलता है, यही अनुभव होता है, ऐसा प्रतिपादन हिन्दू विधिज्ञ परिषद के सदस्य अधिवक्ता नीलेश सांगोलकर ने किया ।
अधिवक्ता सांगोलकर द्वारा रखे गए अन्य सूत्र
१. चारा घोटाले में लालूप्रसाद यादव को २१ वर्ष उपरांत दंड मिला । तब तक वे अनेक मंत्रीपदों पर थे । करोडों रुपयों के कोयला घोटाला प्रकरण में मधू कोडा को ३ वर्ष का दंड मिला और मद्रास में २१ सहस्र रुपयों का भ्रमणभाष चुरानेवाले को ५ वर्ष का दंड मिला । अल्प रुपयों की चोरी पर बडा दंड और करोडों रुपयों का घोटाला करनेवालों को अल्प दंड, क्या इसे न्याय कहा जा सकता है ?
२. न्यायालय में ब्रिटिश न्यायाधीशों के छायाचित्र लगाने के स्थान पर रामशास्त्री प्रभुणे, गोपीनाथ पंत के छायाचित्र लगाने चाहिए ।
३. कनिष्ठ न्यायालय में मिले निर्णय में वरिष्ठ न्यायालय में परिवर्तन हो जाता है; परंतु किसी कनिष्ठ कर्मचारी की जांच के लिए स्थापित वरिष्ठ समिति का निर्णय अंतिम होता है, ऐसा क्यों ?
४. भ्रष्टाचार और राज्यकर्ताआें के हस्तक्षेप से न्यायव्यवस्था कलंकित हो चुकी है ।