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पाकिस्तान में हिंदुओं पर अत्याचार, कश्मीर में मांगते हैं विशेष अधिकार

मार्गशीर्ष कृष्णपक्ष चतुर्दशी, कलियुग वर्ष ५११६

जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव में इस बार किसके सिर पर होगा ताज और किसको मिलेगा राजनीतिक वनवास। क्या यहां भी चलेगा मोदी का जादू या फिर पीडीपी, नेशनल कांफ्रेंस या कांग्रेस की बनेगी सरकार। आखिर कश्मीर की राजनीति में क्या है खास। अभी भी इस प्रदेश के हालात जस के तस हैं। पाकिस्तान की दखलनदाजी जारी है।

लेकीन, पाकिस्तान में हिंदुओं की क्या स्थिति है . . .

श्रीनगर : आजादी के बाद भी कश्मीर के बारे में कांग्रेस या उसके सर्वेसर्वा अथवा आला नेताओं की नीति काफी ढुलमुल रही। आज भी कांग्रेसी नेता अपनी कश्मीर नीति की डींगे हाकते नहीं अघाते, पर संक्षेप में कहा जाए तो हमेशा से कश्मीर में कांग्रेस की एक ही नीति रही है- नेकी कर और झैलम में डाल- करोड़ों रुपए खर्च किए पर कभी हिसाब नहीं मांगा। अनेक पाप करने वाले अबदुल्ला परिवार को आंच तक नहीं आने दी। हिसाब-किताब देखने एक बार आयकर वाले श्रीनगर पहुंच गए थे- भाई लोगों ने उन्हें इस तरह घेरकर मारा जैसे चौके में घुस आए कुत्ते को मार रहे हों।

हालांकि युद्ध विराम के बाद जितना कुछ कश्मीर हमारे पास बचा, वह आज भी भारत का अभिन्न अंग है, लेकिन उसको प्राप्त विशेष दर्जा और इसके बावजूद अबदुल्ला परिवार (चाहे वह शेख अबदुल्ला हो या उनके बेटे फारूख अबदुल्ला) की यदा-कदा स्वतंत्र कश्मीर वाली दबी-छिपी महत्वाकांक्षा ने इस राज्य को भारत के बाकी राज्यों से अलग श्रेणी में रख दिया और अबदुल्ला परिवार के भारत सरकार के प्रति पूर्ण समर्पण के अभाव ने पाकिस्तान की नजर में इस राज्य को भारत की कमजोरी के रूप में पेश किया। मुस्लिम बहुलता यहां पाकिस्तान के डोरे डालने की प्रमुख वजह रही। दरअसल भारत से लड़ने की तीकत पाकिस्तान के पास कभी नहीं रही। वहां की अस्थायी राजनीति और सत्ता में स्थायित्व का अभाव ही हमारे कश्मीर के लिए दुखदायी रहा। आज भी वहां सिया-सुन्नी के बीच युद्ध चल रहा है।

पाकिस्तान में क्या हैं हिंदुओं के हालात…

बाहरी ताकत की बने कठपुतली

लोग एक दूसरे को मार-काट रहे हैं और यह मार-काट और सरकारों में स्थायित्व का अभाव एवं अन्य विकार हमेशा चीख-चीखकर  यही कहते हैं कि धर्म पर आधारित राज्य कभी सफल नहीं हो सकता। नेपाल जैसा हिन्दुवादी राष्ट्र भी इतिहास से सबक सीखकर लोकतांत्रिक हो चला है। यहां यह अभिप्राय कतई नहीं है कि हिंदुत्व लोकतांत्रिंक नहीं होता। स्वामी विवेकानंद, रिषी बर्वे और महर्षि अरविंद का हिंदुत्व लोकतंत्र के भी कहीं उप आता है। लेकिन फिर कट्टरता –फ्रस्टेशन- के चरम पर जाकर अट्टहास करती है, तथ्य यह हो जाता है। पाकिस्तान में यही हुआ। मुस्लिम कट्टरवाद ने महिलाओं को पढ़ने नहीं दिया, लोगों को मनचाहा व्यवसाय नहीं करने दिया गया। आज स्थिति यह है कि किसी भी बाहरी ताकत की कठपुतली बनकर नाचने के आदी हो चुके हैं वहां के कर्ता-धर्ता।

पचास साल में तय नहीं हुआ, आखिर करना क्या है

जिन्ना ने अंग्रेजों की कठपुतली बनकर अलग राष्ट्र मांगा और अब, जब अंग्रेजो के राज में भी सूरज के डूबने का सच सामने आ गया है, तब भी पाकिस्तान किसी नकिसी की कठपुतली बना हुआ है। कश्मीर मुद्दे को वहां के हुक्मरान अपनी घरेलु समस्या से जनता का ध्यान हटाने के लिए इस्तेमाल करते आए हैं। आज भी कर रहे हैं। भारत पाकिस्तान के बीच कश्मीर मुद्दे पक जब तब समझौता वार्ता होती रहती है लेकिन ५० वर्षों में यह भी तय नहीं हो पया कि दोनों देश क्या चाहते हैं। समझौता अथवा समाधान क्या होना चाहिए और दोनों देश क्या चाहते हैं। समझौता अथवा समाधान क्या होना चाहिए और दोनों देश क्या चाहते हैं तथा अपनी-अपनी चाहत में दोनों ओर से कितना और क्या झुकाव संभव है, यह ङी तय नहीं है और भाई लोग बड़े-बड़े प्रतिनिधिमंडल लेकर जाते या आते हैं तथा चाय-नाश्ते के बाद वार्चा को सफल तथा सौहार्दपूर्ण बता दिया जाता है,बस छुट्टी। सफलता क्या मिली, आज तक कोई नहीं जानता।

आतंकवाद का अड्डा बना पाकिस्तान

हालांकि यह अंदरूनी हस्तक्षेप है लेकिन पाकिस्तानी सत्ता पर जिया उल हक बैठे हों, भारत से सौ साल तक लड़ने की कसम खाने वाले जुल्फिकार अली भुट्टो काबिज हों या उनकी बेटी बेनजीर हों, कश्मीर में हमेशा घुसपैठ होती रहती है। उग्रवादियों को प्रशिक्षण और हथियार उपल्ब्ध कराने तथा उन्हे कश्मीर में उत्पात मचाने के लिए हमेशा भेजा जाता रहा । केसर की क्यारियां शोले उगलने लगीं। और सेब की जगह बागों में हथगोले और बारूद पैदा होने लगा। पर्यटन के क्षेत्र में करोड़ोंम कमाने वाले कश्मीर में आज पाक समर्पित उग्रवाद को दबाने के लिए भारत सरकार का अरबों रुपया खप रहा है फारूख अबदुल्ला इतने चतुर हैं कि वे केन्द्र सरकार को इलझाए रखते हैं। कर्जा लेते हैं और माफ करवा लेते हैं। जिस दल की केन्द्र में सरकार हो, वे उसी के साथ हो जाते हैं। पहले कांग्रेस के साथ रहे फिर वीपी सरकार के वक्त जनता दल से दोस्ती गाठी, फिर देवगौड़ा और गुजराल के जमाने में संयुक्त मोर्चा के साथ हो गए और अटलबिहारी वाजपेयी की केन्द्र में सरकार आते ही वे भाजपा गठबंधन सरकार के साथ हो गए।

झूठे प्रचार में महारात हासिल

जहां तक पाकिस्तान का सवाल है, वहां के हुक्मरान ने भारतीय मुसलमानों के साथ अन्याय होने की झूठी और निराधार बात का काफी प्रचार किया जबकि तथ्य यह है कि भारत में मुसलमानों के साथ अन्याय होता तो जिन्ना बेरिस्टर नहीं, फकीर होते। जब-तब भारतीय मुसलमानों की भावनाओं को उभारकरक उनमें यह भावना भरने की कोशिश की गई कि मुसलमानों के लिए समूचा भारत ही अन्यायपूर्ण है जबकि पाकिस्तान में बाद में गए बिहारी मुसलमान आज भी महाजिर के बेचारगी भरे संबोधन से जाने जाते हैं। वे बेचारे नागरिक की हैसियत भी नही पा सके। और पाकिस्तानी समाज इन्हें आज तक अपने में नहीं मिला पाया, फिर पाकिस्तानी हिंदुओं की तो दूर की बात है। लेकिन भारतीय मुसलमानों की चिंता में घड़ियाली आंसू बहाने वाले पाक शासकों ने कभी यह नहीं सोचा कि उनके देश में अल्पसंख्यक हिंदुओं की क्या हालत है।

ये हिंदू हें यहां पर सुरक्षित

पाकिस्तान में रहने वाले हिन्दुओं में ९५ प्रतिशत वे हैं जो भारत में हरिजन कहे जाते हैं। आप किसी भी पाकिस्तानी अस्पताल में जाएंगे तो वहां नर्स या डाक्टर किसी दुर्गा और लक्ष्मी को पुकारते मिल जाएंगे। …और उसी पल किसी कोने से, कूड़े की टोकरी या झाड़ू हाथ में लिए हुए दुर्गा या लक्ष्मीनजर आ जाएंगी। सन १९४७ में जब हिंदुओं का कत्लेआम हो रहा था तब सबसे ज्यादा सुरक्षित ये ही हरिजन थे। वजह यह थी कि इस्लान के नाम पर जेहाद (धार्मिक संघर्ष) करती पैनी छुरी अथवा तलवार में भी इतनी दूरदर्शिता अवश्य थी कि कल उनका मैलै ढोने के लिए इन लोगों की जरूरत पड़ी तो क्या होगा। क्योंकि सबको एक नजर से देखने वाले इस्लाम ने तो ऐसी कोई गुंजाइश छोड़ी नहीं थी। हां, काफिरों के यहां जरूर इसका रेडीमेड इंतजाम था। यही वजह है कि पिछले ५० सालों में बलात् इस्लाम कबूल कराने की मुहिम के बावजूद इन हरिजनों तो मुसलमान बनाने की कोई कोशिश नहीं की गई क्योंकि हो सकता था मोमिन होते मैला ढोने या झाड़ू लगाने के काम से ये लोग तौबा कर लेते।

पाकिस्तान में कैसे हैं हिंदूओं के हालात

वैसे पाकिस्तान के तकरीबन सात लाख हिंदुओं में से अधिकांश, सिंध सूबे के अंदरूनी गांवों और कस्बों में रहते हैं। जैसे अमरकोट बकायादा हिंदू गांव और मौहल्ले हैं। इन हिंदुओं में से कुछ अमीर जमींदार हैं इनका वहां के गरीब मुसलमानों पर रसूख-रुआब भी है, पर पाकिस्तान के कुल राजनीतिक या सामाजिक ढांचे में इनकी वही हैसियत है- जो भारत में ऐंग्ल-इंडियन समुदाय की है। भारत में ऐंग्ल-इंडियन की तरह ही पाकिस्तान में भी हिंदुओं के लिए राष्ट्रीय तथा सूबाई असेंबली में दो-दो सीटें आरक्षित हैं। कहने को तो भारत की तरह आम सीटों पर भी पाकिस्तान में वहां के अति-अल्पसंख्यक हिंदु चुनाव लड़ सकते हैं पर भारत के ठीक विपरीत पाकिस्तान में आम सीटों पर हिंदु प्रत्याशी चुनाव नहीं लड़ते। यही वजह है कि पाकिस्तानी हिंदु नेता उतने मुखर नहीं है जितने कि भारतीय मुस्लिम नेता।

एक फीसदी मतदाता और दो सुरक्षित सीट

पाकिस्तान में हिंदुओं की तादाद कुल मतदाताओं के लगभग एक फीसदी है, जिससे अपनी दो सुरक्षित सीटों के अलावा वे किसी और सीटों को प्रभावित करने की हैसियत नहीं रखते। यही वजह है कि हिंदुओं का न केवल सियासी बल्कि पाकिस्तानी समाज में भी कोई स्थान नहीं है। इसलिए पाकिस्तानी हिंदु नेता राजनीति को प्रभावित करना या वोटों का सौदा करना चाहें तो भी नहीं कर सकते। भारतीय मुस्लिम नेताओं की तरह उनमें इतनी कबूबत कहां? फिर ये पाकिस्तानी हिंदु, भारत की ओर आशा की नजर से देखने की जुर्रत भी नहीं कर सकते, क्योंकि ऐसी हरकतों पर उन्हें अपनी आंखें गवां बैठने का भय चौबीसों घंटे बना रहते है। यही वजह है कि पाकिस्तानी सत्ताधीश इस ओर से सर्वथा बेफ्रिक पहते हैं, क्योंकि कुल आबादी का १ प्रतिशत बल्कि इससे भी कम हिस्सा, किसी की मदद से जेहाद छेड़ना चाहे तो भी कुछ कर पाना मुमकिन नहीं है। अब ऐसे में पाकिस्तानी शासकों का भारतीय मुस्लिमों के नाम पर घड़ियाली आंसू बहाना कहां तक ठीक है? उन्हें पहले अपनी गिरेबां में झांकना चाहिए।

स्त्रोत : दैनिक भास्कर

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