सबरीमला अब एक मंदिर और एक तीर्थ से बढकर कुछ लोगों के लिए ‘एडवेंचर’ की जगह बन गया है। महिलाओं को पूजा करने का अधिकार है, परंतु क्या जिस तरह से महिला एक्टिविस्ट काम कर रही हैं उसे श्रद्धा कहा जाएगा या महज फेमिनिज्म का झंडा बुलंद करने वाला स्टंट ?
जो महिलाएं मंदिर के अंदर जाने का प्रयास कर रही थीं उन्हें वापस लौटा दिया गया और पुलिस प्रोटेक्शन के बाद भी वो मंदिर के अंदर नहीं घुस पाईं। इनमें से एक है हैदराबाद की पत्रकार कविता जक्काला और दूसरी है महिला अधिकारों की बात करने वाली रेहाना फातिमा।
दोनों महिलाओं ने पुलिस का जैकेट, हेलमेट और सुरक्षा के सभी गैजेट्स पहन रखे थे। पर एक बात जो पूछने वाली है वो ये कि क्या दोनों में से कोई भी श्रद्धालु था ? इसका जवाब है नहीं। न तो उन्होंने किसी भी रस्म को पूरा किया जो मंदिर में जाने के लिए आवश्यक है और न ही वो मंदिर में दर्शन करने के उद्देश से जा रही थीं। इनमें से जर्नलिस्ट ने तो माना कि वो किसी भी तरह का रिवाज पूरा करके नहीं आई थीं। उन्हें केवल कवरेज करना था।
अगर रेहाना फातिमा की बात करें तो उनका और विवादों का तो गहरा नाता रहा है। इसी साल मार्च में रेहाना अपनी तस्वीरों के लिए चर्चा में आई थीं जहां वो एक प्रोफेसर के किए गए कमेंट्स का विरोध करने के लिए अपने ब्रेस्ट को तरबूज से ढंक कर फोटो खिंचवा रही थीं। प्रोफेसर ने कमेंट किया था कि महिलाओं को अपने तरबूज जैसे ब्रेस्ट ढंकने चाहिए। रेहाना ने जो तस्वीरें सोशल मीडिया पर डाली थीं उन्हें फेसबुक की आेर से डिलीट कर दिया गया था।
२०१४ में रेहाना ने किस ऑफ लव कैंपेन में हिस्सा लिया था। उनके पार्टनर के साथ किए गए किस की क्लिप सोशल मीडिया पर शेयर भी की गई थी। इसके अलावा, रेहाना ने पुलिकली डांस भी किया था, जिसे हमेशा पुरुष करते हैं चीते की खाल जैसा पेंट अपने शरीर पर लगा कर। रेहाना मलयालम मनोरमा को दिए अपने इंटरव्यू में कह चुकी हैं कि वो पुरुषों द्वारा अधिगृहित हर जगह परफॉर्म करना चाहती हैं। यानी जहां भी महिलाओं का जाना मना है, वहां जाना चाहती हैं।
अब जरा उन दोनों महिलाओं के बारे में सोचिए, जिन्हें सबरीमला के अंदर जाना था। ये दोनों ही सबरीमला को एक्टिविज्म का ग्राउंड मानकर जा रही थीं। कम से कम देखने से तो यही लगता है। पुलिस का काम था प्रोटेक्शन देना और पुलिस ने प्रोटेक्शन दिया भी, लेकिन जहां तक धर्म और आस्था की बात है तो वो इसमें कहीं भी नहीं दिखी।
अभी तक भारत में हमेशा धर्म या किसी धार्मिक जगह को राजनीति या विरोध का हिस्सा बनाया गया है। क्या ये विरोध या फेमिनिज्म की अति नहीं है ? धार्मिक जगहों को क्यों हमेशा अखाडे की तरह देखा जाता है ? क्या साबित करना चाहते हैं ये लोग धर्म के नाम की राजनीति करके ? कुछ समय की प्रसिद्धी और चर्चा इन्हें क्या देगी ? अगर इनमें से कोई भी केवल धर्म के नाम पर या फिर श्रद्धा भाव से सबरीमला के अंदर जाना चाहता तो शायद बात अलग होती, परंतु अगर हमारे मन में श्रद्धा नहीं तो इसका मतलब ये भी नहीं कि दूसरों की भावनाओं को केवल इसलिए आहत करें क्योंकि ये फेमिनिज्म है। ये किसी भी तरह से फेमिनिज्म नहीं है।
सबरीमला में जानेवाली महिलाएं न तो पूरे रीति-रिवाज का पालन कर रही थीं और न ही उन्होंने इस बारे में ध्यान दिया कि ये जगह इसलिए नहीं कि यहां आकर केवल हाईलाइट हुआ जाए। हर तीर्थ के कुछ नियम होते हैं कम से कम उनका पालन कीजिए। आस्था अगर दिखाई जा रही है तो फिर पूरी तरह से दिखाएं, आखिर क्यों केवल सबरीमला की चढाई करना ही श्रद्धा मानी जाए ? ये यात्रा कई दिन की होती है और कई पडाव पूरे किए जाते हैं। जो इन महिलाओं ने नहीं किया।
स्त्रोत : चौक