होयसल वंशीय नरेश विष्णुवर्धन का १११७ ईसवी में बनवाया हुआ चेन्नाकेशव का प्रसिद्ध मंदिर बेलूर की ख्याति का कारण है ! इस मंदिर को, जो स्थापत्य एवं मूर्तिकला की दृष्टि से भारत के सर्वोत्तम मंदिरों में है, मुसलमानों ने कई बार लूटा किंतु हिन्दू नरेशों ने बार-बार इसका जीर्णोद्वार करवाया।
यह मंदिर लगभग ९०० वर्ष पुराना हैं। इस मंदिर का निर्माण होयसल वंश के राजा विष्णुवर्धन द्वारा ११०६ से १११७ के बीच करवाया गया था। ११०४ में युद्ध जीतने की खुशी में विष्णुवर्धन ने इस मंदिर का निर्माण कार्य शुरू करवाया जो की १११७ में पूरा हुआ। मन्दिर की लम्बाई १७८ फुट और चौडायी १५६ फुट हैं। इस मंदिर में कुल ४८ खम्बे हैं जिन पर विभिन्न प्रकार की आकृतियों का उत्कीर्णन किया गया है जो कि बहुत ही अद्भुत हैं। इसमें अनेक प्रकार की मूर्तियाँ जैसे हाथी, पौराणिक जीवजंतु, मालाएँ, स्त्रियाँ आदि उत्कीर्ण हैं !
यह मंदिर भगवान चेन्नाकेशव को समर्पित है जिन्हें भगवान विष्णु का अवतार माना जाता हैं। इस मंदिर की दिवारों में पुराणों के कर्इ पात्रों का चित्रांकन किया गया हैं। इस मंदिर की संरचना इतनी भव्य है की इसे भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा मान्यता दी गयी हैं।
प्रवेशद्वार
मंदिर का पूर्वी प्रवेशद्वार सर्वश्रेष्ठ है ! यहाँ पर रामायण तथा महाभारत के अनेक दृश्य अंकित हैं ! मंदिर में चालीस वातायन हैं। जिनमें से कुछ के पर्दे जालीदार हैं और कुछ में रेखागणित की आकृतियाँ बनी हैं। अनेक खिडकियों में पुराणों तथा विष्णुवर्धन की राजसभा के दृश्य हैं। मंदिर की संरचना दक्षिण भारत के अनेक मंदिरों की भाँति ताराकार है। इसके स्तंभों के शीर्षाधार नारी मूर्तियों के रूप में निर्मित हैं और अपनी सुंदर रचना, सूक्ष्म तक्षण और अलंकरण में भारत भर में बेजोड कहे जाते हैं ! ये नारीमूर्तियाँ मदनकई (मदनिका) नाम से प्रसिद्ध हैं !
गिनती में ये ३८ हैं, ३४ बाहर और शेष अंदर ! ये लगभग २ फुट ऊँची हैं और इन पर उत्कृष्ट प्रकार की श्वेत पालिश है, जिसके कारण ये मोम की बनी हुई जान पडती है ! मूर्तियाँ परिधान रहित हैं, केवल उनका सूक्ष्म अलंकरण ही उनका आच्छादान है। यह विन्यास रचना सौष्ठव तथा नारी के भौतिक तथा आंतरिक सौंदर्य की अभिव्यक्ति के लिए किया गया है !
कला की चरमावस्था
मंदिर के भीतर की शीर्षाधार मूर्तियों में देवी सरस्वती का उत्कृष्ट मूर्तिचित्र देखते ही बनता है ! देवी नृत्यमुद्रा में है जो विद्या की अधिष्ठात्री के लिए सर्वथा नई बात है ! इस मूर्ति की विशिष्ट कला की अभिव्यजंना इसकी गुरुत्वाकर्षण रेखा की अनोखी रचना में है ! यदि मूर्ति के सिर पर पानी डाला जाए तो वह नासिका से नीचे होकर वाम पार्श्व से होता हुआ खुली वाम हथेली में आकर गिरता है और वहाँ से दाहिने पाँव मे नृत्य मुद्रा में स्थित तलवे (जो गुरुत्वाकर्षण रेखा का आधार है) में होता हुआ बाएँ पाँव पर गिर जाता है ! वास्तव में होयसल वास्तु विशारदों ने इन कलाकृतियों के निर्माण में मूर्तिकारी की कला को चरमावस्था पर पहुँचा कर उन्हें संसार की सर्वश्रेष्ठ शिल्पकृतियों में उच्चस्थान का अधिकारी बना दिया है !
१४३३ ईसवी में ईरान के यात्री अब्दुल रज़ाक ने इस मंदिर के बारे में लिखा था कि; वह इसके शिल्प के वर्णन करते हुए डरता था कि, कहीं उसके प्रशंसात्मक कथन को लोग अतिशयोक्ति न समझ लें !