Menu Close

१४ सितंबर से शुरू हो रहा है पितृपक्ष . . .

आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या पंद्रह दिन पितृपक्ष के नाम से विख्यात है। इन पंद्रह दिनों में लोग अपने पूर्वजों को जल देते हैं तथा उनकी मृत्युतिथि पर श्राद्ध करते हैं। पिता-माता आदि पारिवारिक सदस्यों की मृत्यु के पश्चात्‌ उनकी तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक किए जानेवाले कर्म को श्राद्ध कहते हैं। पितर के निमित्त, उनकी आत्मा की तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक जो अर्पित किया जाये, वह श्राद्ध है। आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या के पंद्रह दिन पितृपक्ष कहलाता है। इन १५ दिनों में पितरों का श्राद्ध किया जाता है और उनका आशीर्वाद लिया जाता है। इस बार १४ सितंबर से २८ सितंबर तक पितृपक्ष रहेगा। १४ सितंबर को पूर्णिमा प्रातः १०.०३ तक है, इसके बाद प्रतिपदा श्राद्ध, महालयारंभ, पितृपक्षारंभ शुरू जाएगा।

दिवंगत माता-पिता के लिए भारतवर्ष में अनेक ऐसे पावन स्थल हैं, जहां उनका पिंडदान किया जाता है। परंतु, शास्त्र ने इस कार्य के लिए गया धाम को सर्वोत्तम माना है। ऐसी मान्यता है कि आश्विन मास में सूर्य के कन्या राशि पर अवस्थित होने पर यमराज पितरों को यमालय से मुक्त कर देते हैं। पितर पृथ्वी पर आकर यह इच्छा करते हैं कि उनके पुत्र गया क्षेत्र में आकर पिंडदान करें, ताकि हम पितरों को नारकीय जीवन से मुक्ति मिले।

यह भी पढें : पितृपक्ष में भगवान दत्तात्रेय का नाम जपने का महत्त्व

श्राद्ध करनेका उद्देश्य

जीव की लिंगदेह जीवात्मा एवं अविद्या से बनी होती है । अविद्या अर्थात आत्मा के सर्व ओर विद्यमान माया का आवरण । सर्व जीवों की लिंगदेह साधना नहीं करतीं । इस कारण श्राद्धादि विधि कर बाह्य ऊर्जा के बलपर उन्हें आगे जाने के लिए प्रोत्साहित करना पडता है ।

श्राद्धविधि के तीन मुख्य उद्देश्य हैं,

१. पूर्वजोंकी पितृलोकसे आगेके लोकोंमें जानेके लिए सहायता करना

२. अपने कुलके निम्न लोकोंमें अटकी अतृप्त लिंगदेहोंको सदगति प्रदान करना

३. अपने कुकर्मोंके कारण भूतयोनिको प्राप्त पूर्वजोंको उस योनिसे मुक्त करना

श्राद्ध करने से जीवों की लिंगदेह के सर्व ओर विद्यमान वासनात्मक कोष का आवरण घटता है । इससे उन्हें हलकापन प्राप्त होता है । श्राद्धविधि में मंत्रशक्ति की ऊर्जाद्वारा लिंगदेहों को गति दी जाती है ।

पितृऋण चुकाने का सहज एवं सरल मार्ग ‘श्राद्धकर्म’ के विषय अधिक जानकारी यहां पढें !

मृत्युके पश्चात अपनी इच्छाओं की तृप्ति के लिए जीव सतत प्रयत्नरत रहता है । इसके लिए वह कभी-कभी दूसरों की देह में भी बलपूर्वक प्रवेश करता है । मनुष्य की इच्छाएं तो अनंत जन्मों का अतिविशाल संग्रह हैं, इसलिए इन इच्छाओं के अनेक बंधन तैयार हो जाते हैं । इच्छाओं के कारण मृत्यु के पश्चात जीव अपने कर्म के अनुसार अनेक लोकों में जाता है । एक स्थान से दूसरे स्थानपर जाने के उपरांत भी, उस जीव में, अपने पूर्व स्थान से अत्यधिक लगाव रहता है ।  यह हुई जीव की ‘मृत्यु के पश्चात   अटकने’की प्रक्रिया ।  मृत्यु के पश्चात इच्छाओं में अटकने की प्रक्रिया को ही मृत्युके पश्चात सदगति में बाधा आना कहते हैं । इन्हीं कारणों से मृत व्यक्ति के परिजनोंपर, इच्छाओं में अटकने की इस प्रक्रिया से व्यक्ति को मुक्त करने का दायित्व आता है । अधिक पढें . . .

Related News

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *