अगर संस्कृत को लेकर हो-हल्ला होगा तो चाहे-अनचाहे जर्मन भाषा पर बात होगी ही। अजीब विडंबना है कि भारत के बाहर अगर कोई देश संस्कृत की वाजिब चिंता करता है तो वह जर्मनी है।
बर्लिन की सड़कों पर आपको जर्मन भाषा में गीता की प्रतियां और संस्कृत-जर्मन शब्दकोश आसानी से मिल जाएंगे।
जर्मन-संस्कृत के विद्वान नियमित रूप से अपने शोधपत्र प्रकाशित करते रहते हैं। ऊंघती संस्कृत भाषा को यूरोप के इस शक्तिकेंद्र में हरसंभव तवज्जो मिलती है।
इसके बावजूद भारत के मानव संसाधन मंत्रालय ने पहले जर्मन को त्रिभाषा योजना में शामिल करने का निर्णय लिया और अब उसकी जगह संस्कृत या किसी अन्य भारतीय भाषा को रखने का फ़ैसला। हालांकि २०११ तक यही व्यवस्था थी।
बहस की गड़बड़ी
भारत सरकार के इस फ़ैसले को बहुत ज़्यादा चर्चा मिल रही है। जर्मनी ने इस संबंध में भारत को नया प्रस्ताव दिया है ताकि जर्मन भाषा को हायर सेकेंडरी कक्षाओं में पढ़ाया जा सके।
जर्मनी में रहने वाले भारतीय के तौर पर मुझे यह सारी बहस ही थोड़ी गड़बड़ लगती है। यह एक कूटनीतिक आदान-प्रदान है।
आख़िरकार भारत को हर छात्र कोई भी और चाहे जितनी भी भाषाएं सीखने के लिए स्वतंत्र है, फिर इसे इतना बड़ा मुद्दा क्यों बनाया जा रहा है?
एक बात हमें सीधे तौर पर समझ लेनी चाहिए कि जर्मनी कई बड़े उद्योगों का केंद्र है, वहाँ रोज़गार के काफ़ी अवसर हैं और दुनिया के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय हैं जो बच्चों के सिर पर कभी न ख़त्म होने वाले छात्र ऋण का बोझ नहीं लादते।
जर्मनी का आकर्षण
जर्मनी में उम्रदराज लोगों की जनसंख्या बढ़ रही है और यह बीसवीं सदी की छाया से निकलकर लोकप्रिय हो रहा है जिसके कारण इसके प्रति लोगों का आकर्षण बढ़ रहा है।
जर्मनी में काम करने की एक ही शर्त है कि आपको जर्मन भाषा आनी चाहिए। आप इसे अपने स्कूल में अनिवार्य भाषा के रूप में सीखते हैं या नहीं, यह आपकी समस्या है।
जर्मन मीडिया में आने वाली ख़बरों के मद्देनज़र यह कहा जा सकता है कि भारतीयों को रोज़गार दिलाने के मामले में जर्मन संस्कृत से काफ़ी ज़्यादा मददगार साबित हो सकती है।
इस बात को परखने के लिए भारत में सक्रिय जर्मन कंपनियों की सूची पर नज़र डाल लेना काफ़ी होगा।
उपयोगिता की बहस
किसी भाषा की उपयोगिता का विषय हमेशा विवादित रहा है। लेकिन हानि-लाभ की सूची बनाई जाए तो रोज़गार की दृष्टि से जर्मन व्यावहारिक रूप से ज़्यादा उपयोगी होगी।
बहरहाल, एक और भाषा सीखना कभी भी घाटे का सौदा नहीं होता।
जर्मनी के हाइडलबर्ग विश्वविद्यालय में चलने वाला ‘ग्रीष्मकालीन संस्कृत संभाषण स्कूल’ (द समर स्कूल ऑफ़ स्पोकेन संस्कृत) इस बात को शायद अच्छी तरह समझता है।
अध्यात्म की भाषा
संस्कृत भाषा को प्रोत्साहन देने के पीछे भारत की सांस्कृतिक विरासत को सम्मानित करने का उद्देश्य है।
दुनिया की बड़ी आबादी के लिए यह अध्यात्म की भाषा भी है। आज भले ही संस्कृत उतनी सक्रिय भाषा न हो लेकिन विभिन्न भारतीय भाषाओं में यह आज भी जीवित है।
अपनी भाषा का सम्मान करना क्या होता है इसे जर्मनी अच्छी तरह समझता है।
जर्मनी के महान कवि गोएथे भारतीय कवि कालिदास के बड़े प्रशसंक थे।
सदियों पुराना रिश्ता
गोएथे ने कालिदास के बारे में कई सराहनीय बातें कही हैं जो किसी भी भाषा में कालिदास पर शोध करने वाले शोधार्थियों के आज भी काम आ सकती हैं।
जिस तरह की बहस खड़ी हुई है उसे देखते हुए कई ज्ञानपिपासुओं को फिर से इन दोनों महान रचनाकारों को पढ़ना पड़ेगा।
फौरी बहस में कही गयी अधपकी बातों से दोनों भाषाओं के बीच सदियों पुराना संबंध टूटेगा नहीं क्योंकि ये दोनों भाषाएं एक-दूसरे की प्रतिद्वंद्वी नहीं है। आख़िरकार ‘संस्कृत और जर्मन’ सुनने में हर हाल में ‘संस्कृत बनाम जर्मन’ से ज़्यादा भला लगता है।
स्त्रोत : बीबीसी हिन्दी