अयोध्या विवाद के निपटारे के बाद अब सुप्रीम कोर्ट में काशी-मथुरा को लेकर भी याचिकाओं का सिलसिला शुरू हो गया है। हिंदू पक्ष की याचिका के बाद अब मुस्लिम पक्ष भी सुप्रीम कोर्ट पहुँचा है। जमीयत-उलेमा-ए-हिंद ने वकील एजाज मकबूल के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट में अर्जी दाखिल करके हिंदू पुजारियों की याचिका का विरोध किया है।
#Breaking | Kashi-Mathura row: Jamiat moves SC urging the top court not to even admit the plea filed by the Hindu group.
‘Will create fear in Muslim minds who’re still recovering from the Ayodhya verdict’, says Jamiat.
Details by TIMES NOW’s Harish Nair. pic.twitter.com/ZzZZrTzWn6
— TIMES NOW (@TimesNow) June 14, 2020
जमीयत-उलेमा-ए-हिंद की ओर से दाखिल की गई याचिका में कहा गया है कि हिंदू पुजारियों की याचिका पर नोटिस न जारी किया जाए। उनका कहना है कि मामले में नोटिस जारी करने से मुस्लिम समुदाय के लोगों के मन में अपने इबादत स्थलों के संबंध में भय पैदा होगा।
याचिका में अयोध्या विवाद का संदर्भ देते हुए कहा गया है कि इसके परिणाम के बाद इस तरह की याचिका से मुस्लिमों के मन में भय पैदा होगा, जिससे देश का धर्मनिरपेक्ष ताना-बाना नष्ट होगा। साथ ही जमीयत-उलेमा-ए-हिंद ने कहा है कि उसे संबंधित मामले में पक्षकार बनाया जाए।
‘मथुरा और काशी को पुनः प्राप्त करने में बाधा बन रहा है धार्मिक स्थल एक्ट 1991’ : सुप्रीम कोर्ट पहुंचा पुरोहित महासंघ
हिंदू पुजारियों के संगठन ‘विश्व भद्र पुजारी पुरोहित महासंघ’ ने भारत के सर्वोच्च न्यायालय की धारा 4 धार्मिक स्थल (विशेष प्रोविजन) एक्ट, 1991 को चुनौती दी है। इसमें अयोध्या में राम जन्मभूमि को छोड़कर अन्य पवित्र स्थलों का धार्मिक चरित्र वैसा ही बनाए रखने का प्रावधान है। इस ‘धार्मिक स्थल एक्ट’ को रद्द कर अयोध्या काशी जैसे हिन्दू स्थल को पुनः प्राप्त करने की ओर क़दम बढ़ाया जाएगा।
उन्होंने यह भी दावा किया है कि यह कानून काशी और मथुरा जैसी विवादित धार्मिक संरचनाओं को फिर से प्राप्त करने के मार्ग में एक बाधा बना हुआ है।
अधिनियम की धारा 4 (1) में, “यह घोषित किया जाता है कि 15 अगस्त, 1947 को जो धार्मिक स्थल जिस संप्रदाय का था वो आज, और भविष्य में, भी उसी का रहेगा।” जैसे किसी भी मस्जिद को मंदिर में नहीं बदला जा सकता है और वहीं मंदिर को भी मस्जिद या किसी और धर्म में नहीं बदला जा सकता हैं।
हिंदू संगठन द्वारा दायर जनहित याचिका (पीआईएल) ने अधिनियम के विवादास्पद सेक्शन को अल्ट्रा वायर्स, अर्थात् कानूनी शक्ति या अधिकार से परे और असंवैधानिक घोषित करने की माँग की है। राममंदिर को छोड़ कर यह कदम कई विवादित धार्मिक स्थलों को दोबारा से प्राप्त करने के लिए कानूनी रास्ते को खोल सकता है।
याचिका में कहा गया हैं कि इस एक्ट की वजह से धार्मिक संपत्तियों पर दूसरे धर्म के लोगों के अतिक्रमण को लेकर हिंदुओं का अधिकार सीमित हैं। हिंदू संगठन ने तर्क दिया कि अधिनियम के उक्त प्रावधानों ने पीड़ित पक्षों को सिविल सूट के माध्यम या भारतीय संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत उच्च न्यायालय के क्षेत्राधिकार से अपनी शिकायतें रखने की बात कही गई है।
याचिका में कहा गया है कि विवादास्पद अधिनियम ने 15 अगस्त, 1947 से पहले हिंदू धार्मिक संरचनाओं के धार्मिक चरित्र की पुनः स्थापना को रोक दिया था, जो अन्य धर्मों के अनुयायियों द्वारा अतिक्रमण कर कब्जा किया गया था। हिंदू बॉडी ने तर्क दिया कि संसद ने असंवैधानिक तरीके से इस प्रावधान को लागू किया। जिसके चलते अदालती कार्यवाही के माध्यम से विवादों का समाधान नहीं हुआ।
इस याचिका में दावा किया गया है कि संसद ने लोगों को अदालत पहुँचने से रोकने का काम कर के क़ानून बनाने के अपने अधिकारों का उल्लंघन किया है। जबकि ये हमारे संविधान के मूलभूत सिद्धांतों में से एक है। हिंदू संगठन ने आगे कहा कि अनुच्छेद 32 (अधिकारों के प्रवर्तन के लिए उपाय) और अनुच्छेद 226 (निर्देशों को जारी करने के लिए उच्च न्यायालयों को अधिकार देता है) पीड़ित नागरिकों को अपील के लिए कोर्ट जाने का अधिकार है और संसद इस शक्ति को छीन नहीं सकता।
पूजा अधिनियम की धारा 4 की वजह से खत्म सभी कार्यवाही की बहाली का माँग करते हुए, हिंदू बॉडी ने कहा कि भक्तों को संविधान के अनुच्छेद 25 के तहत धर्म के अधिकार की पूर्ण गारंटी है। उन्होंने दोहराया कि “संसद हिंदू भक्तों को न्यायिक प्रक्रिया के माध्यम से उनके धार्मिक स्थलों को वापस पाने के लिए रोक नहीं सकती है और न ही कोई भी कानून बना सकती है जो भक्तों के निहित धार्मिक अधिकार को उनसे छीने या उनके धर्म को अपमानित करता हो और न ही पूर्वव्यापी प्रभाव से कोई कानून बना सकती है।”