कम्युनिस्ट और इस्लामिस्ट इन दिनों अपने उदारवादी होने का खूब स्वांग रच रहे हैं। साम्यवादियों और जिहादी कट्टरपंथियों का ये उदारवादी अवतार देवकीनंदन खत्री के उपन्यास चंद्रकांता संतति के ऐयारों जैसा है। उपन्यास में वर्णित ऐयारों की खासियत थी कि वे अपने दुश्मनों को भरमाने के लिए जब चाहे जैसा रूप रख लेते थे।
रूप बदलने में माहिर ये ऐयार धोखेबाजी की अनुपम मिसाल हैं। ये बहरूपिए ऐयारों की तरह आजकल दुनिया भर में इस्लामिस्ट्स और कम्युनिस्ट मानव अधिकारों, महिला अधिकारों, अल्पसंख्यक अधिकारों, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सहिष्णुता की वकालत करते नज़र आते हैं।
जबकि सैद्धांतिक और व्यावहारिक तौर पर इन दोनों विचारों से अधिक असहिष्णु और विरोधियों के प्रति निर्दय कोई और नहीं है। इसके लिए किसी और साक्ष्य की आवश्यकता नहीं, बल्कि इन दोनों के मूल ग्रंथों को पढ़ना ही काफी है। इन दोनों विचारधाराओं की असहिष्णुता के उदाहरणों से इतिहास के पन्ने भरे पड़े हैं। लेकिन हम कुछ ताज़ा घटनाओं को आपके सामने रखना चाहते है।
पिछले हफ्ते ही तुर्की की राजधानी इस्तांबुल में राष्ट्रपति इर्दोगन ने हागिया सोफिया संग्रहालय को मस्जिद में बदल दिया। हागिया सोफिया मूलतः एक चर्च है जिसकी भव्य इमारत सन 537 में रोमन सम्राट जस्टीनियन ने बनवाई थी।
1453 में तुर्की के सुल्तान मोहम्मद-II ने जब इस्तांबुल पर कब्ज़ा किया तो उन्होंने इस इमारत को एक मस्जिद में तब्दील कर दिया। वर्तमान उदारवादी तुर्की के निर्माता कमाल अतातुर्क ने इस भवन को एक संग्रहालय में बदल दिया।
उन्होंने हागिया सोफ़िया को सभी मजहबों और संस्कृतियों के लिए खोल दिया। तुर्की के मौजूदा राष्ट्रपति इर्दोगन कट्टरपंथी सोच रखते हैं। उनके इस फैसले पर किंग्स कॉलेज, लन्दन की प्रोफ़ेसर जूडिथ हेरिन ने लिखा है कि इर्दोगन ने ‘प्रतीकात्मक रूप से सहिष्णुता की विरासत का अंत’ कर दिया है।
इस्तांबुल में शताब्दियों से इसाई, मुसलमान और यहूदी एक साथ रहते आए हैं। हेनिन कहती हैं कि हागिया सोफिया यूनेस्को की एक हेरिटेज इमारत है। वह पूरे विश्व की धरोहर है। उसे सिर्फ मुसलमानों को सौपना एक तरह से ‘सांस्कृतिक सफाई’ जैसा है।
याद रखिए, चीन में माओ ने भी ‘सांस्कृतिक सफाई’ की थी। और आज भी सिंकियांग प्रान्त में उइगर मुसलमानों की ‘सफाई’ का अभियान चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में बाकायदा जारी है। उइगर मुसलमानों की दशा पर एक नया वीडियो पिछले दिनों ही खबरों में आया।
इसके अलावा, अनगिनत रिपोर्ट्स मौजूद हैं, जिनमे बताया गया है कि किस तरह उइगर मुसलमानों के अल्पसंख्यक अधिकारों का हनन हो रहा है। महिलाओं को गर्भ धारण न करने देना, रोज़ों के दौरान उपवास न रखने देना तथा विरोध करने वालों को लाखों की संख्या में सुधार गृह रुपी यातना केंद्रों में रखना वहाँ आम चलन है।
पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद में हिंदुओं के लिए मंदिर बनाने की कोशिश इसी महीने की गई। तो वहाँ कई लोगों ने उसकी दीवार और बुनियाद को तोड़ दिया। तोड़ने वालों ने कहा कि पाकिस्तान एक इस्लामी राष्ट्र है और वहाँ मंदिर बनाना उनके मजहब के खिलाफ है।
यही नहीं, पिछले हफ्ते बलुचिस्तान में मकान बनाते हुए बुद्ध की एक प्राचीन प्रतिमा निकली तो उसे लोगों ने मिलकर तोड़ डाला। अफ़ग़ानिस्तान के बामियान में बुद्ध प्रतिमाओं का क्या हश्र हुआ था, ये हम जानते ही हैं। मूल बात है कि इन घटनाओं पर बुद्धिजीवियों आम तौर पर शांत ही रहे हैं।
उसी तरह चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने हॉन्गकॉन्ग में जैसे वहाँ नागरिक अधिकारों की बात करने वालों को कुचल कर रातों-रात कानून बदल दिया गया वह सब ने देखा है। थियानानमेन चौक में टैंकों का इस्तेमाल करके लोकतंत्र की माँग करने वाले विद्यार्थियों को कैसे मौत के घाट उतारा गया था, वह कम्युनिस्टों की कथित ‘उदारता और सहिष्णुता’ का अन्यतम उदाहरण है ही।
दुनिया के कम्युनिस्टों के मौजूदा आदर्श चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग आजकल विस्तारवाद के घोड़े पर सवार हैं। दूसरे देशों की जमीन हड़प कर उसे चीन के कब्जे में करना, ताकत का बेजा इस्तेमाल करके देशों को धमकाना इन दिनों चीन की कम्युनिस्ट पार्टी का नया शगल है।
भारत, वियतनाम, इंडोनेशिया, जापान, ताइवान, हॉन्गकॉन्ग आदि एक के बाद एक शी जिनपिंग और कम्युनिस्ट पार्टी की इस विस्तारवादी नीति का शिकार हुए है। चीन की कम्युनिस्ट पार्टी को अंतरराष्ट्रीय कानूनों, परंपराओं, मर्यादाओं और देशों के बीच आपसी समझौतों की कोई चिंता नहीं है। चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की तरह इस्लामिस्ट भी दूसरों के हितों और अधिकारों को मानने के लिए तैयार नहीं है।
पर हैरानी की बात है कि अमेरिका में ‘ब्लैक लाइफ मैटर्स’ से लेकर भारत में सीएए के खिलाफ हुए आंदोलनों में कम्युनिस्ट और इस्लामिस्ट दोनों एक साथ नागरिक अधिकारों, मानव अधिकारों, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सहिष्णुता की बात करते हुए नजर आते हैं।
जो चीन अपने यहाँ फेसबुक, ट्विटर, यहाँ तक कि टिकटॉक तक की इजाजत नहीं देता, वह भारत को टिकटॉक पर रोक न लगाने पर नसीहत देता है। ‘ब्लैक लाइफ मैटर्स’ आंदोलन को अमेरिका और यूरोप में अति वामपंथियों और इस्लामिक कट्टरपंथियों ने हाईजैक कर रहा लिया।
ये ही दोनों विचार रखने वाले भारत में भी नागरिकता कानून विरोधी आंदोलन में ‘शाहीन बाग़’ को एक नई क्रांति का उद्घोष बता रहे रहे थे। बाद में इन्हीं तत्वों ने इसे अमरीकी राष्ट्रपति ट्रम्प की दिल्ली यात्रा के दौरान दंगों में तब्दील कर दिया।
ज़ुबान पर ‘ला इलाहा ईलइल्लाह’ और हाथ में लाल झंडा उठाने वालों का ये ताज़ा गठजोड़ बेमेल पर बेहद खतरनाक है। हिंसा और नागरिकों का रक्त इन विचारधाराओं के लिए मानो एक खेल जैसा ही है।
इन दोनों विचारों ने उदारवाद का मुलम्मा अपने ऊपर जानबूझकर चढ़ाया है। ये जानते हैं कि उदारवादी लोकतान्त्रिक समाज में अधिकारों की बात करना फैशनेबल है। इन मूलतः हिंसावादी विचारों को इससे प्रमाणिकता मिलती है।
इसलिए उदारवादी लोकतंत्र में प्रदर्शन के अधिकार का उपयोग करके ये तत्व इन देशों में उग्र हिंसात्मक कार्रवाई कर रहे हैं। असलियत तो ये है कि कट्टरपंथी इस्लाम और वामपंथियों, दोनों का ही लोकतान्त्रिक व्यवस्था और उसके मूल्यों से कोई लेना देना नहीं है। लोकतांत्रिक अधिकारों का उपयोग ये उन्हीं लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं को नष्ट करने के लिए कर रहे हैं।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और प्रदर्शन करने का अधिकार लोकतांत्रिक समाजों की एक बड़ी ताकत है। इन्हीं दो खंभों पर लोकतंत्र की पूरी व्यवस्था टिकी हुई है। लेकिन अनुदारवादी कम्युनिस्टों और कट्टर जिहादी इस्लाम मानने वालों ने उदारवादी लोकतंत्र की इस ताकत को अब कमजोरी में बदल दिया लगता है।
भारत जैसे उदारवादी देशों में संविधान में दिए गए अधिकारों का इस्तेमाल ये कट्टरवादी ताकतें संविधानों को उखाड़ फेंकने के लिए ही कर रही हैं। ये तत्त्व जानते हैं कि वोट के द्वारा कभी भी वे इन लोकतांत्रिक देशों में अपनी पैठ नहीं बना सकते। इसलिए हिंसा में विश्वास रखने वाले यह मुट्ठी भर लोग आम लोगों को कुछ विषयों पर बरगला कर इन समाजों के बीच हिंसा का राज स्थापित करना चाहते हैं।
ये अराजकतावादी कहने को बहुत थोड़े हैं। पर बुद्धिजीवियों, मीडिया और अकादमिक संस्थानों में इनकी गहरी पैठ है। इसका इस्तेमाल करके वह उदारवादी लोकतांत्रिक समाजों में असंतोष, क्रोध, निराशा, प्रतिहिंसा और सामाजिक वैमनस्य का भाव पैदा कर रहे हैं।
पूरी दुनिया में इन दिनों कोरोना का प्रकोप है। कोरोना से निकली भयंकर तबाही से दुनिया बहुत तकलीफ में है। लोगों के रोजगार खत्म हो गए हैं। सामाजिक ढाँचा अस्त-व्यस्त है। कई देशों में अर्थव्यवस्था पूरी तरह चौपट हो गई है। महामारी के कारण लाखों लोगों की मौत हो गई है। कुल मिलाकर समूची मानवता कोरोना से त्राहि-त्राहि कर रही है। अफरातफरी के इस माहौल में कट्टरपंथी इस्लाम और कम्युनिस्ट दोनों को एक मौका मिल गया है। उन्हें लगता है कि कोरोना से उत्पन्न परिस्थितियों का इस्तेमाल वे इन लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं को कमजोर करने में कर सकते हैं।
चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग और तुर्की के राष्ट्रपति एर्दोगन की हरकतों को इस रूप में देखा जा सकता है। अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोम्पियो ने कल अपने यूरोप दौरे में ये साफ़ साफ़ कहा कि कोरोना संकट का फायदा उठाकर चीन ने लद्दाख और दक्षिण चीन महासागर जोर आजमाइश शुरू की है।
लेकिन सबसे अचरज की बात है तुर्की और चीन के रवैए पर भारत के बुद्धिजीवियों की रहस्यमय खामोशी। जो लोग दिन रात अयोध्या में राम जन्मभूमि स्थल पर अस्पताल, धर्मशाला यहाँ तक की शौचालय बनाने तक की राय देते थे, वे हागिया सोफिया को मस्जिद बनाने के फैसले पर बिल्कुल चुप हैं।
इन कथित बुद्धिजीवियों ने दुनिया की इस भव्य इमारत को संग्रहालय के स्थान पर धार्मिक कट्टरता के रूप में परिवर्तित होने पर एक शब्द तक कहा नहीं है। भारत में नागरिक अधिकारों के लिए हल्ला मचाने वाले हॉन्गकॉन्ग में नागरिक अधिकारों के अतिक्रमण पर खामोशी धारण किए हुए हैं। ऐसा क्यों है?
असल में इस्लामिस्ट और कम्युनिस्ट, दोनों ही उदारवादी लोकतंत्र में दिए गए अधिकारों का उपयोग टैक्टिकल, यानी रणनीतिक रूप से करते हैं। उनकी आस्था न तो लोकतंत्र में है, न ही लोकतंत्र में दिए गए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार में।
अल्पसंख्यक अधिकार, महिला अधिकार और सहिष्णुता – यह सब इनके लिए आस्था के विषय नहीं है बल्कि टैक्टिकल हथियार है। इनका इस्तेमाल वे तभी तक करते हैं जब तक वे अल्पमत में है।
जिस समाज में ये अल्पमत में होते हैं, वहाँ ये एक और कार्ड खेलते हैं, वो हैं पीड़ित दिखने यानी ‘Victimhood’ का कार्ड! ये दोनों ही ताकतें इस खेल में माहिर हैं। दोनों के ताज़ा उदाहरण देना काफी होगा। भारत में इन दिनों वारवरा राव नाम के अति वामपंथी एक्टिविस्ट को लेकर ये कार्ड खेला जा रहा है।
जबकि, वे स्वयं कह चुके हैं कि उनका सशस्त्र क्रांति में ही भरोसा है। उनके विचार, कृत्य की चर्चा न करके अब उनकी ज़्यादा उम्र, उनके लेखन की बात उनके हितैषी कर रहे हैं। अगर कानून सबके लिए समान है, तो फिर इन ‘एक्टिविस्ट-नुमा’ लोगों के लिए अलग माँग क्यों? कम्युनिस्टों से पूछना चाहिए कि क्या वे अपनी सत्ता में ऐसी दया दिखाते हैं?
ऐसा ही किस्सा ब्रिटेन में शमीमा बेगम नाम की आई एस से जुड़ी जिहादी आतंकवादी महिला का है। बांग्लादेशी मूल की ब्रिटिश नागरिक शमीमा 15 साल की उम्र में सीरिया भाग गई और इस्लामिक स्टेट के लड़ाकू दस्ते में शामिल हो गई।
वहाँ वह आत्मघाती दस्तों के लिए बारूदी जैकेट बनातीं थी। उसे अपने किए पर कोई मलाल भी नहीं है। पर शमीमा अब ब्रिटेन वापस आना चाहती है। अब ब्रिटेन में उसके ‘अधिकारों’ की चर्चा हो रही है।
उसका मासूम चेहरा एक तरह का पोस्टर बन गया है। शमीमा को ऐसे पेश किया जा रहा है, मानो वह परिस्थितियों की मारी है और ‘बेचारी’ के साथ ज़्यादती हो रही हैं। लोकतान्त्रिक व्यवस्था की उदारता और नर्म कानूनों का इस्तेमाल करके अदालत से एक आदेश भी आ गया है कि वह ‘अपने देश’ में आकर मुकदमा लड़े।
लोकतंत्र की इस अन्तर्निहित उदारता का इस्तेमाल लोकतंत्र के विरोधी बखूबी कर रहे हैं। ताकत को कमजोरी में बदलने के इस नेरेटिव में मीडिया का एक वर्ग भी सक्रिय भूमिका निभाता है।
दिलचस्प है कि इस्लामिस्ट या कम्युनिस्ट जैसे ही कहीं का शासन सँभालते हैं, अपने विरोधियों का हर अधिकार, यहाँ तक कि जीने तक का हक़ भी छीन लेते हैं। उनका सबसे पहला काम ही होता है दूसरों के अधिकारों को पूरी तरह खत्म करना। दोनों विचार शांतिपूर्ण सह अस्तित्व के सिध्दांत में कोई यकीन नहीं रखते।
हमने कुछ ताजा घटनाओं का यहाँ उल्लेख किया है। लेकिन इतिहास कट्टर इस्लामिक जिहादियों की बर्बरता और कम्युनिस्ट शासकों द्वारा दूसरों की नृशंस हत्या के उदाहरणों से भरा पड़ा है।
रूस में बोल्शेविक क्रांति के बाद से स्टालिन, चीन में माओ और अब शी जिनपिंग – ये सब कम्युनिस्टों के अत्याचार और दूसरों को बलपूर्वक दबाने के कुछ नमूने हैं। उधर इस्लाम का इतिहास तो रक्तरंजित है ही। भारत ने ही पिछले 1000 साल में कट्टरपंथी इस्लाम के हाथ जितना सहा है उस पर कई ग्रन्थ लिखे जा सकते है।
सबसे ज्यादा खतरनाक वे लोग हैं जो उदारवाद का चोगा ओढ़कर समाज के अलग-अलग हिस्सों में अंदर तक घुसे बैठे हैं। ये ताकतें लोकतांत्रिक अधिकारों का उपयोग अंदर ही अंदर लोकतंत्र को कमजोर, और अंततोगत्वा नष्ट करने के लिए कर रहे हैं।
ये तथाकथित बुद्धिजीवी कभी पिंजरा तोड़ तो कभी असहिष्णुता के नारे देते हुए नज़र आते हैं। पर उनका असली उद्देश्य भारत जैसी उदार लोकतान्त्रिक व्यवस्था को कमजोर करना और उसे तोड़ना है। ऐसे ऐयारों के नक़ाब उतारने ज़रूरी हैं।
संदर्भ : OpIndia