१. अंग्रेजों द्वारा १८५७ के स्वातंत्र्यसंग्राम को दिए अस्मिताहीन नाम हटानेवाले सावरकर !
वर्ष १८५७ के भारतीयों के स्वातंत्र्यसंग्राम को अंग्रेजों द्वारा दिए गए ‘शिपायांचे बंड’ (सैनिकोंका विद्रोह), ‘शिपायांची भाऊगर्दी’,( सैनिकों की भीड ) आदि सारे नाम ठुकराकर स्वातंत्र्यवीर सावरकरजी ने ‘१८५७ चे स्वातंत्र्यसमर ’ यह नाम प्रचलित किया । उन्होंने इंग्लैंड में यह ग्रंथ २५ वर्ष की आयु में लिखा ।
२. ग्रंथ की लिखाई तथा वितरण हेतु सावरकरजीद्वारा दिखाया चातुर्य !
स्वातंत्र्यवीर सावरकरजी ने ‘१८५७ चे स्वातंत्र्यसमर’ ग्रंथ की लिखाई हेतु पूरा ब्रिटिश ग्रंथालय छान मारा तथा सारे संदर्भ ढूंढ निकाले । संदर्भ ढूंढने का उनका उद्देश्य जानने पर वहां के ग्रंथपाल ने उन्हें ग्रंथालय में आने से मना किया; किंतु तब तक सावरकरजी सारे दस्तावेजों के स्थान जान गए थे । उसी से मराठी में लिखा ग्रंथ पूरा हुआ । उन्होंने अल्पावधि में ही इस ग्रंथ का अंग्रेजी अनुवाद कर, हॉलैंड तथा जर्मनी में छपवाया । तत्पश्चात वे ग्रंथ ‘अंकल टॉम्स केबिन’ तथा ‘पिकविक पेपर्स’ ये तत्कालीन लोकप्रिय उपन्यासों के वेष्टन चढाकर भारत भेज दिए ।
३. प्रकाशनपूर्व बंदी लगाया गया पूरे विश्व का पहला ग्रंथ !
अंग्रजों ने ‘१८५७ चे स्वातंत्र्यसमर’ इस ग्रंथपर प्रकाशनपूर्व बंदी लगाई । इस प्रकार की बंदी लगाना यह पूरे विश्व का पहला उदाहरण था । प्रकाशन से पहले ही ग्रंथ में क्या लिखा है, यह बात प्रशासन को कैसे पता चली ? ऐसा स्वातंत्र्यवीर सावरकरजी ने अंग्रेज प्रशासन से पूछा । उसका उत्तर नहीं मिला; क्योंकि बंदी लगाने हेतु ग्रंथ का नाम ही पर्याप्त था ।
४. क्रांतिकारियों की स्फूर्तिगीता
‘१८५७ चे स्वातंत्र्यसमर’ यह ग्रंथ क्रांतिकारियों के लिए स्फूर्तिगीता सिद्ध हुआ । बाबाराव सावरकरजी ने भारतभर में इस ग्रंथ का वितरण किया । तदनंतर भगतसिंह तथा नेताजी सुभाषचंद्र बोस द्वारा इस ग्रंथ का संस्करण प्रसिद्ध किया गया ।
५. ‘१८५७ चे स्वातंत्र्यसमर’ इस ग्रंथ की मराठी का मूल हस्तलिखित ४० वर्ष अपनी जानसे अधिक संभालनेवाले डॉ. कुटिह्नो के कारण ही यह ग्रंथ मराठी में प्रसिद्ध हो सका ।
‘१८५७ चे स्वातंत्र्यसमर’ इस ग्रंथ का मराठी मूल हस्तलिखित डॉ.कुटिह्नो नामक गोमंतकिय के पास था । वे अभिनव भारत संगठन के सदस्य थे । अंग्रेजी ग्रंथ की बंदी की घटना देखकर अमरिका जाते समय हस्तलिखित अपने साथ लेकर गए । भारत स्वतंत्र होने के बाद उन्होंने ग्रंथ का मूल हस्तलिखित सावरकरजी के पास भेज दिया । इस प्रकार वह ग्रंथ वर्ष १९४९ में, अर्थात ग्रंथ लेखन के चालीस वर्ष बाद प्रकाशित हुआ । दुनिया की यह एकमेव घटना होगी !
– डॉ. सच्चिदानंद शेवडे (ग्रंथ निवडक मुक्तवेध)
स्त्रोत : दैनिक सनातन प्रभात