माघ कृष्ण पक्ष षष्ठी, कलियुग वर्ष ५११६
पारंपरिक रूप से यजीदी उत्तर-पश्चिमी इराक़, उत्तर-पश्चिमी सीरिया और दक्षिण-पूर्वी तुर्की में छोटे-छोटे समुदायों में रहते रहे हैं। इनकी अजीबोगरीब मान्यताएं हैं।
अनूठी धार्मिक मान्यताओं के कारण यजीदियों को अक्सर ग़लत ढंग से ‘शैतान के उपासक’ कह दिया जाता है। यजीदियों का यजीद या ईरानी शहर यज़्द से कोई लेना-देना नहीं है।
उनका संबंध फारसी भाषा के ‘इजीद’ से है, जिसके मायने फरिश्ता या देवता हैं। इजीदिस के मायने हैं ‘देवता के उपासक’ और यजीदी भी खुद को यही कहते हैं। यजीदियों की कई मान्यताएं ईसाइयों की तरह ही हैं।
वे बाइबल और क़ुरान दोनों को मानते हैं। पर उनकी ज्यादातर परंपराएं मौखिक हैं। उनकी बहुत सी मान्यताएं हिन्दु धर्म से मिलती-जुलती हैं।
यजीदी पीर पवित्र जल से बच्चों का धर्म संस्कार करते हैं। शादियों में पादरी रोटी को दो हिस्सों में तोड़कर पति-पत्नी को देते हैं। लाल जोड़ा पहने दुल्हनें ईसाइयों के चर्च में जाती हैं।
दिसंबर में यजीदी तीन दिन का उपवास करते हैं और पीर के साथ शराब पीकर उपवास तोड़ते हैं। यह 15-20 सितंबर के बीच मोसुल के उत्तर में स्थित लालेश में वो शेख आदी की दरगाह पर सालाना इकट्ठा होते हैं और नदी में नहाते हैं।
यजीदी मानते हैं कि आत्मा एक शरीर से दूसरे शरीर में दाख़िल होती है और अंत में मोक्ष पाती है। इसलिए वे पुनर्जन्म में यकीन रखते हैं।
यजीदी के लिए धर्म निकाला सबसे दुर्भाग्यपूर्ण माना जाता है क्योंकि ऐसा होने पर उसकी आत्मा को मोक्ष नहीं मिलता।
स्त्रोत : नई दुनिया