समापन सत्र
कैलाश से कन्याकुमारी तक के भारत का संकल्प पारित !
वाराणसी : रुद्राक्ष सभागार में आयोजित तीन दिवसीय संस्कृत संसद के समापन सत्र में सर्वसम्मति से यह प्रस्ताव पारित किया गया कि भविष्य में कैलाश से कन्याकुमारी तक का भारत हमारा होगा और उसे चीन से मुक्त कराएंगे। इसी क्रम में समान नागरिक संहिता जनसंख्या नियंत्रण, अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक भेद के समापन, पूजा-स्थलों को प्राचीन मूल स्थिति में करने, फिल्मों में मान्यता एवं विश्वास विरोधी प्रस्तुति रोकने सम्बंधी कानून बनाने, चीनी वस्तुओं का बहिष्कार एवं स्वदेशी अपनाने, गंगा को अविरल एवं निर्मल बनाए रखने, पर्यावरण की रक्षा के लिए वृक्षारोपण एवं सनातन संस्कृति के अनुसार जीवन जीने सम्बंधी प्रस्ताव सर्वसम्मति से स्वीकार हुए। ये प्रस्ताव गंगा महासभा के संरक्षक एवं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य इंद्रेश कुमार जी द्वारा प्रस्तुत किए गए।
समापन सत्र के अध्यक्ष एवं जगद्गुरु रामानन्दाचार्य रामराजेश्वाराचार्य ने कहा कि काशी सनातन संस्कृति का वेंâद्र है और हमारी संस्कृति की रक्षक है। यहां आयोजित संस्कृति संसद की चर्चा महत्वपूर्ण रही और जबतक ‘ओम’ का प्रवाह जारी है तबतक हिन्दू संस्कृति का प्रवाह जारी रहेगा। उन्होंने कहा कि हमें निजी जीवन में हिन्दू मान्यता एवं संस्कृति का पालन करना चाहिए। यही इस आयोजन का संदेश है।
इस सत्र में मंच पर सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय कुलपति प्रो. हरेराम त्रिपाठी, गंगा महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री प्रेमस्वरुप पाठक, श्रीकाशी विद्वत परिषद के महामंत्री प्रो. रामनारायण द्विवेदी जी, राज्यसभा सांसद श्रीमती रुपा गाङ्गुली, कार्यक्रम की उपाध्यक्षा रेश्मा सिंह की उपस्थिति रही। सत्र का संचालन गंगा महासभा और अखिल भारतीय संत समिति के राष्ट्रीय महामंत्री स्वामी जीतेन्द्रानन्द सरस्वती जी ने किया।
हिन्दू संस्कृति पर प्रहार करने वाली फिल्मों का करें बहिष्कार – गजेंद्र चौहान
हिन्दू धर्म एवं संस्कृति को हानि पहुंचाने के लिए बनाई जा रही फिल्में एक योजना का भाग है। इन फिल्मों का बहिष्कार करके हमें अपना विरोध जताना होगा तथा फिल्मों पर आर्थिक चोट पहुंचानी होगी। उक्त विचार फिल्म अभिनेता गजेन्द्र चौहान ने रुद्राक्ष सभागार में आयोजित संस्कृति संसद के तीसरे दिन के ‘कला-संस्कृति के आवरण में परोसी जा रही विकृति’ विषयक सत्र में व्यक्त किया।
उन्होंने कहा कि जैसे फिल्मों में ब्राह्मण को नौकर तथा राजपूतों को हमेशा शराबी के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। यह भारतीय संस्कृति को विकृत करने का प्रयास है। फिल्म जगत में जो हिन्दू धर्म पर प्रहार कर रहे हैं, उन्हें रोकने के लिए हमें उनकी ऐसी फिल्मों को नकारना है और ऐसी फिल्मों को देखना नहीं है। जो पैसे हम हिन्दू संस्कृति विरोधी फिल्मों को देखने में बर्बाद कर रहे हैं, उस पैसों को हम गरीबों में दान कर दे तो वह हमारे लिए ज्यादा बेहतर रहेगा।
प्रसिद्ध ठुमरी गायिका मालिनी अवस्थी ने लोकगीतों की विकृति पर चर्चा करते हुए कहा कि फिल्म जगत जिस अश्लीलता का उपयोग कर रहा है, वह केवल पैसा कमाने का माध्यम है। वह लोकगीतों को केवल एक व्यापार के तौर पर प्रस्तुत कर रहे है। पुराने फिल्मी गीतों में ऐसी विकृति नहीं थी। आज की फिल्मों में आइटम सॉन्ग यानी उत्पाद के रूप में गानों को प्रस्तुत किया जा रहा है, जोकि हमारी संस्कृति के लिए ठीक नहीं है। जिस प्रकार अन्य देश अपने राष्ट्र की तुलना किसी और से नहीं करते हैं, उसी प्रकार हमें भी अपने देश की तुलना किसी से भी नहीं करनी चाहिए। हमारी संस्कृति खुद में ही संपूर्ण है। उन्होंने कहा कि अभिव्यक्ति का मतलब विकृति बिल्कुल भी नहीं है। उन्होंने भोजपुरी फिल्मी गानों में परोसी जा रही अश्लीलता की निंदा करते हुए कहा कि उसका युवा पीढ़ी पर बुरा प्रभाव पड़ रह है, इसे रोका जाना चाहिए।
सांसद रूपा गांगुली ने कहा कि हिंदू धर्म से हमने भाषा सीखी है और उसका सदुपयोग भी। हमारी भाषा और धर्म-संस्कृति पर प्रहार करने वाली फिल्मों का हमें खुलकर विरोध करना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि जिस प्रकार नवदुर्गा का रूप एक परंतु स्वरूप अनेक होते हैं, उसी प्रकार हमारी संस्कृति भी एक है परंतु उसके कई स्वरूप है।
फिल्म निर्देशक दिलीप सूद ने कहा कि यदि हमें अश्लील एवं हिन्दू संस्कृति विरोधी फिल्मों का विरोध करना है तो सबसे पहले हमें युवाओं को शिक्षित करना होगा तथा उन्हें संस्कृति व धर्म के बारे में जानकारी देनी होगी। यह इसलिए कि हमारे देश की ज्यादातर आबादी युवाओं की है। यदि युवा ही अपनी संस्कृति से अनजान रहेंगे तो हमारे धर्म एवं संस्कृति पर प्रहार होता रहेगा। उन्होंने कहा कि जिस प्रकार अन्य देश अपनी फिल्मों में अपनी संस्कृति को दिखाना नहीं भूलते हैं उसी प्रकार हमें भी अपने देश की फिल्मों में अपनी संस्कृति को उजागर करना चाहिए। सत्र का संचालन डीडी न्यूज़ के संपादक अशोक श्रीवास्तव ने किया।
मंदिरों द्वारा कई सामाजिक एवं आर्थिक काम होते हैं – महाराज आदित्य वर्मा
केरल के पद्मनाभ मंदिर के अध्यक्ष महाराज आदित्य वर्मा ने कहा कि मंदिरों द्वारा कई धर्मकार्य करने वाले ट्रस्टों में दान किए जाते हैं। मंदिरों द्वारा कई स्कूल, कॉलेज और हॉस्पिटल आदि का निर्माण एवं संचालन कराए जाते हैं। इससे समाज में मंदिरों की उपयोगिता बढ़ जाती है। मंदिरों से समाज के कमजोर वर्ग को आर्थिक एवं सामाजिक रूप से सुदृढ़ बढ़ने का अवसर प्राप्त होता है। उक्त विचार उन्होंने रुद्राक्ष सभागार में आयोजित संस्कृति संसद के तीसरे दिन के दूसरे सत्र ‘मंदिर सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक गतिविधि के केंद्र कैसे बनें?’ विषयक सत्र में व्यक्त किए।
आगे उन्होंने कहा कि कोरोना काल से पहले उनके मंदिर में लगभग दो से तीन लाख प्रतिदिन चढ़ावा चढ़ता था परंतु कोरोना काल के बाद यह घटकर एक लाख प्रतिदिन रह गया है जिससे इन धर्मार्थ कार्यों को करने में कठिनाई आ रही है, फिर भी अपनी संस्कृति की रक्षा हेतु वह निरंतर कार्यरत रहते हैं। आगे उन्होंने पद्मनाभन मंदिर के अदभुत इतिहास का भी वर्णन किया।
इसी क्रम में दूसरे वक्ता के तौर पर लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, नई दिल्ली के पूर्व कुलपति प्रो. आर.के. पांडे ने कहा कि भारत की संस्कृति जहां तक फैली हुई है भारत वहां तक है। उन्होंने बताया कि हमारे पूर्वजों द्वारा स्थापित मार्ग जिससे मंदिरों के अनेकों सामाजिक एवं आर्थिक गतिविधियां जुड़ी हुई है। मंदिर में चढ़ाए जाने वाले दान से अनेकों प्रकार के धर्मार्थ कार्य किए जाते हैं। कामगारों, शिल्पकारों, फल विक्रेता एवं पूजन सामग्री के विक्रेताओं को जीवन यापन करने में मंदिर सहायता प्रदान करते हैं। उन्होंने समाज में मंदिरों की भूमिका को बहुत ही अहम माना है उनका कहना है कि राष्ट्र के विकास में मंदिर द्वारा किए जाने वाले धर्मार्थ कार्य हमारे संस्कृति को मजबूत करने का कार्य करते हैं।
इसी क्रम में तीसरे वक्ता के तौर पर महाराज रविंद्रपुरी ने बताया कि भारत की आत्मा मंदिरों में बसती है। समाज में मंदिरों के विभिन्न स्वरूपों को पेश करते हुए उन्होंने कहा कि मंदिर अनेकों धर्मार्थ कार्य में अपना योगदान निरंतर देते आ रहे हैं। भारतीय अर्थव्यवस्था में करीब साढ़े चार लाख करोड़ का योगदान मंदिरों द्वारा दिया जाता है। मंदिरों के आसपास प्रांगण में लगने वाले दुकानों जिसमें फल विक्रेता, फूल विव्रेâता, अगरबत्ती एवं अन्य पूजन सामग्री के विव्रेâता को आर्थिक रूप से मदद मिलती है, जिससे समाज में उन्हें जीवन व्यतीत करने में मदद मिलती है। सत्र का संचालन प्रमोद यादव के किया।
हिन्दू मंदिरों का प्रबंधन स्वतंत्र हो – आलोक कुमार
हमारे मंदिरों में पहले गुरुकुल चलते थे। गुरुकुल के साथ गौशाला, शादी तथा मुत्युभोज जैसे कार्यक्रम भी मंदिरों मे ही किए जाते थे। हिंदुओं में सांस्कृतिक, साहित्यिक कार्यक्रम एक जीवंत कार्य था, जिसे मंदिरों में ही किया जाता था। यह भी बताया कि पहले की सरकार मंदिरों से केवल तीन प्रतिशत का हिस्सा ही लिया जाता था परंतु तत्काल में यह १८ प्रतिशत तक बढ़ा दिया गया है। उक्त विचार विश्व हिंदू परिषद के अंतरराष्ट्रीय कार्याध्यक्ष आलोक कुमार ने रुद्राक्ष सभागार में आयोजित संस्कृति संसद के तीसरे सत्र ‘हिन्दू मन्दिरों का प्रबन्धन हिन्दुओं के द्वारा एवं भारत के प्रत्येक सम्प्रदाय को शिक्षण एवं सांस्कृतिक संस्थानों के संचालन की स्वतन्त्रता’ में व्यक्त किया।
हिंदू मंदिरों के प्रबंधन व स्वतंत्र संचालन की मांग करते हुए कहा कि २०२४ से पहले सभी मंदिरों को वापस कर दिया जाए, यह हमारा लक्ष्य है। स्वतंत्र शिक्षा के बारे में बात करते हुए कहा कि जिस प्रकार अन्य धर्मों में उनकी शिक्षा को महत्व दिया जाता है, उसी प्रकार हमें भी स्वतंत्र रूप से गुरुकुल चलाने की अनुमति मिलनी चाहिए ताकि हमारे देश के युवा व अन्य लोगों को संस्कृत तथा धर्म का ज्ञान हो। ईसाई पद्धति से जन्मदिन आदि को भी रोकने का प्रयास होना चाहिए।
प्रोफेसर रामचंद्र पांडेय ने कहा कि नई पीढ़ी मंदिरों से जुड़, यह सुखद है। युवाओं को उन्हें यह बताना चाहिए कि सदाचार और चरित्र की शिक्षा सबसे आवश्यक है। हिन्दू संस्कृति में पहले १६ संस्कार जैसे मुंडन व जनेऊ आदि कई संस्कार मंदिरों में ही होते थे। ऐसे कार्यों से देवालय की महत्ता व प्रतिष्ठा होती थी जो अब घटती जा रही है। इस पतन को रोककर हमें पुनः प्रतिस्ष्ठापित करना है।
काशी विद्वत परिषद के महामंत्री राम नारायण द्विवेदी ने कहा कि किसी भी मंदिर में हिंदू जब दान देता है तो वह यह सोच कर देता है कि वह किसी अच्छे कार्य में, किसी की मदद करने के लिए उपयोग होगा परंतु बड़े-बड़े मंदिरों के धन को अन्य कार्यों में उपयोग किया जाता है। दोनों का सदुपयोग किसी भी प्रकार से नहीं हो रहा है। इस विषय को उन्होंने चिंतनीय बताते हुए इस व्यवस्था को बदलने का आश्वासन दिया। काशी के मंदिरों पर चर्चा करते हुए उन्होंने बताया कि काशी में ऐसे ७० मंदिर हैं जो सड़क के किनारे हैं उन पर जल चढ़ाने वाला कोई नहीं है उनकी पूजा करने वाला कोई नहीं है अगर हम सब मिलकर उन ७० मंदिरों को प्रतिष्ठापित और प्रतिदिन उनकी पूजा करें तो उन मंदिरों का भी कायाकल्प हो सकता है।
इसके अतिरिक्त मंच पर उपस्थित स्वामी रवींद्रपुरी महाराज और स्वामी अविचलदास ने भी इस विषय पर अपना मत रखा। सत्र का संचालन विश्व हिंदू परिषद के अशोक तिवारी ने किया।
भारत की प्रतिष्ठा संस्कृत एवं संस्कृति से है – प्रताप चंद्र षडंगी
भारत की प्रतिष्ठा संस्कृत एवं संस्कृति से है। युवा दो प्रकार के होते हैं, एक पक्ष जहां समायोजन, पुनर्जागरण, लोगों को जोड़ने का कार्य करता है तो दूसरा पक्ष विभाजन की सोच रखकर राष्ट्र को दूषित कर रहा है। उक्त विचार सांसद प्रताप चंद्र षड़ंगी ने संस्कृति संसद के तीसरे दिन के चौथे सत्र ‘सशक्त राष्ट्र के निर्माण में युवाओं की भूमिका’ में व्यक्त किया।
उन्होंने भारतीय शिक्षा पद्धति में वर्ष २०२० में हुए बदलाव को राष्ट्र के लिए उपयोगी माना है। उन्होंने कहा कि भारत में लगभग १/३ युवा स्कूल की शिक्षा, वही लगभग दो-तिहाई युवा अपनी स्नातक की शिक्षा नहीं पूरी कर पाते हैं, जो राष्ट्रहित में चिंता का विषय है।
उन्होंने उपनिषद में लिखी एक कहानी का वर्णन करते हुए कहा कि सिंह जो मानव के साथ अपना जीवन व्यतीत कर रहा था, वह अपनी गर्जना भूल चुका था परंतु उसे याद दिलाने पर उसने अपनी गर्जना से हिमालय को हिला दिया। इसी प्रकार हमारे राष्ट्र के युवाओं को भी उनकी संस्कृति का सम्मान करने के लिए हमें प्रेरित करना होगा। उन्होने देश के युवाओं की तुलना वीर सावरकर, श्यामा प्रसाद मुखर्जी एवं स्वामी विवेकानंद से की।
सरदार इकबाल सिंह ने कहा कि राष्ट्र के पुनर्निर्माण के लिए हर भारतीय को गुरु गोविंद सिंह बनना होगा। उन्होंने बताया कि पंजाब में वर्ष १९४९ में लगभग ९० प्रतिशत आबादी साक्षर थी जिसे कुछ पैसे के बदले लोगों को किताबें जलाने पर मजबूर किया गया। हमारी संस्कृति एवं युवाओं की शिक्षा पद्धति पर गहरी चोट की गई। उन्होंने बताया कि नई शिक्षा नीति में युवाओं को शिक्षा उनकी मातृभाषा में दी जाएगी जिससे वह अधिक सहायता से चीजों को समझ सकेंगे। बाहरी देशों का उदाहरण देते हुए उन्होंने बताया कि वहां विद्यालय में पढ़ाई के साथ-साथ कार्य करने की योजना भी सिखाई जाती है, जिससे युवा आत्मनिर्भरता के साथ-साथ प्रयोग विज्ञान भी अर्जित करता है। उन्होंने कहा कि शिक्षा नीति में समय-समय पर बदलाव होने अति आवश्यक है। राष्ट्रीय निर्माण में युवाओं के साथ-साथ सरकार की योजनाओं को भी महत्वपूर्ण माना है। उन्होंने कहा कि सरकार की नीतियों में बदलाव से ही युवा और सशक्त बनेगा जिससे एक सुदृढ़ राष्ट्र का निर्माण हो सकेगा। सत्र का संचालन भक्ति किरण शास्त्री ने किया।
वेदों के मंत्रों के अर्थ को कम्युनिस्टों ने विकृत किया – आचार्य विनय झा
भारतीय वेदों के बारे में कई पुस्तवेंâ लिखी गई परंतु किसी भी पुस्तक में वेद की मूल अथों में चर्चा नहीं की गई। विदेशियों द्वारा अपने हिसाब से इतिहास लिखा गया। भारत अपनेआप में सम्पूर्ण राष्ट्र के समान है। उक्त बातें आचार्य विनय झा रुद्राक्ष सभागार में आयोजित संस्कृति संसद के पांचवें सत्र ‘छद्म धर्मनिरपेक्षता के नाम पर भारतीय इतिहास के साथ कम्युनिस्टों के षड्यंत्र’ में व्यक्त किए।
उन्होंने कहा कि इतिहास से छेड़छाड़ किया गया है। संसार की सभी तकनीवेंâ पहले भारत में ही विकसित हुर्इं जिसे यूरोपीय लोग यहां खरीदने आते थे। हमारी गुलामी का सबसे बड़ा कारण हमारे शासक ही थे, जो खुद को इस देश का ही नहीं मानते थे। उन्होंने कहा कि किसी भी देश पर कब्जा करने के लिए वहां के लोगों की बुद्धि पर कब्जा करना ही वामपंथी संगठनों का मुख्य कार्य है। वेदों के मंत्र के अर्थ कुछ और हैं, लेकिन हमें बताया कुछ और ही जाता है। आज के दौर में सोशल मीडिया भी वामपंथी विचारधाराओं के प्रसार में अहम भूमिका निभा रही है।
इसी सत्र में प्रो. सी.पी. सिंह और कोनरॉड एल्स्ट ने भी अपने विचार व्यक्त किए। सत्र का संचालन मधुसूदन उपाध्याय ने किया।
शिक्षण संस्थान दें मूल्य आधारित शिक्षा – डॉ. मनु वोरा
बच्चों के प्रश्नों को कभी दबाना नहीं चाहिए, उनको प्रश्न करने की पूरी छूट देनी चाहिए। भारत में सभी शिक्षण संस्थानों को सभी छात्रों को मूल्य आधारित शिक्षा प्रदान करनी चाहिए। उक्त विचार रुद्राक्ष सभागार में आयोजित संस्कृति संसद के तीसरे दिन के छठे सत्र में ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति एवं परंपरागत भारतीय शिक्षा’ विषय पर शिक्षाविद डॉ. मनु वोरा ने व्यक्त किया।
आगे उन्होंने कहा कि राष्ट्र निर्माण में छात्रों व संकायों की सामुदायिक सेवा से मिलेगी मदद। प्रभावी राष्ट्रीय शिक्षा नीति २०२० के कार्यान्वयन के लिए गहन मंथन की आवश्यकता होगी, केवल अनुपालन पर नहीं, उत्कृष्टता पर ध्यान दें। पहले शिक्षार्थियों और छात्रों को कक्षाओं में संलग्न करना महत्वपूर्ण है, संकाय उत्कृष्टता प्राप्त करने से प्रभावी ज्ञान हस्तांतरण होता है। मनु वोरा ने कहा कि श्रेष्ठ शिक्षा के लिए सतत मूल्यांकन आवश्यक है।
इसी क्रम में दूसरे वक्ता के तौर पर जे. एस राजपूत ने वेब माध्यम से कहा कि जब तक इस देश में सरकारी और निजी स्कूल ठीक नहीं होंगे तब तक कोई भी छात्र का कौशल विकास नहीं हो सकता और ना ही देश विश्वगुरु नहीं बन सकता। आगे उन्होंने कहा कि वर्तमान समय मे शिक्षा में सुधार की बहुत आवश्यकता है। हमारे देश मे बहुत अच्छे अच्छे शैक्षणिक संस्थान होते हुए भी शिक्षा के स्तर में कोई बेहतर बदलाव नहीं दिखता, इस पर हमें चिंतन की आवश्यकता है।
उन्होंने नई शिक्षा नीति की बात करते हुए कहा कि इस शिक्षा नीति में अध्यापकों के कौशल पर भी ध्यान दिया गया है। शिक्षकों को ये बात समझना होगा और उनकी यह जिम्मेदारी बच्चों में प्रश्न पूछने की जागरूकता को बढ़ाना है। उन्हें कभी प्रश्न करने से न रोकना चाहिए, बल्कि प्रोत्साहित करना चाहिए। आगे उन्होंने कहा कि हर एक बालक के अंदर एक व्यक्ति होता है, उसे व्यक्तित्व में परिवर्तित करना शिक्षक की जिम्मेदारी है। चरित्र का निर्माण करके ही हम राष्ट्र का निर्माण कर सकते है। हमें अपनी जड़ो के साथ जुड़े रहते हुए बच्चो को शिक्षा देनी है और उसके साथ साथ जो नई तकनीकी है उससे भी बच्चो को जोड़कर रखना है। सत्र का संचालन शालिनी वर्मा ने किया।
भारतीय संस्कृति के पुनर्जागरण हेतु तीर्थों का नामकरण आवश्यक – प्रो. ओमप्रकाश सिंह
भारत के पुनर्जागरण के लिए अतीत की गौरवशाली परम्परा का बोध आवश्यक है। इसके लिए यह आवश्यक है कि वर्तमान समय में जो भी महत्वपूर्ण नगर एवं राजधानियां हैं, जिनका नामकरण विदेशी आक्रांताओं के समय विकृत किया गया था, उसके स्थान पर अतीत के समृद्धशाली नाम की पुनः स्थापना की जाए। यह देश की राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के लिए आवश्यक है जिसका प्राचीन नाम इंद्रप्रस्थ है। यह विचार रुद्राक्ष सभागार में आयोजित संस्कृति संसद के तीसरे दिन के ‘भारत का सांस्कृतिक पुनर्जागरण’ विषयक सत्र में वक्ताओं ने व्यक्त किए।
राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के इतिहास पर चर्चा करते हुए वक्ता नीरा मिश्रा ने कहा कि हमारी राजधानी का अस्तित्व अतीत से जुड़ा है। उन्होंने कहा कि १८८७ एवं १९१३ के दौरान अंग्रेजी शासन द्वारा प्रेषित रिपोर्ट के अनुसार वर्तमान में दिल्ली का वास्तविक नाम इंद्रप्रस्थ था। उन्होंने कहा कि इन्द्रप्रस्थ का इतिहास लगभग ३००० ईसा पूर्व का है। इसके साक्ष्य लगभग ६०० वर्षों तक चले मुगल शासन के दस्तावेजों में भी मौजूद हैं एवं १९२६ के एक रिपोर्ट के अनुसार इंद्रप्रस्थ के भीतर पांडव किला का अस्तित्व भी मिलता है। उसे वर्तमान में पुराना किला कहा जा रहा है। उन्होंने कहा कि हमें अपने इतिहास पर गर्व करना चाहिए तथा उसके प्रचार-प्रसार का दायित्व युवाओं का है। भौगोलिक आंकड़ों का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि इंद्रप्रस्थ के साथ हमारे इतिहास की जड़ें भी विलुप्त होती जा रही हैं। उन्होंने कहा कि इंद्रप्रस्थ के अंदर श्रीकृष्ण की एक भव्य मूर्ति स्थापित की जाए और सेंट्रल विस्टा का नाम बदलकर इंद्रप्रस्थ राजपथ किया जाना चाहिए।।
इसी क्रम में प्रो. ओमप्रकाश सिंह ने कहा कि संस्कृति की जड़ें अतीत में बसती हैं और अपनी जड़ों से जुड़ने की इच्छा सभी में होती है। उन्होंने कहा कि भारतीय संस्कृति के पुनर्जागरण हेतु गुलामी के दिनों में विकृत किए गए स्थानों एवं तीर्थों का प्राचीन नामकरण आवश्यक है। उन्होंने वर्तमान दिल्ली पर चर्चा करते हुए कहा कि इसका पुराना नाम इंद्रप्रस्थ है। इंद्रप्रस्थ का इतिहास हिरण्यकशिपु की मृत्यु के पश्चात शुरू हुआ। हिरण्यकशिपु की मृत्यु के बाद भगवान विष्णु ने इंद्र से यमुना के किनारे खाण्डव वन (वर्तमान दिल्ली) में रत्नों का यज्ञ करने के लिए कहा। संस्कृत में प्रस्थ का अर्थ ‘रत्न का ढेर’ होता है। इंद्र ने यमुना के किनारे खाण्डव वन में रत्नों का यज्ञ किया तभी से इस स्थान का नाम इंद्रप्रस्थ हुआ। पुराणों के अनुसार इंद्रप्र्रस्थ एक तीर्थ है, इसका विस्तार यमुना के किनारे पुरब से पश्चिम एक योजन तथा उत्तर से दक्षिण चार योजन है। इस इन्द्रप्रस्थ में विष्णु एवं लक्ष्मी, तथा शिव व पार्वती निवास करते हैं साथ ही द्वारिका, काशी, प्रयाग, अयोध्या आदि तीर्थों की भी स्थापना इंद्र्रप्रस्थ में की गई थी। इस तरह इंद्रप्रस्थ एक तीर्थ है और दिल्ली का नामकरण इंद्रप्रस्थ होने से इसे अतीत का गौरव प्राप्त हो सकेगा। भारतीय संस्कृति पर हुए आक्रमणों की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि इंद्रप्रस्थ में मजारें बनवाई गई, जहां यज्ञशाला हुआ करते थे। पुनर्जागरण के लिए इंद्रप्रस्थ की पुनस्र्थापना आवश्यक है।
इसी क्रम में प्रो. विनय कुमार पांडेय ने कहा कि मूल्यों को पुनस्र्थापित करने की जरूरत है। उन्होंने कहा कि भौतिक सत्यापन करते हुए दिल्ली का नाम इंद्रप्रस्थ हो जाना चाहिए। भारतीय वास्तुशास्त्र उपयोगिता पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने कहा कि इंद्रप्रस्थ इंद्र द्वारा बसाई गई है, जिसमें वास्तुशास्त्र का उपयोग अवश्य ही होगा। प्रो. पांडेय ने कहा कि कोई भी संस्कृति जिसका लक्ष्य निर्धारित ना हो, ज्यादा दिनों तक जीवित नहीं रह सकती है। हमारी संस्कृति का लक्ष्य धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष है। दूसरी संस्कृतियों का लक्ष्य सिर्फ अर्थ और काम है। पुनर्जागरण का मुख्य केंद्र युवाओं के अंदर लक्ष्य निर्धारित करना होना चाहिए। सबके अंदर आत्मगौरव की अनुभूति होनी चाहिए। आत्मा को मृत होने से रोकना चाहिए तथा आत्म अनुशासन का पालन करना चाहिए। सत्र का संचालन शालिनी वर्मा ने किया।
वेदों की उपासना वाला देश ही आर्यों का आदिदेश है – कोनरॉड एल्स्ट
दार्शनिक कोनराड एल्स्ट ने कहा कि वर्तमान समय में वैदिक इतिहास एवं आर्यों के मूल स्थान पर तरह-तरह की चर्चाएं होती हैं परंतु जिस देश में वेदों की उपासना होती है, वही देश आयों का था। उक्त विचार दार्शनिक कोनरॉड एल्स्ट ने रुद्राक्ष सभागार में आयोजित संस्कृति संसद के समानानंतर सत्र ‘वैदिक इतिहास एवं आर्यों का मूल स्थान’ में व्यक्त किए।
कोनराड ने बताया कि आर्य समाज का इतिहास बहुत ही पुराना है। उन्होंने भाषा शैली के बदलते स्वरूप का वर्णन किया। उन्होंने कहा कि जब दुनिया की भाषाओं का स्रोत संस्कृत है और वेद संस्कृत में है इसलिए दुनिया को संस्कृत एवं धर्म ज्ञान वेदों से हुआ। यही वेद आर्यों के आधार थे। इसी क्रम में उन्होंने भाषा के विकास व उसके संदर्भ में विद्यमान मतभेदों को भी स्पष्ट किया। संस्कृत, तमिल भाषा के अपेक्षा लैटिन शब्द से संबंध रखती है। वैदिक काल में मूर्ति के अपेक्षा प्रकृति की पूजा की जाती है उन्होंने रंगभेद नीति पर भी अपने विचार व्यक्त किए। उन्होंने कहा कि आर्यों की पहचान भाषा से है,न कि उनके पहनावे से। उन्होंने भारतीय समाज सुधारकों को बाल गंगाधर तिलक, सुभाष चंद्र बोस के जीवन से लोगों को आत्मसात करने की प्रेरणा दी।
जगद्गुरु राम राजेश्वराचार्य ने कहा कि भारतीय संस्कृति के विचार हमें जोड़ते हैं। समाज निर्माण में । पूरे संपूर्ण जगत में अगर सबसे अच्छी कोई संस्कृति है तो वह भारतीय संस्कृति है। उन्होंने बताया कि भारतीय सभ्यता जैसा कोई भी नहीं है और हमारी संस्कृति में आई विकृति के कारण हमारा खान-पान, पहनावा और ज्ञान प्रभावित हुआ है। उन्होंने कहा कि इस विकृति को त्यागकर मूल संस्कृति से जुड़ना आवश्यक है, तभी हम वैदिक आर्य संस्कृति से जुड़ सकते हैं। संचालन शालिनी वर्मा ने किया।