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वीर सावरकर के कुछ परदेशी शुभचिंतक सहयोगी एवं समर्थक !

वीर सावरकर की दिनांकानुसार जयंती के निमित्त से ….

वीर विनायक दामोदर सावरकर को बंदी बनाए जाने के उपरांत उन्हें जब भारत में लाया जा रहा था, तब उन्होंने जहाज से मुक्त होने का एक साहसी प्रयत्न किया । इससे भारतीय स्वतंत्रता का विषय जगभर में गूंज उठा । उनके इस प्रयत्न का साथ देनेवाले अनेक स्वकीय क्रांतिकारी तो थे ही; अपितु परदेशी सहयोगी, समर्थक अथवा शुभचिंतक भी उन्हें मिले । उन समर्थक मित्रों एवं विचारकों का अल्प-सा परिचय !

१. कर्जन वायली के वध के उपरांत मदनलाल ढींगरा का निवेदन समाचारपत्र में प्रकाशित करवानेवाले डेविड गार्नेट !

इंग्लैंड में ‘डेविड गार्नेट’ नामक एक होशियार ब्रिटिश नागरिक जिसका कला, साहित्य इत्यादि पर प्रभुत्व था; वह सभी भारतीयों के संपर्क में आता था । शीघ्र ही वे वीर सावरकर के भी संपर्क में आए । इंडिया हाऊस में उनके चक्कर लगने लगे । आगे मदनलाल ढींगरा द्वारा कर्जन वायली के वध के उपरांत उन्होंने अपना एक निवेदन ‘आवाहन’ इस नाम से लिखा, जो जगभर के अनेक समाचारपत्रों में प्रकाशित हुआ । यह निवेदन लंदन के अंग्रेजी समाचारपत्र में छपकर आना कोई आसान बात नहीं थी । डेविड गार्नेट ने वह पत्रक ‘डेली न्यूज पेपर’ इस समाचारपत्र में काम करनेवाले मित्र की सहायता से प्रकाशित करवाया, तो ब्रिटिशों को एक जोरदार धक्का-सा लगा ।

आगे सावरकर की मुक्तता हो; इसलिए डेविड गार्नेट ने उनकी सहायता के लिए कुछ पैसे जमा किए थे । उनसे फिर उन्होंने सावरकर को कुछ कपडे एवं अन्य साहित्य की आपूर्ति की ।

२. मार्सेलिस की छलांग के अभियोग के समय सावरकर के पक्ष में अपने निजी नियतकालिक में लेखन करनेवाले रशियन लेखक मैक्जिम गॉर्की
सुप्रसिद्ध रशियन लेखक मैक्जिम गॉर्की ने वर्ष १९१० से १९१२, इस काल में वीर सावरकर के जगभर में विख्यात छलांग के संबंध में एवं उस पर हुए अभियोग में उनकी ओर से अपने नियतकालिक में लेखन किया, यह बहुत ही कम लोगों को पता है । इस लेख से गॉर्की ने ब्रिटिशों पर जोरदार टिप्पणी की । मैक्जिम गॉर्की को भारतीय क्रांतिकारियों एवं भारत की स्वतंत्रता के प्रति विशेष आदर था । सावरकर के दुर्भाग्यपूर्ण बंदी के कारण मैक्जिम गॉर्की अत्यंत अस्वस्थ हो गए । सावरकर को ब्रिटिशों द्वारा बंदी बना लेने और उन्हें उम्रकैद का दंड दिए जाने पर उन्होंने अत्यंत संतप्त प्रतिक्रिया व्यक्त की । मैक्जिम गॉर्की ने सावरकर की तुलना रशियन क्रांतिकारक निकोले चेरनीशेवस्की से की । चेरनीशेवस्की भी एक तत्त्वज्ञ क्रांतिकारी थे । चेरनीशेवस्की को जब बंदी बनाया गया, तब उन्होंने कारागृह में एक प्रेरक कथा लिखी । जो रशियन क्रांतिकारियों के लिए अत्यंत प्रेरणादायी सिद्ध हुई । इस कथा के नायक समान अपना वर्तन होना चाहिए, ऐसा उन सभी का प्रयत्न था । लेनिन भी इस कथा कादंबरी से अत्यंत प्रभावित हुए थे ।

३. भारतीय स्वतंत्रता की ओर से प्रक्षोभक लेखन करने के कारण दंड भोगनेवाले गॉय अल्ड्रेड

गॉय अल्ड्रेड के उल्लेख के बिना सावरकर के ब्रिटिश सहयोगियों, मित्रा अथवा सहानुभूतिदारों का परिचय अधूरा होगा । गॉय अल्ड्रेड भले ही ब्रिटिश थे, तब भी विचारों से मानवतावादी एवं स्वतंत्रतावादी होने से वे साम्राज्यशाही विचारधारा के शत्रु थे । वर्ष १९०९ में भारतीय स्वतंत्रता की ओर से प्रक्षोभक लेखन किया; इसलिए उन्हें बंदी बनाया गया । इस प्रकरण में न्यायालयीन पूछताछ की गई और गॉय अल्ड्रेड को एक वर्ष सश्रम कारावास का दंड सुनाया गया । गॉय अल्ड्रेड, ये पहले ब्रिटिश नागरिक थे जिन्होंने भारत के लिए कारावास भोगा ।

सावरकर की इन सहानुभूति रखनेवाले मित्रों से कभी प्रत्यक्ष भेट नहीं हुई थी, तब भी वे उनके बीच यह अनोखा संबंध हमेशा बना रहा । कारागृह से बाहर आनेपर अल्ड्रेड को सावरकर की बंदी एवं साहस की जानकारी मिलने पर उनकी मुक्तता के लिए अनेकानेक प्रयत्न किए । परंतु किसी में भी सफलता नहीं मिली । प्रयत्नों की पराकाष्ठा सभी ने की । तदुपरांत अल्ड्रेड ने ‘Herald of Revolt’ (हेरॉल्ड ऑफ रिवॉल्ट) नामक नियतकालिक शुरू किया । उसमें सावरकर का ‘१८५७ का समर’ का कुछ भाग प्रकाशित करने पर ब्रिटिश सरकार उस पर बंदी लगा दी । गांधी हत्याप्रकरण में विशेष प्रमाण न होते हुए भी सावरकर को बंदी बना लिया । तब भी अल्ड्रेड ने सावरकर की ओर से लेखन किया ।

४. सावरकर के साहस एवं देशभक्ति की प्रशंसा करनेवाले ब्रिटिश सांसद सर हेनरी कॉटन

सर हेनरी कॉटन एक मुलकी अधिकारी थे । वर्ष १८६७ से वे मुलकी अधिकारी के रूप में भारत में काम करते थे । महसूल एवं उस समान विविध भागों के अधिकारी के रूप में बंगाल में, इसके साथ ही असम में आयुक्त के रूप में काम देखा । ब्रिटिश संसद में वे सांसद थे । सावरकर को बंदी बनाने के पश्चात नए वर्ष के स्वागत के लिए बिपिनचंद्र पाल के घर में भरी सभा में उन्होंने सावरकर के साहस और देशभक्ति की प्रशंसा करते हुए कहा, ‘‘ऐसे युवक का जीवन व्यर्थ नहीं जाना चाहिए ।’’ उन्होंने आगे कहा, ‘‘हेग के न्यायालय द्वारा सावरकर फ्रान्स को सौंप दिए जाने चाहिए ।’’ तब कुछ ब्रिटिश खलबला गए और हेनरी कॉटन पर टिप्पणी करने लगे; इसलिए कि उनकी दृष्टि में सावरकर एक भयंकर आतंकवादी एवं ब्रिटिश साम्राज्य के शत्रु थे । ‘भारत का भूभाग एवं वहां के लोग अनेक पीढियों तक उनके गुलाम रहें’, ऐसी ब्रिटिशों की भावना थी । ‘ब्रिटिश साम्राज्य को आवाहन देनेवाले लोगों की सर हेनरी कॉटन प्रशंसा कर ही कैसे सकते हैं ?’, ऐसी चर्चा लगभग १० से १५ दिन ब्रिटिश समाचारपत्रों से हो रही थी । यह चर्चा ‘सर हेनरी कॉटन एवं सावरकर’ इस शीर्षक के अंतर्गत हो रही थी ।

– चंद्रशेखर साने

(साभार : मासिक, ‘स्वातंत्र्यवीर’, दिवाळी २०२१)

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