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हिंदू राष्ट्रकी स्थापनाका कार्य अर्थात हिंदुत्वनिष्ठोंका निष्काम कर्मयोग !

ज्येष्ठ कृष्ण ७ , कलियुग वर्ष ५११५

 

सारणी


 

        ‘पनून कश्मीर’के अध्यक्ष श्री. अश्वनीकुमार चृंगूजीने ‘अखिल भारतीय हिंदू अधिवेशनके समापन समारोहमें प्रस्तुत मार्गदर्शन किया था ।

१. किसी भी कार्यक्रमका आरंभ और अंत अच्छा होनेका महत्त्व !

‘अखिल भारतीय हिंदू अधिवेशन सफलतापूर्वक संपन्न हुआ । किसी भी कार्यक्रममें दो सत्र बहुत महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं । पहला उद्घाटन सत्र और दूसरा अंतिम सत्र; जिसे ‘समापनसत्र’ कहते हैं । ये दोनों सत्र सफलतापूर्वक संपन्न होना आवश्यक होता है ।

१. अंग्रेजीमें कहावत है, ‘द फस्र्ट इंप्रेशन इज द लास्ट इंप्रेशन’, अर्थात ‘पहला प्रभाव ही अंतिम प्रभाव होता है ।’ इसलिए उद्घाटन समारोहका अपना महत्त्व है ।
२. किसी भी कार्यक्रमके समापन समारोहके विषयमें कहा जाता है कि ‘ऑल इज वेल दैट एन्ड्स वेल’ अर्थात ‘जिसका अंत अच्छा होता है, संपूर्णतः अच्छा होता है ।’
३. आप कुछ भी कीजिए, उसका अंत अच्छा ही होना चाहिए । अन्यथा आपने जो कुछ भी किया, वह कोई कामका नहीं है ।
४. छत्रपति शिवाजी महाराजका भी यही उद्देश्य सदैव रहता था । अंत अच्छा ही होना चाहिए, तभी सब अच्छा है !
५. आप कुछ भी करते रहिए, विश्व आपका निर्णय देखता है । इतिहासमें जो अंतमें हुआ हो, वही निर्णय माना जाता है और वही लिखा जाता है ।

 

२. हिंदू राष्ट्र-स्थापनाके युद्धस्वरूप कार्यमें निरंतरता बनाए रखना महत्त्वपूर्ण

        सबसे पहले तो मैं अपनेआपको बहुत छोटा अनुभव कर रहा हूं; क्योंकि, यह सारा कार्य यहां मैंने देखा, लोगोंसे मिला, उनके साथ बातचीत हुई । यहां तो ६० वर्षोंसे हिंदुत्वका कार्य करनेवाले लोग मिले । केवल ५-१० वर्षोंसे नहीं; अपितु पिछले कई वर्षोंसे निरंतर तथा निर्विकल्प कार्य करनेवाले मिले । इन सभीका कार्य प्रेरणादायी लगा । कार्यमें निरंतरता बहुत आवश्यक है । अब हम ऐसे चरणपर पहुंच चुके हैं, जहां हमारी निरंतरताका बडा महत्त्व है; क्योंकि निरंतरताके आधारपर ही हमारा आगेका जंग निर्भर है । मैं अपने कार्यको अब ‘जंग’ ही कहूंगा ।

 

३. हिंदू राष्ट्र-स्थापनाके कार्यके लिए आवश्यक ध्येयनिष्ठा
और ध्येय-प्राप्तिके लिए गुरु गोविंदसिंहजी समान प्रार्थना करना आवश्यक !

         युद्धके लिए जानेसे पहले गुरु गोविंदसिंहजी भगवान शिवजीसे इस प्रकार प्रार्थना करते

देह शिवा बर मोहे ईहे, शुभ कर्मन ते कभुं न टरूं ।
न डरौं अरि सौं जब जाय लडौं, निश्चय कर अपनी जीत करौं ।।
अरु सिख हों आपने ही मन कौ इह लालच हउ गुन तउ उचरों ।
जब आव की अउध निदान बनै अति ही रन मै तब जूझ मरों ।।

     – गुरुगोविंदसिंहकृत गुरुमुखी भाषाका ‘चंडीचरित्र’

अर्थ : हे शिवजी, आप मुझे ऐसा वर दीजिए कि जिसके कारण मैं कभी भी शुभ कर्म करनेसे पीछे न हटूं, रणभूमिपर शत्रुसे कभी भी न डरूं और जिसके कारण मैं निश्चयपूर्वक युद्ध कर अवश्य जीत जाऊं । अपने मनको समझाते-समझाते मैं नित्य आपका ही गुणगान करता रहूं और जब जीवनका अंतिम क्षण आए, तो युद्धभूमिपर धर्मकी रक्षा करते-करते ही मैं प्राण त्यागूं ।

        इसका अर्थ ही है, ‘जो अच्छा काम सामने आए, उसे करनेमें मैं पीछे न हटूं । जब युद्धके मैदानमें जूझनेकी बारी आए, तो किसी लालचके सामने झुककर समझौता न करूं और परीक्षाकी घडी आ ही जाए, तो मैं अपनेआपको न्योछावर कर पाऊं ।’

         ऐसी प्रार्थना करके ही गुरुगोविंदसिंहजी रणमें उतरते थे । आजके अधिवेशनका समापन तथा कार्यारंभ गुरुगोविंदसिंहजीकी इसी प्रार्थनासे होना चाहिए । हम ईश्वरसे प्रार्थना करेंगे, ‘हे ईश्वर, किसी लालचके सामने झुककर हम कोई समझौता न करें । कोई कुछ भी कहें, मार्गपर कितनी भी बाधाएं आएं, हम कभी न झुकें । कोई कितना भी अपनापन जताकर लाभ करा देनेकी बात कहें, तो भी हम कभी ना झुकें । परिस्थिति आनेपर हम रणमें अपना बलिदान दे पाएं; किंतु संग्राममें पीछे ना हटें ।’ वह घडी अब आ गई है ।

 

४. हिंदू राष्ट्र-स्थापना हेतु फलकी अपेक्षा न रख निष्काम कर्म करते रहें !


        मैंने बार-बार कहा, एक कार्यकर्ताके रूपमें विश्लेषण कर रहा हूं । मैं कोई आध्यात्मिक पुरुष नहीं हूं । ज्ञानवान भी नहीं हूं । मैं तो एक साधारणसा कार्यकर्ता हूं और कर्म करनेमें विश्वास रखता हूं । क्योंकि गीतामें कहा गया है,

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ।।

        – श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय २, श्लोक ४७

अर्थ : कर्म करनेपर ही तुम्हारा अधिकार है । उसके फलपर नहीं । इसलिए तुम कर्मफलकी आशा मत करो तथा अकर्ममें (कर्म न करनेमें) आसक्त मत बनो ।

        बाकीकी बातें बादमें आती हैं । पहले तो यह है कि हमारा अधिकार केवल कर्मपर है । मैं वहां नहीं होता, तो यह होता ही नहीं । वास्तवमें ऐसा कुछ भी नहीं ।

 

५. अधिवेशनके माध्यमसे प्रेरणा मिलनेके

कारण हिंदुत्वनिष्ठ हिंदू राष्ट्रकी स्थापना हेतु क्रियाशील बने !

        यदि इस छोटेसे भागने काम करना बंद कर दिया, तो अन्य भागोंमेंसे एक भाग, इस भागको ग्रीस अथवा तेल डालकर उसे पुनः काम करनेयोग्य बना देते हैं । ‘अधिवेशनके माध्यमसे यह कार्य हुआ’, ऐसा मैं मानता हूं । हमारे यंत्रके कुछ भाग काम नहीं कर रहे थे, कुछ अधिक चल रहे थे, कुछ ढीले पड गए थे, तो कुछ बहुत पक्के थे । इस अधिवेशनके कारण सभी भाग काम करनेकी स्थितिमें आ गए । इसके कारण इसके सभी भागोंकी अच्छी ग्रीसिंग हुई है । अब कारखाना अच्छेसे चलेगा ।

 

६. हिंदुत्वनिष्ठ अपनेआपसे ही स्पर्धा करें !

        कारखाना अच्छे प्रकारसे चलने लग जाए, तो स्पर्धा आरंभ होती है । उसी प्रकार हिंदुत्वका कार्य अच्छे प्रकारसे होने लग जाए, तो स्पर्धा होने लगती है । स्पर्धाके कारण अनेक समस्याएं निर्माण होती हैं । इसे टालनेका सर्वोत्तम मार्ग है, अन्योंसे स्पर्धा करनेकी अपेक्षा अपनेआपसे ही स्पर्धा करना ! ‘मैंने क्या किया था’, इसका अवलोकन कीजिए और मुझे कलसे अधिक कार्य आज करना है तथा आजसे भी अधिक कार्य आनेवाले कलमें करना है, इसका निरंतर ध्यान रखिए । दूसरोंके साथ स्पर्धा करनेसे द्वेष उत्पन्न होता है । इस स्पर्धामें हम आगे बढ जाएं तो अहंकार बढता है, पीछे रह जाएं, तो ईष्र्या बढती है और बराबरी करें, तो यह स्पर्धा कभी समाप्त ही नहीं होती । इसलिए अपने साथ स्पर्धा करें । ‘मैंने आजतक क्या किया है ? मेरा लक्ष्य क्या है ? मैं आज कहां हूं ?’ ये प्रश्न अपने आपसे पूछिए ।

 

७. प्रसारमाध्यमोंद्वारा अधिवेशनको

अत्यंत गंभीरतासे; परंतु नकारात्मक दृष्टिसे देखना

        जब मैंने प्रसारमाध्यमोंमें हुई उथल-पुथल देखी, सूचना जालस्थलोंपर (वेबसाइटपर) देखा कि प्रसारमाध्यम इस अधिवेशनकी ओर किस दृष्टिसे देख रहे हैं, तब मेरे ध्यानमें आया कि प्रसारमाध्यम इस अधिवेशनको बहुत ही गंभीरतापूर्वक ले रहे हैं; परंतु नकारात्मक पद्धतिसे । यह इस पांच दिवसीय अधिवेशनका मुख्य सूत्र है ।

 

८. यंत्रको नहीं, लोगोंको महत्त्व दें !

        जालस्थलोंपर ‘हिंदू अधिवेशन’के विषयको अधिक महत्त्व दिया गया । जालस्थलोंका उपयोग करनेवाले व्यक्ति १५ से ३५ इस आयुवर्गके हैं । उन्होंने ऐसा पहले कभी देखा ही नहीं । इसलिए उन्हें लगता है कि यह क्या हो गया ? मेरी दृष्टिसे यह उनकी तात्कालिक अवस्था (ट्रांजिटरी फेज) है । इसलिए ‘फेसबुक’, ‘ट्वीटर’की कहानियोंमें अपनेआपको न फंसाएं । व्यक्तिके व्यक्तितक पहुंचनेसे (पर्सन टू पर्सन) जो कार्य होता है, उसका कोई पर्याय नहीं । कोई कुछ भी कहे अथवा करे; अंततः कम्प्यूटर चलानेवाले व्यक्तिके ही हाथ होते हैं । बडे यंत्रोंको चलानेवाले भी मनुष्य ही होते हैं । इसलिए लोगोंको महत्त्व दीजिए, यंत्रोंको नहीं । मैंने संकेतोंमें बात कही है, जानबूझकर स्पष्टतासे नहीं कहा ।

 

९. संघर्षकी शैली एवं भावनाप्रधानता

९ अ. कार्य करनेकी अपनी शैली बनाए रखकर युद्ध करें !

       सरकारतक अखिल भारतीय हिंदू अधिवेशनकी बात गई है । विशेष रूपसे यहांपर जो वक्ता अपनी भावनाओंको प्रकट कर गए, उनमेंसे एक श्री. प्रमोद मुतालिकजी हैं । उनकी अपनी स्वतंत्र शैली (स्टाईल) है, इसलिए मुझे वह अच्छी लगी । मैं उनसे प्रार्थना करूंगा कि वे अपनी शैली ना छोडें; क्योंकि इस युद्धमें प्रत्येक शैलीकी आवश्यकता है । मैं जानबूझकर ‘उनकी शैली (स्टाईल)’ कह रहा हूं । मैं उनसे विनती करता हूं कि वे अपनी शैली मजबूत करें और आगेका मार्गक्रमण भी इसी शैलीमें करें ।’ आज उनकी शैलीकी अत्यंत आवश्यकता है ।

९ आ. लडाईमें भावनाशील हुए बिना निर्णय लें और
भावनावश लिए गए निर्णयका सामना करनेके लिए सिद्ध रहें !

       मैं निवेदन करूंगा, ‘‘जहां भावनाएं आती हैं, वहां निर्णय मत लीजिए ।’ मूलतः हम सब भावनाप्रधान लोग हैं । मैं जब ‘हम सब’ कहता हूं, तब उसका अर्थ ‘सारा हिंदू समाज’ है । हिंदू समाजके कार्यकर्ता हों अथवा नेता, हम सब भावनाओंसे ओतप्रोत हैं । हमारा धर्म तथा राष्ट्रभक्ति भी एक भावना ही है । भावनावश निर्णय लेना कभी-कभी हानिकारक हो सकता है ।

        गत पांच दिनोंमें मुझे एक ही त्रुटि दिखाई दी है कि हम बहुत भावनात्मक थे । मैं स्वयं भी उसमें हूं । जब लडाई लंबी होती है, तब भावनाएं हमारी सहायता नहीं करतीं; परंतु छोटी लडाईमें भावनाओंकी भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है । उदाहरणके लिए यदि आपको किसीको थप्पड मारना है और आप उस सोचने लगे कि मारूं कि नहीं ? तो वह समय निकल जाएगा । यदि उस समय आपने भावनावश होकर किसीको थप्पड मार दिया और वह लडाई लंबे समयतक चलती रही, तो आपको बंदूककी सिद्धता करनी पडेगी; क्योंकि आपके थप्पडके कारण सामनेवाले की बंदूक बाहर आ सकती है । यह बात भी मैंने सांकेतिक रूपमें बताई । इसका अर्थ भी समझ लीजिए ।

९ इ. जहां एक तोपसे काम हो जाता है, वहां २५ तोपें न दागें !

        हर बार हम यहांसे तीर नहीं चला सकते । हम विचार करते हैं, ‘यहीं बैठकर २५ तोपें चलाएंगे ।’ कभी-कभी एक ही तोपसे काम चल जाता है । २५ तोपोंकी आवश्यकता होती ही है, ऐसा नहीं होता; परंतु वह तोप भी उतनी ही बडी होनी चाहिए । जहां २५ तोपोंकी आवश्यकता नहीं, वहां एक ही तोपसे काम हो जाएगा, तो एक ही तोप चलाएंगे । मैंने यह बात भी संकेतोंमें बताई है, मुझे लगता है कि आप समझ गए होंगे ।

 

१०. हिंदू राष्ट्र-स्थापनाका कार्य अच्छा

होनेके लिए कुशलतानुरूप श्रमविभाजन होना आवश्यक !

        हमारे पास अनुभव बहुत होता है । जैसे मैं शिक्षक हूं, तो मुझे शिक्षक होनेका अनुभव होता है । किसी दिन घरमें अतिथि आ जाएं और मेरी पत्नी रसोईघरमें मेरी सहायता मांगे, तो वहां मेरे शिक्षक होनेका अनुभव काम नहीं आएगा । वहां मुझे पत्नीrका शिष्य बनकर उनकी सहायता करनी पडेगी । कई बार हमें लगता है कि ‘मैं प्रसारमाध्यमोंके क्षेत्रमें अनुभवी हूं । इसलिए मैं भाषण अच्छा कर सकता हूं । भाषणमें अनुभव है, तो लिखनेमें भी विशेषज्ञ हो सकता हूं’; परंतु हमें श्रमविभाजन (डिविजन ऑफ लेबर) करनेकी अत्यंत आवश्यकता है । इसीलिए मैंने मुतालिकजीसे कहा, ‘आप अपनी शैली मत छोडिए ।’ उनके जैसी शैली रखनेवाले हमारे पास कुछ ही हैं ।

 

११. हिंदू राष्ट्र-स्थापनाकी अपनी इच्छा बढानेपर साधन अपनेआप मिलेंगे !

        आगे आनेवाला समय हमारे लिए चुनौतीपूर्ण होगा । जब चुनौतीपूर्ण समय होता है, तब खलबली मचती है । उस खलबलीसे बचनेका प्रयास करें । हमारे पास अधिक साधन नहीं हैं; परंतु जब मनमें तीव्र इच्छा होती है, उस समय संसाधन नगण्य होते हैं । हम अपनी इच्छा बढाएं, तो साधन अपनेआप जुट जाएंगे ।

 

१२. हिंदू राष्ट्रकी स्थापना होनेपर भगवानके प्रति कृतज्ञताभावमें रहेंगे !

        इस मार्गपर चलते हुए जब कभी भविष्यमें हम मिलेंगे, तो लोग एक दिन हमें पूछेंगे, ‘आपने एक अधिवेशन किया था और अब हिंदू राष्ट्र बन गया है । अधिवेशनके समय क्या आपको पता था कि हिंदू राष्ट्र बननेवाला है ?’ मुझे पूरा विश्वास है, बहुत लोगोंको बुरा लगेगा; परंतु उस समय हम पिछले बेंचपर होंगे । आगे आकर हिंदू राष्ट्रकी स्थापनाका ढोल बजानेवाले अलग ही लोग होंगे; किंतु हम भगवानके प्रति कृतज्ञ हैं । उनकेद्वारा दी गई भूमिका हम निभा पाएं ।’

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