वैशाख कृष्ण प्रतिपदा / दि्वतीया, कलियुग वर्ष ५११५
वक्ता : डॉ. सच्चिदानंद शेवडे, राष्ट्रीय प्रवचनकार, मुंबई.
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सारणी
- १. वर्ष २००३ में कश्मीर दौरेके विदारक अनुभव
- २. हिंदुओंकी कायर मानसिकता !
- ३. देश एवं राष्ट्रमें अंतर
- ४. कश्मीरमें सैनिकोंपर होनेवाले अत्याचारोंके विषयमें भारत सरकार की नपुंसकता
१. वर्ष २००३ में कश्मीर दौरेके विदारक अनुभव
१ अ. मुल्ला-मौलवियोंद्वारा कश्मीरको ही ‘पाकिस्तान’
संबोधित कर बच्चोंसे लेकर बूढोंतक किया गया अनुचित प्रसार
‘मैं पहलगाम बस अड्डेपर उतरा । वहां कुछ भीख मांगनेवाले बच्चे एकत्रित थे । उनमेंसे एकसे मैंने पूछा, ‘‘बेटा, कहां रहते हो ?’’ वह बोला, ‘‘पाकिस्तानमें !’’ उसका उत्तर सुनकर मैं हतप्रभ हो गया । इतना छोटा बच्चा बता रहा था कि वह पाकिस्तानमें रहता है । मैंने उससे पूछा, ‘‘तुम्हारा पाकिस्तान कहां है ?’’ उसने वहांसे दिखनेवाली निकटके टीलेकी ओर उंगली संकेत कर कहा, ‘‘वहां सामने !’’ वह वहांके गांवका लडका था । मैंने उससे पूछा, ‘‘तुमसे किसने कहा यह पाकिस्तान है ?’’ उसने कहा, ‘‘माता-पिता तथा हमारे घर आनेवाले मुल्ला-मौलवियोंने !’’
वर्ष १९९० से कश्मीरमें उत्तरप्रदेश तथा बिहारसे मुल्ला-मौलवियोंका आना-जाना आरंभ हो गया था । उनका प्रसार कैसा होता है, यह देखिए । मैंने उस लडकेसे कहा ‘‘कभी अपने देशका मानचित्र देखो और समझो कि पहलगाम पाकिस्तानसे कितना दूर है !’’ इसपर वह बोला, ‘‘आप कुछ भी कहें; परंतु हम पाकिस्तानमें ही रहते हैं ।’’
१ आ. कश्मीरके धर्मांध प्राध्यापकोंका झूठ
वर्ष १९८१ की जनगणनाके अनुसार कश्मीर घाटीमें ९६ प्रतिशत धर्मांध तथा ४ प्रतिशत हिंदू थे । अब तो उतने भी नहीं हैं । जिस समय कश्मीरी धर्मांध बोलते हैं, उस समय उनके कहे शब्दोंकी अपेक्षा उन शब्दोंके बीच छुपा अनकहा समझना चाहिए । तभी उनके बोलनेका उद्देश्य समझ सकते हैं ।
मैं कश्मीर विश्वविद्यालयके पुस्तकालय अध्यक्षके अतिभव्य कक्षमें गया था । ऐसा कक्ष मैंने अन्यत्र नहीं देखा था । वहां तीन प्राध्यापक भी थे । मेरे तथा उनके मध्य आगे दिया संवाद हुआ ।
वे (तीनों) : धारा ३७० समाप्त करें, तब हमें स्वतंत्रता मिलेगी ।
मैं : कैसे ?
वे : तभी तो समझौता भंग हुआ, ऐसा होगा न !
मैं : किसके मध्यका समझौता ?
वे : पंडित नेहरू और शेख अब्दुल्ला ।
मैं : यह क्या उनके पिताकी संपत्ति है ? दो व्यक्तियोंके बीच यह समझौता कब हुआ ?
वे : १९४७ में
मैं : संविधान वर्ष १९५० में बना है, फिर उसकी एक धारा १९४७ में कैसे लागू होगी ?
इसका अर्थ यह है कि या तो प्राध्यापकोंको भी यह जानकारी नहीं थी अथवा सभी एक स्वरमें झूठ बोल रहे थे ।
१ इ. धर्मांधोंका दिखावटी बंधुत्व !
मैं ‘ग्रेटर कश्मीर’ नियतकालिकके संपादकसे मिला । उसने अत्यधिक ऊंचे स्वरमें मुझसे बोलना प्रारंभ किया ।
मैं : आप मुझ अकेलेसे बात कर रहे हैं कि आपके सामने ४००-५०० लोगोंका समुदाय है ?
वह : नहीं, नहीं । आपको समझमें आए; इसलिए ऐसा बोल रहा हूं ।
मैं : सत्य बतानेके लिए इतने ऊंचे स्वरमें बोलनेकी आवश्यकता नहीं है और जो ऊंचे स्वरमें बोलता है, उसका कहा सब सत्य होता है, ऐसा भी नहीं है ।
वह : हमारे क्षेत्रमें सभी बंधुत्वकी भावनासे रहते हैं । आप चाहें तो समीप रहनेवाले हिंदू परिवारसे पूछ सकते हैं, ‘वे कैसे हैं ?’
मैं : वे सभी यही कहेंगे कि वे अत्यंत सुखी हैं; क्योंकि वे आप सब लोगोंसे (धर्मंधोंसे) चारों ओरसे घिरे हुए हैं । मैं तो चार दिनका अतिथि हूं ! मेरे जानेके पश्चात उन्हें अपना संपूर्ण जीवन आपके मध्य ही व्यतीत करना है । जिस प्रकार पाकिस्तानमें हिंदू रहते हैं । हमारे प्रसारमाध्यम कहते हैं कि पाकिस्तानमें हिंदू सुरक्षित हैं । सब कहते हैं ‘हम पाकिस्तानके हिंदुओंसे मिले हैं । सबने कहा कि वे अत्यंत आनंदमें हैं ।’ वास्तवमें ऐसा है क्या ? ऐसा दिखाई देता है कि आपका बंधुत्व केवल एक धर्मतक ही सीमित है, इसका क्या कारण है ?
वह : आप कहना क्या चाहते हैं ?
मैं : महाराष्ट्रके मालेगांवमें दंगे होनेपर आपके क्षेत्रके धर्मांध सडकोंपर उतरते हैं । इसका क्या कारण है ?
वह : बंधुत्व !
मैं : फिर छत्तीसिंगपुराका क्या ? (जिहादी आतंकवादियोंने २३ मार्च २००० को जम्मूके छत्तीसिंगपुरा गांवमें ३५ सिक्खोंको गोलियोंसे मार डाला था ।) वह तो अत्यंत निकट है । मालेगांव, मुंब्रा तो दूर हैं । नंदीमार्ग (जिहादी आतंकवादियोंने २० मार्च २००३ को जम्मूके नंदीमार्ग गांवके २४ हिंदुओंको गोलियोंसे मार डाला था । इन हिंदुओंमें ११ स्त्रियां और २ बच्चोंका समावेश था । छत्तीसिंगपुराकी घटनाके पश्चात आपके लोग (धर्मांध) सडकोंपर क्यों नहीं उतरे ? उस समय यह बंधुत्व कहां गया था ?
इसका उनके पास उत्तर नहीं था । उत्तरप्रदेश एवं बिहारसे धर्मांध धर्मप्रसारक कश्मीर पहुंचे । उन्होंने मस्जिदोंसे प्रचार किया तथा गांव-गांव जाकर नारे लगाए गए । ‘बट्योंबगैर बटियोंसाथ अष्ट बनायें पाकिस्तान’ इस प्रकारके ये नारे थे । इनका अर्थ है, ‘पंडितोंके बिना पंडिताईनोंके साथ आओ बनाएं पाकिस्तान ।’ कश्मीरी पंडितोंने जो दुःख भोगा है, उसे सुनकर हमारी आंखोंमें आंसू आ जाते हैं ।
१ ई. धर्मांध एवं हिंदुओंमें अंतर
अ. शिवमंदिरके धर्मांध पुजारीको पूजाविधि ज्ञात न होना तथा देवताके निकट बैठते समय तिलक लगानेके लिए कहनेपर उसका मजहब (धर्म) यह नहीं सिखाता यह कहकर मना करना : पहलगामका शिवमंदिर १३ वें शतकका है । यह माना जाता है कि ‘इस शिवमंदिरमें दर्शन न करनेसे अमरनाथ यात्रा पूर्ण नहीं होती ।’ मैं वहां गया । वहांका पुजारी धर्मांध था । मैंने उससे पूछा, ‘‘आप पंचोपचार पूजा करते हैं कि षोडशोपचार पूजा ?’’ वह बोला, ‘‘यह क्या होता है ?’’ मैंने कहा, ‘‘फिर आप क्या करते हैं ?’’ वह बोला, ‘‘इसपर फूल रखता हूं तथा पानी डालता हूं, बस !’’ मैंने कहा, ‘‘आप यहां बैठते हैं, तो न्यूनतम मस्तकपर तिलक लगाकर बैठें ।’’ उस समय वह बोला, ‘‘मेरा मजहब (धर्म) यह नहीं सिखाता ।’’ अर्थात यह व्यक्ति पूजा करनेके लिए सरकारद्वारा नियुक्त किया गया है । वहां तीन पुजारी हैं तथा उनकी ८-८ घंटेकी नौकरी है । तीनों पुजारी धर्मांध हैं । उक्त पुजारीके समान यदि कोई हिंदू उत्तर दे तो ?
हम (हिंदू) इतने मूर्ख हैं कि वहांसे लौटनेपर कहते हैं, ‘पहलगाममें हिंदू-धर्मांधोंके मध्य सौहार्द्रका उत्तम उदाहरण देखनेका मिला !’
आ. हजरत बल दरगाहके चौकीदारद्वारा गैरइस्लामी होनेका कारण बताकर मस्तक ढककर भीतर जाने हेतु कहना, हमारा धर्म यह नहीं सिखाता कहनेपर ‘भीतर कुछ भी हो सकता है’, ऐसी धमकी देना तथा भीतर जानेपर निगरानी की जानेका भान होना : उसी समय मैं हजरत बल दरगाह देखने गया था । भीतर जानेसे पूर्व एक चौकीदारने मुझे रोककर कहा, ‘‘मस्तक ढककर भीतर जाएं ।’’ मैंने पूछा ‘‘क्यों ?’’ वह बोला, ‘‘आपके कान छिदे हुए हैं । इससे ज्ञात होता है कि आप गैरइस्लामी हैं; इसलिए मस्तक ढकना पडेगा ।’’ मैंने कहा, ‘‘मेरा धर्म (मजहब) यह नहीं सिखाता । मैं ऐसे ही गया, तो क्या होगा ?’’ वह बोला, ‘‘भीतर कुछ भी हो सकता है !’’ मैंने कहा, ‘‘कुछ भी अर्थात कहींसे भी गोली चलेगी और मैं मर जाऊंगा, यही न ?’’ उसने मुझे ऐसे देखा जैसे किसी सिरफिरे आदमीकी ओर देखते हैं । भीतर घूमते समय मुझे निरंतर भान हो रहा था कि मेरी निगरानी की जा रही है ।
२. हिंदुओंकी कायर मानसिकता !
वर्ष २००३ में मैं जिस समय कश्मीर जानेके लिए निकला, उस समय मुझे कुछ लोगोंने कहा, ‘‘कश्मीरमें क्या चल रहा है, पता नहीं ? क्यों मरने जा रहे हो ?’’ इसपर मैंने कहा, ‘‘मृत्यु आनी होगी, तो घर बैठे रहनेपर भी आएगी । नहीं आनी होगी, तो १०० गोलियां झेलकर भी मैं जीवित रहूंगा !’’
३. देश एवं राष्ट्रमें अंतर
देश और राष्ट्रमें बहुत अंतर है । सीमित भूभागको ‘देश’ कहते हैं तथा आपसी सुख-दुःखमें समरस होनेवाले जनसमूहको ‘राष्ट्र’ कहते हैं । कश्मीरके पंडितोंको अथवा तमिलनाडुके हिंदुओंको कुछ होनेपर यदि हमें कोई संवेदना न हो, तो हमें स्वयंको ‘राष्ट्र’ नहीं कहना चाहिए । वर्ष १९२० के पश्चात प्राप्त नेतृत्वने हमें धीरे-धीरे देशवासी बनाया । उससे पूर्व देशकी राजनीतिमें धर्मांध थे; परंतु इस्लाम नहीं था । वर्ष १९२० के पश्चात राजनीतिमें धर्मांधोंके साथ इस्लामका प्रवेश हुआ तथा हमें नेताओंद्वारा अहिंसाका ऐसा ‘क्लोरोफॉर्म’ मिला है कि हम आजतक सुध-बुध बिसराके बैठे हैं ।
४. कश्मीरमें सैनिकोंपर होनेवाले
अत्याचारोंके विषयमें भारत सरकार की नपुंसकता
कश्मीरमें आज भी अत्याचार होते हैं । हमारे निरपराध सैनिक मारे जाते हैं । तब हमारी केंद्र सरकार निंदापत्र भेजती है । निंदापत्र क्रमांक १५२ अथवा १५५ इत्यादि । एक कविने कहा है,
‘उम्रभर हम यही गलती करते रहे । धूल होती थी चेहरेपर और आईना साफ करते रहे ।।’ |
भावार्थ : ऊपर-ऊपरके उपाय करते रहे, समस्याकी जडतक कभी गए ही नहीं ।’