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आंग्ल शिक्षाव्यवस्था – भारतीय विद्यालय धर्मनिरपेक्ष तथा अहिंदू बनानेका षडयंत्र

सारणी


 

प्रा. रामेश्वर मिश्र, हिंदू विद्या केंद्र, वाराणसी

१. जिनमें देशभक्ति नहीं है, ऐसे लोगोंके हाथोंमें देश सौंपना अंग्रेजोंकी धूर्तता !

        ‘स्वतंत्रताके पश्चात अर्थात १९४७ से जो राजनीतिक लोग भारतके शासक बने, वे सभी प्रतिभाशून्य थे । अंग्रेज धूर्ततापूर्वक सबसे दुर्बल लोगोंके हाथोंमें देश सौंपा । उन्हें पता था कि इन लोगोंमें देशभक्ति नहीं है । उनके विचार भिन्न हैं ।

 

२. भारतमें एंग्लो-ईसाई शिक्षापद्धतिकी भांति अपराविद्याकी शिक्षा दी जाना,
यह अंग्रेजोंद्वारा भारतीयोंके साथ की गई धोखाधडी

        समाजमें आज भी बहुत धर्मचेतना है । संपूर्ण समाज संतोंका सम्मान करता है । धर्माचार्यों को हम पराविद्याके (अध्यात्मविद्या के) मर्मज्ञ मानते हैं । राज्यशास्त्र, अर्थशास्त्र, विज्ञान, इतिहास इत्यादि सर्व अपराविद्याएं (अर्थात अध्यात्मविद्यासे संबंधित न रहनेवाली विद्याएं) हैं । धर्माचार्य स्वाभाविकरूपसे यही मानते हैं कि ‘अपराविद्या उनका क्षेत्र नहीं है ।’ हिंदू चिंतन राज्यशास्त्र, अर्थशास्त्र, विज्ञान, इतिहास या अपराविद्याओंमें प्रगल्भ होनेपर भी आज भारतमें उनकी शिक्षा एंग्लो-ईसाई शिक्षापद्धतिके अनुसार दी जाती है । संतोंकी ही भांति भारतीयोंने इस ओर ध्यान नहीं दिया, इसलिए अंग्रेजोंने हमें ठगकर यह काम किया है ।

 

३. हिंदुओंको चार पुरुषार्थ सिखानेके लिए स्थापित ‘बनारस हिंदू विश्वविद्यालय’को
‘धर्मनिरपेक्ष’ बननेमें कारणभूत तत्कालीन ब्रिटिश शैक्षिक अधिकारी बटलर !

        वर्ष १९१६ में ‘सनातन धर्म महासभा’के प्रस्तावके अनुसार पंडित मदनमोहन मालवीयजीने वाराणसीमें ‘बनारस हिंदू विश्वविद्यालय’की स्थापना की । उसकी स्थापना करनेका उनका स्पष्ट उद्देश्य था, भारतीय विद्यार्थियोंको धर्म, अर्थ काम और मोक्ष इन हिंदू धर्मके चार पुरुषार्थोंके विषयमें ज्ञान दिया जाए । परंतु पं. मालवीयके तत्कालीन शैक्षिक परामर्शदाता श्री. बटलरने उनपर दबाव डालकर ‘बनारस हिंदू विश्वविद्यालय’को धर्मनिरपेक्ष बनाया । आज हम देख रहे हैं कि ‘बनारस हिंदू विश्वविद्यालय’में ‘हिंदू’ शब्द नाममात्र ही रह गया है । यहां भारतके अन्य विश्वविद्यालयोंकी भांति धर्मनिरपेक्ष तथा अहिंदू शिक्षा दी और ली जाती है । भारतमें हिंदू दृष्टिसे काम करनेवाला एक भी विश्वविद्यालय नहीं है ।’

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