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प्रत्येक युवक-युवतीका धर्मशिक्षा तथा शस्त्रशिक्षा लेना आवश्यक !

ज्येष्ठ कृष्ण १२, कलियुग वर्ष ५११५ 


 

१ अ.    धर्म और पंथ 

    ‘धर्म अर्थात कत्र्तव्य, न्याय तथा सत्य ! जिसमें ये तीन बातें हैं, वह है धर्म ! अन्य सब केवल पंथ अथवा संप्रदाय हैं ।

१ आ.    युवकोंको धर्मशिक्षा और शस्त्रशिक्षा देनेकी आवश्यकता ! 

    धर्म सिखानेकी नहीं, आचरणमें लानेकी बात है । ‘मातृवान, पितृवान और आचार्यवान’ ऐसा शब्दप्रयोग किया जाता है । इसका अर्थ है, जिसके माता-पिता और आचार्य विद्वान हैं, वह बचपनसे ही अपनेआप सीखता जाएगा । वर्तमानमें देशभरमें होनेवाले धर्मविषयक सम्मेलनोंमें ६० वर्षसे अधिक आयुके लोग आते हैं । वे अपने बच्चोंको अपने साथ नहीं लाते । उचित तो यह है कि उन्हें ही (बच्चोंको ही) सम्मेलनोंमें सहभागी किया जाना चाहिए । मुसलमान तथा ईसाइयोंको बचपनसे धर्मकी शिक्षा दी जाती है । हम हिंदू बच्चोंको मैकालेप्रणित शिक्षा देते हैं । जीवनभर ‘नौकरी’का झंझट उनके पीछे लगाते हैं । नौकरीके लिए उन्हें विदेश भेजना चाहते हैं । हम उन्हें नौकर बनाने चले हैं । इस परिस्थितिमें परिवर्तन लानेके लिए प्रत्येक युवक तथा युवतीको शस्त्र और शास्त्रका ज्ञान देना चाहिए । 

१ इ.    हम अपने देशका नाम बचा नहीं सके, यह लज्जाजनक ! 

    पूर्वमें हमारे देशका नाम ‘आर्यावर्त’ था । आर्यावर्तमें रहनेवाले, आर्य ! पांडवोंके कालमें देशका नाम ‘भारत’ बना । अरबोंने हमें ‘हिंदू’ कहा और हम ‘हिंदुस्थानी’ हो गए । अंग्रेजोंने हमारे देशको ‘इंडिया’ नाम दिया और हम ‘इंडियन’ बने । यह बात हमारे लिए लज्जाजनक है । हम अपने देशका नाम भी नहीं बचा पाए ।

१ ई.    अब शस्त्र उठानेका समय ! 

    हमारी जीवनपद्धति श्रेष्ठ थी । जीवनमें भी सहजता थी; परंतु ‘सहजता’ व्यक्तिगत गुण है । आज हमें व्यक्तिगत गुणोंकी नहीं, शस्त्र उठानेकी आवश्यकता है । भगवान परशुराम, ऋषि-मुनि तथा संतोंने भी समय आनेपर हाथोंमें शस्त्र उठाए हैं ।’

श्री. कृष्णदेव आर्य, सचिव, राष्ट्रीय आर्य निर्मिति सभा, हरियाणा. 

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