नई दिल्ली : हिंदू विवाह एक ‘संस्कार’ है। इसे हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के तहत तब तक मान्यता नहीं दी जा सकती जब तक कि इसे उचित रीति रिवाज और समारोहों के साथ नहीं किया जाए। सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि हिंदू विवाह अधिनियम के तहत वैध शादी के लिए मैरिज सर्टिफिकेट ही पर्याप्त नहीं है। ये एक संस्कार है जिसे भारतीय समाज में प्रमुख रूप से दर्जा दिया गया है। जस्टिस बीवी नागरत्ना और जस्टिस ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की पीठ ने 19 अप्रैल को इस संबंध में अहम आदेश सुनाया। पीठ ने युवा पुरुष और महिलाओं से आग्रह किया कि वे शादी से पहले ही इस विवाह संस्कार के बारे में गहराई से सोचें और यह भी कि भारतीय समाज में ये संस्कार कितने पवित्र हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि हिंदू विवाह 'गाना और डांस', 'शराब पीना और खाना' या एक कमर्शियल ट्रांजैक्शन का आयोजन नहीं है. इसे हिंदू विवाह अधिनियम के तहत 'वैध समारोह का अभाव' के रूप में मान्यता नहीं दी जा सकती है. जस्टिस बी वी नागरत्ना और जस्टिस ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की बेंच ने कहा कि… pic.twitter.com/qVEN3cw8OK
— AajTak (@aajtak) May 2, 2024
शीर्ष अदालत ने याद दिलाया कि हिंदू विवाह ‘नाच-गाने’ और ‘खाने-पीने’ या दहेज और गिफ्ट मांगने जैसे अनुचित दबाव डालने का मौका नहीं होता है। ऐसी किसी भी शिकायत के बाद आपराधिक कार्यवाही शुरू होने की संभावना है। पीठ ने आगे कहा कि विवाह का मतलब कोई व्यावसायिक लेन-देन नहीं है। यह एक पवित्र समारोह है, जिसे एक पुरुष और एक महिला के बीच संबंध स्थापित करने के लिए आयोजित किया जाता है। इसमें युवक-युवती भविष्य में एक परिवार के लिए पति और पत्नी का दर्जा प्राप्त करते हैं, जो भारतीय समाज की एक बेसिक यूनिट हैं।
स्रोत : नवभारत टाइम्स