ज्येष्ठ शुक्ल ४, कलियुग वर्ष ५११५
विद्याधिराज सभागृह, श्री रामनाथ देवस्थान, गोवा : धर्मप्रचारके कार्यमें कीर्तनकार एवं प्रवचनकारका योगदान सदैव ही महत्त्वपूर्ण रहा है । हिंदुत्वके लिए कार्य करनेवाले संगठनोंको भी ऐसे प्रवचनकार सिद्ध करनेके लिए प्रयत्न करना चाहिए । विद्यालय एवं महाविद्यालयोंमें ली जानेवाली वक्तृत्व स्पर्धाओंमे सहभाग लेनेवाले विद्यार्थियोंको हिंदुओंमे जागृति करनेके लिए सिद्ध करना चाहिए । पाश्चात्य संस्कृतिकी अपेक्षा अपनी संस्कृति बहुत महान है । अपनी महान संस्कृतिकी युवा पीढीको उचित पद्धतिसे पहचान कर देनी चाहिए । हम स्वयं भोजनसे पूर्व काकबली आदि निकालकर रखते हैं । पाश्चात्य कहते हैं, शेष भोजन तो हम फेंक ही देते हैं, तब उन्हें मिल ही जाता है । हिंदू संस्कृति एवं पाश्चात्य संस्कृति, इनमें जो अंतर है, उसे विद्यार्थियोंको समझाना चाहिए ।
कीर्तनकार एवं प्रवचनकारोंको केवल कीर्तन ही करके नहीं रुकना चाहिए, अपितु प्रसंगानुरूप शौर्यको प्रोत्साहन देनेवाले उपक्रम भी चलाने चाहिए । भागवतकथा सादर करते समय जिस प्रकार कृष्ण-रूक्मीणीका विवाह मनाया जाता है । उसी प्रकार कंस वधका प्रसंग भी प्रस्तुत करना चाहिए । राष्ट्रपुरुषोंकी जयंती-पुण्यतिथिके दिन संगीतकुर्सी, कैरम स्पर्धा रखनेकी अपेक्षा शौर्यको प्रोत्साहन देनेवाली स्पर्धाओंका आयोजन करना चाहिए ।