ज्येष्ठ शुक्ल ४ , कलियुग वर्ष ५११५
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शासन तथा जनताके मध्य जब दूरी उत्पन्न होने लगती है, तब शासनके विषयमें जनताके मनमें क्रोध, रोष तथा थोडी घृणाकी भावना उत्पन्न होती है । ऐसी स्थिति निर्विवाद, अराजकताको आमंत्रण हो सकती है । इजीप्तकी जनताके आंदोलनका मूल इसी घृणाकी भावनामें था । अब महत्त्वपूर्ण सवाल यह है कि इजीप्तके उदाहरणसे भारतके नेता कुछ सीख लेंगे या नहीं ?
१. शासकीय क्षमताका अभाव तथा बढती राजकीय लापरवाही !
`प्रश्न खाली रेतीका, इंधनका, दूधका, भूखंडोंका अथवा शासकीय कार्यालयोंमें पाए जानेवाले अनिर्बंध रिश्वतखोरीतक मर्यादित नहीं है । प्रश्न है, शासनमें शासकीय क्षमताके पूरे अभावका अर्थात एक तरहसे नाकर्तेपनका, किसीको किसीका भय नहीं लगता तथा केवल शासनकर्ता ही नहीं, पूरी राजकीय व्यवस्थाकी लापरवाहीका । हर बातमें सामान्य जनताको कल्पित लेनेका । ’
२. अवैध व्यावसायिक, राजनीतिज्ञ तथा प्रशासकीय
अधिकारियोंकी सुखी; किंतु समाजको दुखी करनेवाली सांठगांठ !
‘वैध-अवैध व्यवसाय करनेवाली टोलियां तथा राजनीतिज्ञ – प्रशासकीय अधिकारी इनकी सांठगांठ कुछ अपवाद छोडकर, आज भारतका एक भी समाजघटक सुखी, समाधानी एवं स्वस्थ न रहनेका अत्यंत कष्टदायक चित्र उत्पन्न हुआ है । ’
२ अ. भ्रष्ट पुलिसपर कुछ भी कार्यवाही न होनेके कारण
शासनके विषयमें जनसामान्यके मनकी आस्था उद्ध्वस्त हो गई है !
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`अपने स्वार्थकी आड आनेवालेको सीधा यमसदन भेजनेमें गुंडे तथा पैसेवालोंको कुछ भी संकोच या भय नहीं लगता । पुलिस तंत्र `संभालना’ इन सबकी दृष्टीसे सर्वाधिक सहज बात बन गई है । तथा इस विषयमें शासन होते हुए भी न होनेके बराबर है । इसी कारण लोगोंके मनसे शासन नामकी संस्थाके विषयमें आस्था पूरी तरहसे टूटकर उद्ध्वस्त हो गई है । ’
२ आ. धनशक्ति एवं दंडशक्ति इन आधारोंपर ही
चलनेवाले तथा अराजकताको आमंत्रण देनेवाले आजके चुनाव !
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‘लोकराज्यके ( लोकशाहीमें ) चुनाव लोकेच्छा तथा उम्मीदवारोंके लोगसंग्रहपर निर्धारित रहते हैं, किसी कालकी यह वास्तविकता आज पूरी तरह नष्ट हो गई है । चुनाव केवल धनशक्ति तथा दंडशक्तिके बलपर जीते जाते हैं, यह भीषण, घिनौना, भयानक तथा उद्वेगजनक वास्तविकता सामने आई है । यदि ‘नगरपालिकाका सदस्य’ बनना है, तो जेबमें कमसे कम एक कोटि रुपए जमा करें तत्पश्चात चुनावका विचार करें, ऐसी प्यारभरी सलाह ली तथा दी जा रही है । यह सब क्या दर्शाता है, तथा अराजकता इससे अलग क्या होगी ?’
२ आ १. भ्रष्टाचारकी जड तथा उसकी गति बढानेवाली भ्रष्ट चुनाव पद्धति !
`अस्सीके दशकसे देशने भ्रष्टाचारके मार्गपर चलना प्रारंभ किया तथा आगे जाकर यही चलना भागनेमें परिर्विर्तत हुआ, राजकीय विश्लेषकोंका ऐसा सिद्धांत है । अनेक राजनीतिज्ञोंके अनुसार देशकी निर्वाचन पद्धति, भ्रष्टाचारकी गंगोत्री है । भ्रष्टाचारका आरंभ तथा अंत ये दोनों छोर आकर चुनाव पद्धतिसे मिलते हैं । ’
३. दंडविधान गुंडे तथा पैसेवालोंके हाथोंमें !
‘भीषण भ्रष्टाचार फैलनेका तथा उसके विषयमें कुछ भी न सोचनेका महत्त्वपूर्ण कारण यह है कि किसीको भी दंडविधानका भय नहीं रहा । दंडविधान पालन करने हेतु नहीं, अपितु तोडने हेतु है, ऐसी सुविधाजनक समझ गुंडे एवं पैसेवालोंने अपने अंदर पक्की कर ली है । ’
३ अ. न्यायतंत्रकी दुःस्थितिके लिए तंत्र स्थित महाभाग ही उत्तरदायी !
‘न्यायव्यवस्थाका डर ना रहे, व्यवस्थाके ही कुछ महाभागोंने ऐसी स्थिति उत्पन्न कर रखी है । अत: ऐसी व्यवस्थासे क्या अपेक्षा रखें, लोगोंके मनमें यदि ऐसी उद्विग्नता उत्पन्न हो गई हो, तो लोगोंको कैसे दोष दें ?’
४. खोखले हो चले लोकराज्यको संवारनेकी
अपेक्षा स्वयं ही खोखला हुआ पत्रकारितारूपी चौथा स्तंभ !
‘लोकराज्य शासनव्यवस्थामें जब कोई स्तंभ खोखला हो जाता है अथवा उसका उस मार्गपर क्रम अग्रसर होना आरंभ हो जाता है, तब लोग अन्य स्तंभोंकी ओर आशासे देखते हैं; किंतु आज वहां भी निराशा ही नजर आती है । लोकराज्यके स्वयंघोषित चतुर्थ स्तंभकी अर्थात प्रसारमाध्यमोंकी आजकी अवस्था भी दुर्भाग्यसे अलग नहीं है । ’
५. सहनशीलताके नामपर अवैध
वस्तुओंके विषयमें डरपोक बनी भारतीय जनता !
`साधारणत: चार-साढेचार दशकपूर्व नलमें पानी नहीं आया, तो भी लोग आवोशमें रास्तेपर उतरते थे । किंतु आज जीवनावश्यक समझी जानेवाली हर चीज हलकेसे बजारसे हो रही है, तथा काले बाजारमें अधिक दामोंपर बेची जाती है; किंतु समाज टससे मस नहीं होता । क्या यह लोगोंकी अथवा समाजकी सहनशीलताका लक्षण माना जाए ?’
– हेमंत कुलकर्णी (दैनिक `लोकमत’, २०.२.२०११)