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लोकशाही एवं साम्यवाद दोनों समाजव्यवस्थाएं हानिकारक !

श्रावण शुक्ल १३ , कलियुग वर्ष ५११५ 


१. स्वातंत्र्योत्तर कालमें राष्ट्रजीवन तथा समाजजीवन स्थापित करनेके लोकशाही एवं साम्यवाद, नि:शंसय ये दोनों मार्ग मानवहितके लिए मारक सिद्ध हुए हैं । 

१५ अगस्त १९४७ को इस देशसे अंग्रेजोंकी प्रभुसत्ता समाप्त हुई तथा अपनी राजकीय स्वतंत्रताका उदय हुआ । स्वातंत्र्योत्तर कालमें राष्ट्रजीवन तथा समाजजीवन स्थापित करनेके दो ही पर्याय उपलब्ध थे । व्यक्तिस्वतंत्रताका उद्घोष करनेवाली लोकशाही व्यवस्था तथा मजदूर, मेहनती एवं किसानोंका राज स्थापित करनेकी घोषणा करनेवाली साम्यवादी समाजव्यवस्था !

ये दोनों पर्याय पाश्चात्य भौतिक संस्कृतिसे प्रभावित हैं, तथा पूरे मानव जीवनका विचार करनेकी दृष्टिसे न केवल अधूरे है; अपितु मानवहितके मारक भी हैं ।  सारा विश्व १०० वर्ष पूर्वसे ही यह प्रसंग खुली आंखोंसे देख रहा है । 

२. साम्यवादी विचारोंका दुष्परिणाम

२ अ. भारतीय प्रशासनपर साम्यवादी विचारोंका भीषण प्रभाव : दो पर्यायोंसे भारतीय राज्यतंत्रने साम्यवादको भले ही स्वीकार न किया हो, किंतु साम्यवादी विचारोंके प्रभाववाले व्यक्तियोंकी संख्या प्रत्यक्ष प्रशासनमें तथा प्रशासनके बाहर कुछ न्यून नहीं ।

२ आ. स्टालिनकी अमानुष तत्त्वप्रणाली कार्यवाहीमें लानेवाले साम्यवादी देशोंमें सत्ताधारियोंका विरोध करनेवालोंकी क्रूर पद्धतिसे हत्या की जाती है : वास्तवमें किसी भी साम्यवादी देशमें कभी भी मजदूर, मेहनती तथा किसानोंका राज नहीं आया । सच्चे अर्थोंमें पक्षोंका भी राज नहीं आया । साम्यवादी देशोंमें पक्षके गिनेचुने सत्ताधारियोंके राज आए । इन सत्ताधारियोंका थोडा भी विरोध करनेवालोंकी क्रूर पद्धतिसे ह्त्या की गई । सारा विश्व ख्रिस्ताब्द १९२० से १९४५ की कालावधिका असहाय प्रत्यक्षदर्शी था । सुधार एवं विकास शांतिके मार्गसे न कर केवल निःपात, रक्तपात एवं अत्याचारका प्रयोग कर करना चाहिए, स्टालिनकी इस आज्ञाको अमानुषिक न कहें, तो और क्या कहें ? 

३. लोकशाही शासनव्यवस्थाके दोष एवं त्रुटियां 

३ अ. राष्ट्रप्रमुखोंद्वारा लोकशाही व्यवस्थाके गंभीर दोष एवं त्रुटियां जाननेका महत्त्व न समझना : हमारे देशने व्यक्तिस्वतंत्रतावादी लोकशाही व्यवस्थाको स्वीकार किया । उसका अतिरेकी गुणगान करनेके उत्साहमें उसमें अंतर्भूत गंभीर दोष तथा त्रुटियां हैं, यह जाननेकी आवश्यकता अपने राष्ट्रप्रमुखोंकी समझमें नहीं आई ।

३ आ. पूंजीवादके सारे दोष लोकशाहीमें आना : `Democracy is the creation of Capitalism' `लोकशाही पूंजीवादकी रचना है’, यह लेनिनका सुप्रसिद्ध वचन है । इसका स्पष्ट अर्थ है कि पूंजीवादके सारे दोष लोकशाहीमें अंतर्भूत होते हैं । अमर्यादित धनलोभ एवं धनका केंद्रीकरण, जानलेवा स्पर्धा, स्वार्थी बुद्धिसे दूसरोंके साथ होनेवाला विवेकशून्य व्यवहार एवं दुर्बल घटकोंका अमानुष शोषण पूंजीवादके ये सारे दोष लोकशाहीमें अंतर्भूत हैं ।

३ इ. लोकशाही शासन व्यवस्था, अर्थात मुट्ठीभर धनवानोंका बहुसंख्य निर्धनोंपर निर्दयतापूर्वक राज चलाना : लोकशाही व्यक्तिस्वातंत्र्यका चाहे कितना भी उद्घोष करें, प्रत्यक्षमें लोकशाही व्यवस्थामें मुट्ठीभर धनवानोंका बहुसंख्य निर्धनोंपर निर्दयी राज चलता रहताहै । ऐसी लोकशाहीमें सारे व्यवहारोंकी कसौटी केवल धनपर निर्धारित होती है तथा कथित न्यायाधिष्ठित लोकशाहीमें शोषण पुराने साम्राज्यवादके शोषणसे कहीं अधिक तीव्र होता है । 

३ ई. लोकशाहीमें मनुष्यजीवनका ईश्वरजीवनमें परिवर्तन करनेका कोई भी साधनामार्ग न होना : लोकशाहीका इससे अधिकगंभीर दोष यह है कि उसमें भले ही व्यक्तिस्वातंत्र्यकी घोषणा हो, किंतु व्यक्तिके आंतरिक विकासका तथा मनुष्यमें अंतर्भूत पशुवृत्ति नष्टकर मनुष्यजीवनका ईश्वरजीवनमें परिवर्तन करनेका कोई भी साधनामार्ग लोकशाही व्यवस्थामें दिग्दर्शित नहीं किया गया । 

३ उ. लोकशाहीद्वारा कर्तव्योंको भूलकर केवल अधिकार हेतु झगडनेवाले लोकसंगठन उत्पन्न करना : संघर्ष जीवनका नियम है, इस प्रकारके अर्धसत्य, हास्यास्पद तथा संभ्रमित करनेवाले तत्त्वोंका उद्घोष कर अपने कर्तव्योंको बिल्कुल भूलकर केवल अधिकार हेतु निरंतर झगडे करनेवाले लोकसमूह एवं लोकसंगठन लोकशाहीने ही उत्पन्न किए । सदस्योंके अधिकार तथा आर्थिक लाभ हेतु नित्य लडनेवाले मजदूर संगठनोंसे कोई संगठन एक भी सदस्यको उसके व्यावसायिक एवं सामाजिक कर्तव्योंकी याद दिलानेका एक भी उदाहरण नहीं मिलेगा ।

– प्र. द. देशमुख

साम्यवाद, लोकतंत्रवाद तथा विज्ञानवादकी मर्यादा !

१. शास्त्रज्ञोंद्वारा निसर्गपर प्रभुत्व प्राप्त कर विविध सुख-साधन उपलब्ध करानेसे मानवका भोगवादी जीवनके चंगुलमें फंसना : शास्त्रज्ञोंने निसर्गपर प्रभुत्व संपादन कर विविध तंत्रवैज्ञानिक  अन्वेषणोंके द्वारा मानवको बहुविध सुखसाधन उपलब्ध कराए हैं।इन सब सुखसुविधाओंसे मानव भोगवादी जीवनके चंगुलमें फंस गया है । अत: हम सुखके सर्वोच्च शिखरपर विद्यमान हो गए हैं, उसके मनमें ऐसा आत्मवंचनात्मक विचार स्थायी होने लगा है । भौतिक सुखके साधन सुख नहीं हैं, सुख मानव मनकी अवस्था है, यह बात वह समझ नहीं रहा । 

२. विज्ञानवादी शास्त्रज्ञोंकी अप्रबुद्धपनकी तथा विनाशकारी गर्जना ! : विश्वकी असंख्य गूढ घटनाओंमेंसे शास्त्रज्ञोंको बहुत हीअल्प घटनाओंकी जानकारी हो पाई है; किंतु उससे इस अचेतन सृष्टिसे परे जानने योग्य कुछ भी नहीं तथा मानव बुद्धि बिना ज्ञानार्जनका अन्य साधन ही नहीं, वे चिल्लाकर विश्वको ऐसा बता रहे हैं । शास्त्रज्ञोंका यह चिल्लाना केवल अप्रबुद्धपन ही नहीं, अपितु विनाशकारी है;क्योंकि शास्त्रज्ञोंका व्यवहार बाह्य सृष्टिकी अचेतन वस्तुओंसे होता है, तो सुख मनकी  आंतरिक स्थिति है । इस पद्धतिसे साम्यवाद, लोकतंत्रवाद तथा विज्ञानवादकी मर्यादाएं स्पष्ट होती हैं । 

– प्र. द. देशमुख (संदर्भ : त्रैमासिक सद्धर्म, निज ज्येष्ठ/आषाढ १९२१, जुलाई १९९९)

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