अश्विन शुक्ल ८ , कलियुग वर्ष ५११५
प.पू. डॉ. जयंत आठवले |
विजयादशमी हिंदुओंके धर्मविजयका ही दिन है । इसी दिन श्री दुर्गादेवी एवं प्रभु श्रीरामने क्रमशः महिषासुर एवं रावण नामक दो असुरोंका वध कर, आसुरी (अधर्मी) शक्तियोंका निर्मूलन किया ।
इसी दिन बृहन्नलाके वेशमें अर्जुनने विराट राजाके पुत्रको सारथी बनाकर शमीके वृक्षके कोटरसे शस्त्र निकालकर, अपनी विजिगीषा (विजयप्राप्तिकी इच्छा)का परिचय दिया था ।
उन्होंने कौरवोंको पराजित कर, धर्मविजय हेतु लडे जानेवाले महाभारतके युद्धका सीमोल्लंघन भी किया । इसलिए यह दिन धर्मकी विजयका ही नहीं, अपितु धर्मविजयके लिए सीमोल्लंघन करनेका भी दिन है ।
धर्म-अधर्मके मध्यका संघर्ष युगों-युगोंसे चला आ रहा है । कालके अनुसार कभी धर्मनिष्ठोंकी, तो कभी अधर्मी वृत्तिकी विजय होती है । आज भी यह मध्य संघर्ष अपनी परमोच्च शिखरपर आ पहुंचा है । गत कुछ दशकोंसे निरंतर पराजित होनेवाले हिंदू समाजके लिए आगामी काल धर्मविजयके लिए अनुकूल है; परंतु केवल काल अनुकूल होनेसे धर्मविजय प्राप्त नहीं होती, अपितु उसके लिए अर्जुनके समान अपनी विजिगीषाको जागृत करना भी आवश्यक है । हिंदू समाज यदि कालकी आहट पहचानकर, धर्मविजयके लिए सीमोल्लंघन करे, तो समझें आनेवाली विजयादशमी सार्थक हो गई !
– (प.पू.) डॉ. जयंत आठवले, संस्थापक, सनातन संस्था.
स्त्रोत : हिंदी सनातन प्रभात