केवल आंदोलनोंसे नहीं; अपितु समाजकी मानसिकतामें परिवर्तन होनेपर ही भ्रष्टाचारका निर्मूलन होगा !

पौष शुक्ल पक्ष ९, कलियुग वर्ष ५११५
        शासनकी धूर्त राजनीतिके कारण ज्येष्ठ समाजसेवक श्री. अण्णा हजारेके आंदोलनोंसे निर्मित भ्रष्टाचारविरोधी प्रक्षुब्ध वातावरण कुछ मात्रामें ढीला होता जा रहा है । अब अण्णाके आंदोलन तथा भ्रष्टाचारके विषयमें हो रहे संवाद भी घटते दिखाई दे रहे हैं । सभी भ्रष्टाचारी शासनतंत्र भी अनेक वर्षोंसे प्रचलित पद्धतिनुसार पुनः क्रियान्वित हो गए हैं । इसीलिए ऐसे आंदोलनकी सार्थता, उपयुक्तता तथा परिणामकारकताका शांत मनसे एवं तटस्थतासे विचार करना आवश्यक हो गया है ।

        इस विषयसे संबंधित अनेक पहलुओंपर अभ्यासपूर्ण विवेचन प्रस्तुत करनेवाला तथा समाज परिवर्तनके लिए आवश्यक वैचारिक दिशानिर्देश करनेवाला नागपूरके डॉ. म.पु. केंदूरकरजीद्वारा लिखित एवं मासिक ‘धर्मभास्कर’में प्रकाशित यह लेख हम अपने पाठकोंके लिए प्रसिद्ध कर रहे हैं ।

सारणी


१. भ्रष्टाचारके विरोधमें साधारण व्यक्तिके संतप्त उद्रेकका कारण !

        वर्तमानमें व्यक्ति, संस्था एवं समाजका जीवन भ्रष्टाचारके प्रचंड तथा भयंकर भस्मासुरद्वारा ग्रसित हुआ  है । अतः साधारण मनुष्य  दैनिक व्यवहारमें प्रत्येक क्षण भ्रष्टाचारका एक निराश करनेवाला अनुभव कर रहा है । ज्येष्ठ समाजसेवक श्री. अण्णा हजारेके आंदोलनमें सहभागी प्रक्षुब्ध समाजका समर्थन अर्थात सामान्य मनुष्यका भ्रष्ट समाजिक, शासनप्रणित एवं सार्वजनिक व्यवस्थाओंके प्रति अपनी विवशतासे संबंधित भावनाओंका संतप्त उद्रेक था, ऐसा कह सकते है।

२. साधारण व्यक्ति ही भ्रष्ट व्यवस्थाका आधार बनता है !

        भ्रष्टाचार विरोधके आरंभमें ही एक प्रश्न उठता है कि, अनेक कारणोंके होनेपर  भी संपूर्ण समाजके दैनिक जीवनका तथा समाजमनमें व्याप्त एक अटल सत्य अर्थात भ्रष्टाचार ! क्या इसका निर्मूलन इस प्रकारके जनआंदोलनसे होगा  ?

        उस दृष्टीसे यदि श्री. अण्णा हजारेके आंदोलनका विश्लेषण किया जाए,  तो प्रथम ध्यानमें आता है कि, अण्णाके आंदोलनमें सहभागी जन-साधारणका नैतिक उद्रेक अप्रामाणिक न होते हुए भी वह स्मशान वैराग्य जैसा तत्कालिक ही होता है । ऐसा व्यक्ति अपने दैनिक व्यवहारमें कभी भोलेपनसे, कभी अनुचित धारणाओंके कारण, कभी मान्यताप्राप्त कृत्यके रूपमें अपनी विवशताके कारण, तो कभी स्वार्थके मोहवश समाजमें व्याप्त किसी न किसी  भ्रष्ट व्यवहारका समर्थन ही करता है ।

२ अ. साधारण व्यक्तिके भ्रष्ट व्यवहारका स्वरूप !           

        शासकीय अथवा व्यावसायिक सेवामें प्रामाणिकतासे निहित समयमें काम न करना, शासकीय अथवा व्यावसायिक दूरभाषसेवा, लेखन (स्टेशनरी) अथवा अन्य सामग्रीका अपने व्यक्तिगत कार्यके लिए बिना हिचकिचाहट उपयोग करना, प्रकृति अस्वास्थ्यका झूठा कारण दिखाकर छुट्टियां लेना, शासनद्वारा प्रदत्त चिकित्सकिय व्ययका (खर्चका) अवैध मार्गसे वैद्यकी (डॉक्टर) सहायतासे लाभ उठाना, वेतनबाह्य करपात्र आय घोषित न कर आयकरसे बचना ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जो अण्णाके आंदोलनमें सहभागी साधारण ‘प्रामाणिक’ लोगोंके संदर्भमें हैं । इससे अधिक गंभीर भ्रष्टाचारके असंख्य उदाहरण हम सदैव  अनुभव करते ही हैं ।

२ आ. भ्रष्टाचारी उच्चभ्रू व्यक्तियोंका आंदोलनमें सहभाग      

        करोडो रुपयोंका आयकर चुकानेवाले व्यावसायिक तथा  बॉलिवूडके तथाकथित सज्जन  विनासंकोच अण्णाको समर्थन देनेके लिए उपस्थित थे । विदेशी सहायतापर पोषित तथा समाजसेवाका धंधा करनेवाले तथाकथित ‘स्वयंदेशी’ संगठनोंके गैरसरकारी संस्थानोंके (एन.जी.ओ.के) स्वयंस्थापित पदाधिकारी भी इस झुंडमें दिखाई दिए । अण्णाके इन आंदोलनोंका अपने व्यक्तिगत अथवा पक्षीय स्वार्थके लिए लाभ उठानेवाली राजनीतिक शक्तियोंका समर्थन भी इस आंदोलनको मिला  था ।

३. सामाजिक चरित्र विकसित करनेके लिए आवश्यक कोई

निश्चित कृत्यका अभाव , अण्णाके भ्रष्टाचारविरोधी जनआंदोलनकी एक मर्यादा !

        भ्रष्टाचारविरोधी आंदोलनमें प्रामाणिक; परंतु आत्मवंचित ऐसे भोले-भाले जनसमूहसे लेकर स्वार्थी, पाखंडी ऐसे सभी समाजघटक  इकठ्ठा होकर भी क्या ऐसे जनआंदोलनोंद्वारा भ्रष्टाचार निर्मूलन संभव होगा , यह खरा प्रश्न है । ऐसे जनआंदोलनोंकी यह एक मर्यादा  है, ऐसा ही कहना पडेगा  । ‘भ्रष्टाचारका विरोध’, यह विचार समझनेमें सरल है । अतः  ऐसा आंदोलन प्रत्यक्षमें जनताकी ओरसे विरोध, प्रदर्शन, घोषणाएं एवं कभी-कभी  अनशन इसके अतिरिक्त अन्य किसी बातकी अपेक्षा न रखनेवाला होता है; क्योंकि उसका उद्देश्य केवल वातावरण निर्मिती करनेतक  ही मर्यादित होता है ।

        अण्णाके आंदोलनमें भी भ्रष्टाचार निर्मूलनकी दृष्टिसे साधारण समाजका चरित्र विकसित करनेके लिए  निश्चित उपाय करनेपर कोई प्रयास नहीं दिखता है ।

४. देशभक्ति तथा सामाजिक सत्चरित्रका

क्रियाशील भान दैनिक आचरण एवं व्यवहारमें आए बिना

किसी भी  समाजमें नैतिकताका निर्माण नहीं होता, यह ध्यानमें रखें !

        अण्णाके भ्रष्टाचारविरोधी आंदोलनसे तत्कालिक नैतिक उन्मादसे भरे इस जनसागरको, परिवर्तनका यह शुभकार्य स्वयंसे ही आरंभ करना होगा । यह बात ‘मैं अण्णा हजारे’, ऐसे फलक लेकर अथवा सिरपर टोपी धारण कर अण्णाके पिछे तथा अन्यत्र समूहमें खडे रहने जितनी सुलभ नहीं है । दिखावटीपनसे निर्मित दांभिकता अथवा आत्मवंचिततामें रमनेवाले इस समाजको यह भान ही नहीं है । देशभक्ति तथा सामाजिक सत्चरित्रका क्रियाशील भान दैनिक आचरण एवं व्यवहारमें आए बिना किसी भी समाजमें न नैतिकताका निर्माण होता है,  न ही वह उसका स्थायीभाव बनता है, यहांपर इस बातको जनताद्वारा सदैव ध्यानमें रखा जाना चाहिए ।

५. भारतियो, जापानी जनता एवं

प्रशासकीय अधिकारियोंकी नैतिकताका आदर्श अपनाएं !

        जापानी समाजद्वारा गतवर्ष हुए भूकंप एवं ‘त्सुनामी’के भीषण आघातके समय सामाजिक सत्चरित्रताकी क्रियाशील इच्छाशक्तिका अत्यंत उर्जस्वल उदाहरण विश्वके सामने रखा  गया । इतना प्रचंड उत्पात होकर भी कहीं भी दंगा-बखेडा नहीं, लूटमार नहीं, मिली हुई आपात्कालीन साहायता-सामग्री छिनाझपटी कर अपनी झोली भरनेकी उछलकूद नहीं, सहायताके संदर्भमें न स्वार्थ, न पक्षपात । संपूर्ण समाजका ही नैतिक स्तर अत्यंत उन्नत हुए बिना यह संभव ही नहीं ।

        साधारण समाजसमान ही वहांकी शासकीय व्यवस्थाका भी ऐसा ही एक उदाहरण पढनेमें आया । ‘त्सुनामी’ के उत्पातमें समुद्रतटपर बहकर आए हुए वस्तुओंके ढेर हटाते समय पैसोंके ५७०० बटुए मिले एवं उनमेंसे पूरे ७.८० करोड डॉलर्सकी रोकड इकठ्ठा हो गई । जिनके नाम-पते एवं जानकारी मिल सकती है, उनको उनका पैसा लौटानेका शासकीय अभियान चलाया गया । इसका अर्थ यह है कि, वहां समाजके साथ-साथ उसी समाजसे आए प्रशासकीय अधिकारी एवं सेवकवर्गकी नैतिकताका स्तर भी उतना ही ऊंचा है ।

६. व्यक्ति एवं समाजका नैतिकदृष्टीसे

परिवर्तन, यही भ्रष्टाचारकी समस्याका मूलगामी उपाय !

        जन-साधारणके व्यक्तिगत तथा सामाजिक आचरणमें नीतिमानता लानेके लिए पारिवारिक सुसंस्कार, तत्त्वनिष्ठ संस्कारित मूल्यशिक्षा प्रणाली एवं व्यवस्था, नीतिमूल्योंके विषयमें अक्षुण्ण प्रबोधन करनेवाली सामाजिक तथा सांस्कृतिक व्यवस्थाएं सार्वत्रिक रूपमें समाजमें सदैव कार्यरत रहनी चाहिए । केवल व्यक्तिनिर्माण अथवा व्यक्तिमें परिवर्तन पर्याप्त नहीं है । व्यक्तिके परिवर्तनके साथ समाजकी विविध व्यवस्थाएं, संस्था आदिमें भी परिवर्तन आवश्यक होता है; क्योंकि अपरिवर्तित तथा भ्रष्ट सामाजिक, शासकीय एवं राजनैतिक व्यवस्थाओंमें नीतिमान व्यक्तिको भी काम करना असंभव हो जाता है । अतः ऐसा व्यक्ति एक तो भ्रष्ट व्यवस्थामें अगतिक हो जाता है अथवा  भ्रष्ट व्यवस्थाओंके साथ समझौता कर उन व्यवस्थाओंका ही एक भाग हो जाता है ।

        इसके अतिरिक्त  व्यक्तिका परिवर्तन न करते हुए केवल व्यवस्थाका परिवर्तन किया जानेपर भी नैतिकदृष्टीसे परिवर्तित न हुआ भ्रष्ट व्यक्ति इस परिवर्तित व्यवस्थाको अपने निजी स्वार्थके लिए झुकाकर उसका अनुचित लाभ उठाता है ।  अतः चरित्रसंपन्न व्यक्तियोंद्वारा  निर्मित नीतिमान समाजव्यवस्था ही भ्रष्टाचार निर्मूलनका मूलगामी उपाय है । जापानी समाज जैसे उदाहरण ऐसीही प्रक्रियाके  माध्यमसे उदित होते हैं  ।

७. केवल नए कानून बनाकर

समाजका मूल्यपरिवर्तन तथा वर्तनपरिवर्तन होगा क्या ?

        अण्णाके आंदोलनका उद्देश्य भ्रष्टाचारविरोधी कानून बनाना अर्थात ‘जनलोकपाल विधेयक’ संमत करना है; परंतु कानून परिवर्तित करनेसे अथवा नए कानून बनानेसे भ्रष्टाचार समाप्त होगा, ऐसा समझना यह केवल स्वप्नरंजन मात्र है । भ्रष्टाचारके विरोधमें आज भी प्रभावशाली कानून अस्तित्वमें है; न्यूनता मात्र इतनी ही है कि उनकी कठोर तथा निःपक्षपाती कार्यवाही नहीं होती । उनका उपयोग भी राजनैतिक, शासकीय एवं सामाजिक व्यवस्थाओंकी ओरसे अपने स्वार्थपूर्तिके लिए ही किया जाता है । अपेक्षित ‘जनलोकपाल विधेयक’के विषयमें भी ऐसी संभावनाको नकारा नहीं जा सकता । भ्रष्टाचारविरोधी कानून बनाना एवं समाजिक, राजनैतिक तथा शासकीय संस्कृतिमें परिवर्तन लाना, इनमें प्रचंड अंतर है, इस बातको यहांपर ध्यानमें रखना चाहिए । अण्णाके आंदोलनकी यह  एक अन्य मर्यादा कह सकते हैं । राजनेता एवं प्रशासनके लक्षावधी अधिकारी तथा कर्मचारियोंका मूल्यपरिवर्तन तथा वर्तनपरिवर्तन किसी इंद्रजालकी (जादू) छडी घुमानेसमान  केवल कानून बनानेसे संभव नहीं है, इस बातका भान कहीं भी दिखाई नहीं देता ।

८. नीतिमानता समाजका स्थायीभाव हुए बिना भ्रष्टाचार निर्मूलन नहीं होगा !

        अण्णाके आंदोलनसे आज समाजमें भ्रष्टाचारविरोधी एक तरंगका निर्माण हुआ है, यह सत्य है; परंतु ऐसे तरंगोंकी भी एक अंगभूत मर्यादा होती है, यह ध्यानमें रखना आवश्यक है । समाजके ऊंचे व्यक्तित्त्व इस परिवर्तनको प्रेरणा अवश्य देते हैं; परंतु उस प्रेरणाका फलदायी होना, यह सर्वथा जन-साधारणकी नैतिकताके अनुकूल मानसिक स्तरपर ही निर्भर करता है ।

        देशभक्ति, सामाजिक कर्तव्यभावना आदि मूल्योंद्वारा व्यक्तिगत तथा सामाजिक नीतिमानता यह जबतक समाजका स्थायीभाव नहीं बनता, तबतक यह असंभव है । ऐसे आंदोलनके मायामय वातावरणमें रमनेवाले समाजको इसका स्पष्टरूपसे भान कराना आवश्यक है ।

९. सामाजिक आंदोलनोंके कारण हुए अपेक्षाभंगकी

परिणती अंतिमतः समाजपरिवर्तनकी ऊर्मीको निढाल कर देगी !

        अण्णाके आंदोलन अथवा ऐसे अन्य कुछ आंदोलन जन-सामान्यकी आशा-आकांक्षाओंको आकाशको छुनेवाली ऊंचाईयोंतक पहुंचा देते हैं । आज श्री. अण्णा हजारेजी लगता है जैसे कोई अवतारी पुरुष बने हैं । समाज उनकी ओर सर्व प्रकारके भ्रष्टाचारका निर्मूलन करनेवाले ‘तारणहार’के  रूपमें देख रहा है । ऐसे समयमें भ्रष्टाचारका निर्मूलन ‘जनलोकपाल विधेयक’द्वारा अथवा अण्णाद्वारा नहीं, अपितु  उसका प्रारंभ स्वयंसे ही करना पडेगा, इस कठोर वास्तविकताका भान समाजको समयपर कराना ही चाहिए ।  अन्यथा समाज एक अनपेक्षित तथा घातक परिणामका बलि बननेका भय है; क्योंकि भ्रष्टाचारके संदर्भमें  अपेक्षित परिवर्तन यदि शीघ्र नहीं दिखाई दिया (वर्तमान स्थितिमें तो ऐसा ही लगता है ।), तो उसकी परिणती लोगोंके सामूहिक अपेक्षाभंगमें होगी । इसीसे ‘अण्णा हजारे भी लडें; परंतु भ्रष्टाचाररूपी  भस्मासुरके कानपर जू तक न रेंगी’, ऐसी निराशाकी भावना समाजपरिवर्तनकी ऊर्मीको निढाल कर देगी, ऐसी संभावना ही अधिक लगती है । इससे भ्रष्टाचारके संदर्भमें जन-सामान्यका पुनः असंवेदनशील बनना, यह बात सार्वजनिक जीवन स्वच्छ बनानेकी दृष्टीसे बहुत बडी शोकांतिका सिद्ध होगी !

        समाजव्यवस्थामें परिवर्तन करना हो, तो परिवर्तनकर्ता समाज एवं राजनैतिक नेतृत्व नीतिमान होना चाहिए ! व्यक्ति नीतिमान होनेके लिए उसने साधना एवं धर्माचरण करना, यही उपाय है !

        समाजव्यवस्थामें परिवर्तन करना हो, तो परिवर्तनकर्ता समाज एवं राजनैतिक नेतृत्व नीतिमान होना चाहिए ! यह उपरोल्लिखित लेखसे सुस्पष्ट होता है । नीतिमान समाजनिर्मिती यह कोई एक क्षणमें होनेवाली बात तो है नहीं । उसके लिए जडसे उपाययोजन करना अत्यावश्यक होता है । मूलतः ‘भ्रष्ट प्रवृत्तियां दृढ क्यों होती हैं’, इसका अध्ययन करनेपर ही उन्हें नष्ट करनेके उपाय ढूंढ सकते हैं । नीतिशास्त्रके अनुसार ‘भ्रष्ट प्रवृत्ति’ उस व्यक्तिकी नैतिकताका अधःपतन दर्शाती है । धर्माचरणके लिए कालके अनुसार बताए जानेवाले व्यावहारिक नियमोंको ‘नीति’ कहते हैं । सत्यनिष्ठा, सदाचार, सारासार विवेक, अस्तेय आदि गुण ‘नीति’ इस शब्दसे प्रदर्शित होते हैं । विश्वमें कोई भी नैतिक मूल्य केवल अच्छे है, इसलिए नहीं टिकते, अपितु उनका अस्तित्व बनाए रखनेके लिए उनके पिछे साधना तथा धर्माचरणका अधिष्ठान होना आवश्यक होता है । प्राचीन भारत सत्यनिष्ठा एवं नीतिमानताके लिए विश्वविख्यात था; क्योंकि उस समय प्रत्येक भारतीयके पिछे व्यक्तिगत साधना एवं धर्माचरणका  बल था । आज भारतमें धर्माधिष्ठित राज्यप्रणाली न होनेसे समाजको ‘नीति तथा धर्म’की शिक्षा नहीं मिलती । इस कारण समाज साधना तथा धर्माचरण नहीं करता एवं उसके फलस्वरूप व्यक्तिमें नैतिक तथा अनैतिक कृत्य किसे कहते हैं, यह समझनेकी प्रगल्भता निर्माण नहीं होती । साधना, धर्माचरण एवं धर्मशिक्षा इन बातोंसे दूर हुए व्यक्ति अनैतिकता, हिंसा तथा अपराध जैसी कुप्रवृत्तियोंकी पकडमें आ जाती है । राष्ट्रमें बढते हुए भ्रष्टाचारकी समस्याका भी यही कारण है । राष्ट्रमें बढती भ्रष्टाचारी प्रवृत्तिको नियंत्रणमें लानेके लिए व्यक्तिको साधना तथा धर्माचरण करनेके लिए प्रेरित करनेवाली राज्यप्रणाली एवं ‘नीति तथा धर्म’की शिक्षा देनेवाले प्रशासकोंकी निर्मिति करना, यही अंतिम उपाय हैं ।

        लोगो, हिंदु राष्ट्रमें ऐसी राज्यप्रणाली होगी !

– डॉ. म.पु. केंदूरकर, नागपूर (मासिक धर्मभास्कर, मार्च २०१२)

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