मार्गशीर्ष कृष्ण ६, कलियुग वर्ष ५११५
पाकिस्तान के उर्दू अखबारों में देश में छिड़ी 'शहीद और शहादत' की बहस की चर्चा है, तो भारत में राजनीतिक हलचल के अलावा एक अफगान तालिबान नेता को वीजा दिए जाने को कई अखबारों में तवज्जो दी गई है।
राष्ट्रीय सहारा के संपादकीय का शीर्षक है-तालिबान के नेता को भारत का वीज़ा। अख़बार के मुताबिक़ तालिबान नेता अब्दुल सलीम जईफ को भारत आने का वीजा दिए जाने की खबर को मीडिया में मामूली ढंग से पेश किया गया है लेकिन ये चौंकाने वाली खबर है।
अख़बार के अनुसार चौंकाने वाली इसलिए क्योंकि भारत और तालिबान के रिश्ते को कुछ भी कहें लेकिन खुशगवार नहीं कह सकते। जईफ गोवा में हुए एक कार्यक्रम में हिस्सा लेने भारत आए।
अख़बार कहता है कि भारत के इस कदम पर कई सवाल उठ रहे हैं। मसलन क्या भारत ने साल 2014 के बाद के उस परिदृश्य को ध्यान में रखकर तालिबान नेता को वीजा दिया है, जब अमरीकी सेनाएं अफगानिस्तान से निकल जाएंगी।
खासकर अमेरिका के वहां से जाने के बाद वहां हालात पेचीदा हो सकते हैं। ये कदम ऐसे समय में देखने को मिला है, जब अफ़ग़ान राष्ट्रपति हामिद करज़ई का कार्यकाल ख़त्म होने जा रहा है।
भाजपा और मुसलमान
'भारतीय जनता पार्टी और मुसलमान', यह संपादकीय है 'हिंदोस्तान एक्सप्रेस' का, जो कहता है कि पार्टी के एक मुस्लिम चेहरे मुख्तार अब्बास नकवी सामने आकर कह रहे हैं कि भारतीय जनता पार्टी मुसलमानों की तरक्की को सुनिश्चित करने का इरादा रखती है।
अख़बार कहता है कि मुसलमानों की जानो-माल की हिफाजत का वादा करते हुए भाजपा को मुसलमानों के वोटों की ज़रूरत क्यों पड़ गई। यह वही पार्टी है जो कल तक मुसलमानों को अछूत समझती थी।
अख़बार के अनुसार सच तो यह है कि नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचाने लिए ही नक़वी मुसलमानों के वास्ते 'विज़न डॉक्यूमेंट' पेश कर रहे हैं।
'हमारा समाज' ने लिखा है कि सबसे बड़ा सवाल ये है कि नरेंद्र मोदी के पास कितने वोट हैं कि वो अपने दम पर बीजेपी की नैया पार लगा दें। राष्ट्रीय राजनीति में हलचल दिखाने के लिए सिर्फ गुजरात का वोट काफ़ी नहीं है।
अख़बार कहता है कि देश की सिर्फ़ छह प्रतिशत आबादी ही तो गुजरात में रहती है और उनके वोटों पर दिल्ली की सत्ता तक पहुंचना मुमकिन नहीं है। अखबार की राय है कि प्रधानमंत्री पद के लिए मोदी को आगे रखकर पार्टी ने ख़ुद अपना नुक़सान किया है।
'आपत्तियां बेबुनियाद'
रुख़ पाकिस्तानी अख़बारों का करें, तो पाकिस्तान में विदेश मामलों के सलाहकार सरताज अज़ीज़ के भारत दौरे पर 'नवा-ए-वक्त' ने संपादकीय लिखा है।
अख़बार के अनुसार सरताज अज़ीज़ और मनमोहन सिंह लंबे समय से एक-दूसरे को जानते हैं और उनके इस रिश्ते का इस्तेमाल बातचीत की बहाली के लिए होना चाहिए।
अख़बार कहता है कि भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और उनके मंत्रिमंडल के कई सदस्य कश्मीर को अपना अटूट अंग क़रार देकर कश्मीर मुद्दे पर बातचीत का रास्ता पहले ही बंद कर चुके हैं।
'नवा-ए-वक्त' के अनुसार भारत को कश्मीर पर बातचीत के लिए तैयार करने की कोशिश करनी चाहिए, लेकिन इससे राष्ट्रीय हितों को किसी तरह का नुकसान नहीं होना चाहिए।
वहीं 'जंग' ने पाकिस्तानी उच्चायोग में सरताज अज़ीज़ और कश्मीरी अलगाववादी नेताओं से मुलाकात पर भारत में हुए विवाद पर लिखा कि 66 साल से खिंचा चला आ रहा कश्मीर विवाद भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव की बुनियादी वजह है।
अख़बार के अनुसार पाकिस्तान को भी कश्मीरी लोगों से उनकी राय जानने का उसी तरह हक़ है जैसे भारत को। इसीलिए भारत में पाकिस्तान के विदेश सलाहकार की हुर्रियत नेताओं से मुलाकात पर आपत्तियां बेबुनियाद हैं।
स्विस बैंकों में काला धन
दैनिक 'आजकल' ने पाकिस्तानी क्रिकेट के हालात को कार्टून के ज़रिए पेश किया है, जिसमें पाकिस्तानी क्रिकेट की कश्ती को डूबते हुए दिखाया गया है।
वहीं दैनिक 'औसाफ़' की वेबसाइट पर ख़बर है- सचिन का किरदार निभाने की आमिर ख़ान की दिली तमन्ना। अखबार लिखता है कि आमिर सचिन और क्रिकेट, दोनों के बड़े प्रशंसक हैं।
आमिर न सिर्फ सचिन के पुराने दोस्त हैं बल्कि उन्होंने 2009 में क्रिकेट पर आधारित फिल्म लगान भी बनाई थी।
दैनिक 'ख़बरें' के अनुसार पाकिस्तानी राजनेताओं के 200 अरब डॉलर स्विस बैंकों में जमा हैं।
अख़बार कहता है कि पाकिस्तान के लगभग 40 राजनेताओं और कारोबारियों का यह पैसा बरसों से वहां जमा है।
ख़बर के अनुसार नवाज शरीफ ने आर्थिक उदारीकरण योजना के तहत स्विस बैंकों में इस तरह के निवेश की अनुमति दी थी, जिसके बाद साल 1992 में पाकिस्तान के अहम लोगों ने अपने काले धन को स्विस बैंकों में भेज दिया था।
कौन है 'शहीद'
कराची से निकलने वाले दैनिक 'अमन' ने पाकिस्तान में 'शहीद' शब्द पर छिड़े विवाद को अपने संपादकीय का विषय बनाया है।
दरअसल जमाते इस्लामी पार्टी के नेता मुनव्वर हसन ने पिछले दिनों यह बयान देकर इस विवाद को हवा दी कि वो तालिबान के ख़िलाफ़ लड़ाई में मारे जाने वाले पाकिस्तानी सेना के फौजियों को शहीद नहीं मानते हैं।
अख़बार के मुताबिक़ बेशक पाकिस्तानी अमरीका के ग़ुलाम नहीं हैं, लेकिन इस बात को भी कोई देशभक्त बर्दाश्त नहीं कर सकता कि कोई पार्टी अमरीका का विरोध करने के चक्कर में इतनी आगे निकल जाए कि वो देश की हिफ़ाज़त में जान न्योछावर करने वालों को शहीद न माने।
दैनिक 'नई बात' का इसी मुद्दे पर कहना है कि अमरीकी ड्रोन हमलों ने तालिबान से बातचीत की प्रक्रिया को जिस तरह ध्वस्त किया है और दहशतगर्दी के शोलों को हवा दी है।
उसकी राष्ट्रीय स्तर पर निंदा होनी चाहिए थी। लेकिन बहस का पूरा रुख मुनव्वर हसन के दो वाक्यों की तरफ हो गया है।
अख़बार में राजनेताओं को भी हिदायत दी गई है कि वो ऐसी कोई बात न कहें, जिससे न सिर्फ उन पर बल्कि उनकी पार्टी पर ही सवालिया निशान उठने लगें।
स्त्रोत : अमर उजाला