मार्गशीर्ष कृष्ण ११ , कलियुग वर्ष ५११५
१. धर्म तथा राजनीति एक होनेपर धर्मका ह्रास होकर राजनीति उलझ जाती है !
आजतक जिन लोगोंने हिंदू कहलानेवालोंको नीचा दिखाकर निर्दयतासे पीटा है, उन्होंने केवल स्वार्थी राजनीति हेतु ही ऐसा किया है । स्वा. सावरकरद्वारा की गई हिंदुओंकी परिभाषा कैसे अधूरी है, यह श्री. श.रा. दातेने अपने लेखमें दिखा दिया है । पितृभूमि तथा पुण्यभूमि ये शब्द भी संदिग्ध एवं व्यर्थ सिद्ध हो रहे हैं, उन्होंने यह बात निर्भीकतासे निदर्शनमें लाई है । अनेक लोगोंके ध्यानमें एक अडचन नहीं आई है, ऐसा प्रतीत होता है और वह है, भारतमें ही कुछ ईसाई, मुसलमान आदि धार्मिक पंथ पूर्वमें उभरकर सामने आए तथा आते रहेंगे । उनकी पितृभूमि तथा पुण्यभूमि भारत ही रहेगा । तो हिंदू शब्दमें क्या अर्थ रह जाएगा ? धर्म तथा राजनीति एक ही व्यासपीठपर विराजमान न हों; ऐसा होनेपर धर्मका ह्रास होता है तथा राजनीति उलझकर विद्रोही बन जाती है ।
२. सुविधा तथा उपयुक्तता देखकर धर्मका विचार करनेवाले राजनीतिज्ञ !
धर्ममें सुधार करनेकी जो भाषा सुनाई देती है, वह महत्त्वपूर्ण है । श्री. नित्यानंद बनर्जी तथा अन्य कार्यकर्ता कभी प्रकट, तो कभी अभिप्रेत धर्मसुधार अपने मनमें लाते हैं । इसका अर्थ ऐसा है कि धर्मका महावस्त्र राजनीतिज्ञोंकी कैचीसे सुविधा तथा उपयुक्तताका नाप आंखोंके सामने रखकर काटनेका विचार निश्चित है ।
प्रचलित हिंदुत्ववादियोंकी एक बडी चिंताजनक विसंगति यह है कि अध्यात्म, धर्म आदिमें स्वा. सावरकर जैसे (उनके विषयमें पूरा आदर रखकर) कट्टर भौतिकवादी एवं ऐहिकवादी गौरव एवं प्रधानतासे समाविष्ट हुए हैं । अत: इन सबको कैसे बांधकर रखें, यह बडा कठिन प्रश्न है ।
३. महान भारतीय संस्कृतिका महत्त्व समझ अमेरिकन विदुषी डॉ. रूथ रेनाद्वारा अपनी संस्कृति पुरानी समझकर अद्ययावत होने हेतु पाश्चात्त्य संस्कृति अपनानेवाले भारतीयोंका यथार्थ चित्रण !
हिंदुत्ववादियोंकी यह स्थिति डॉ. रूथ रेना नामकी अमेरिकन विदुषीने ध्यानपूर्वक चित्रित की है, यह मानना ही पडेगा । पंजाब विश्वविद्यालयमें भारतीय तत्त्वज्ञानका अध्यापन करनेवाली इस विदुषीने देहली मेलेमें निम्नांकित विचार प्रस्तुत किए हैं, वे चिंतनीय हैं ।
उसकी डांटका सारांश यह है कि विश्वके देशोंमें इच्छा अथवा आवश्यकता होनेसे सम्मानका स्थान पानेकी दौड-धूपमें भारतवर्ष अचेतनवादके चक्रव्यूहमें फंस गया है । पाश्चात्त्य दुनियाका अनुकरण करनेके प्रयासोंमें भारतवर्ष अपने पारंपारिक सिद्धांत, जो पूर्वमें उसे विश्वमें श्रेष्ठ सिद्ध करने हेतु कारण बने तथा आज भी वैसा बन सकते हैं, शीघ्रतासे उसे त्याग रहा है । जिस आध्यात्मिक स्तरकी दृष्टिसे भारतवर्ष गगनचुंबी सिद्ध हुआ था, अपना वह स्वत्व पाश्चात्त्य संस्कृति अपनानेके उतावलेपनमें गवां रहा है । जिस पारंपारिक ज्ञान तथा विद्याके बलपर अपने पूर्वजोंने संकटोंका सामना समर्थतासे किया, उन्हींकी योग्यता नकारनेके कारणआज भारतीय मानव भारित हो गया है । पारंपारिक विचारपद्धति अब पुरानी तथा फेंकने जैसी हो गई है, ऐसा बहाना बनाकर मानों वह उससे दूर भाग रहा है । तथाकथित आधुनिक भारतीयको लगता है कि दुनिया उसे पुराने खयालोंका तथा गंवार कहेगी; अत: वैदिक सिद्धांतोंसे निकट संबंध रखनेमें बहुअंशी लज्जा अनुभव होती है तथा वैसा होनेपर जिस पाश्चात्त्य दुनियाको वर्तमानमें वह बडा सयाना एवं ज्ञानी समुपदेशक (सलाहकार) समझता है, उसे मुंह दिखाना कठिन होगा, उसे ऐसा भी लगता है । उसका उद्घोष, `भले ही हम आधुनिक बनेंगे’, यह है, किंतु उसके मनका सही अर्थ हम पाश्चात्त्य बनेंगे, यही है ।
– श्री. ब.स. येरकुंटवार (प्रज्ञालोक, ७.१.१९६६)
स्त्रोत : दैनीक सनातन प्रभात