ग्रहबाधा, पछाडना आदि कोई कपोल कल्पना नहीं, वास्तव है !

पौष कृष्ण ५ , कलियुग वर्ष ५११५

 

१. ग्रह शब्दकी व्याख्या

बहुधा सभी लोग ग्रह शब्दको ज्योतिषशास्त्रके ग्रहोंतकही सीमित समझते हैं । मानियर विलियम्सके शब्दकोशमें ग्रह शब्दकी व्याख्या निम्नानुसार की है । Particular evil demons or spirits who seize or exercise a bad influence on the body and mind of man (it falls within the province of medical science to expel these demons), अर्थात शरीर एवं मनको पछाडनेवाले अथवा उनपर अनिष्ट परिणाम करनेवाले विशिष्ठ प्रकारके राक्षस या आत्माओंको ग्रह कहते हैं । (इनकी बाधा दूर करना, चिकित्साशास्त्रके (आयुर्वेदके ) अंतर्गत आता है ।)
 

२. ग्रहबाधा, पछाडना आदिके आयुर्वेदशास्त्रनिहित संदर्भ

आयुर्वेदमें बालग्रह, भूतग्रह एवं भूतोन्माद आदिके अंतर्गत ग्रहबाधा, पछाडना इत्यादिके कारण, लक्षण एवं चिकित्सादिकी मिमांसा की है ।

२ अ. अनिष्टकारी शक्ति द्वारा पछाडे जानेके कारण

केचित् पुनः पूर्वकृतं कर्माप्रशस्तमिच्छन्ति तस्य निमित्तम् ।

– चरकसंहिता, निदानस्थान, अध्याय ७, सूत्र १०

अर्थ : पूर्वजन्ममें किये गए पापकर्म ही अनिष्टकारी शक्ति द्वारा पछाडे जाने के कारण हैं।

प्रज्ञापराधात् हि अयं देवर्षिपितृगन्धर्वयक्षराक्षसपिशाचगुरुवृद्धसिद्धाचार्यपूज्यान्

अवमति अहितानि आचरति अन्यद्वा किञ्चित् एवंविधं कर्म अप्रशस्तम् आरभते ।

– चरकसंहिता, निदानस्थान, अध्याय ७, सूत्र १०

अर्थ : बुद्धिके भ्रष्ट होनेके कारण मानव देव, ऋषि, पितर, गंधर्व, यक्ष, राक्षस, पिशाच, गुरु, वृद्ध, सिद्ध, आचार्य आदिका अपमान करता है, असभ्य आचरण करता है, अथवा अन्य पापकर्म करता है, जिसके फलस्वरूप उसकी विवेक बुद्धिका नाश हो जाता है, तथा यही भूतों द्वारा उसके पछाडे जानेका मूल कारण है ।
 

२ आ. विविध अतींद्रिय शक्तियां कैसे पछाडती हैं ?

अवलोकयन्तो देवा जनयन्त्युन्मादं गुरुवृद्धसिद्धमहर्षयोऽभिशपन्तः पितरो धर्षयन्तः स्पृशन्तो

गन्धर्वाः समाविशन्तो यक्षाः राक्षसास्त्वात्मगन्धमाघ्रापयन्तः पिशाचाः पुनरारुह्य वाहयन्तः ।

– चरकसंहिता, निदानस्थान, अध्याय ७, सूत्र १२

अर्थ : देवता नेत्रसे देखकर उन्माद  उत्पन्न करते हैं (पछाडते हैं), पितर धमकी देकर, गंधर्व स्पर्श करके, यक्ष शरीरमें प्रवेशकर, राक्षस सडे हुए मांसकी गंध देकर एवं पिशाच ग्रीवापर बैठकर पछाडते हैं ।
 

२ इ. अतींद्रिय शक्ति द्वारा पछाडे जानेके स्थान एवं काल

पापस्य कर्मणः समारम्भे पूर्वकृतस्य वा कर्मणः परिणामकाले एकस्य वा शून्यगृहवासे चतुष्पथाधिष्ठाने वा सन्ध्यावेलायाम् अप्रयतभावे वा पर्वसन्धिषु वा मिथुनीभावे रजस्वलाभिगमने वा विगुणे वा अध्ययनबलिमङ्गलहोमप्रयोगे नियमव्रतब्रह्मचर्यभङ्गे वा महाहवे वा देशकुलपुरविनाशे वा महाग्रहोपगमने वा स्त्रिया वा प्रजननकाले विविधभूताशुभाशुचिस्पर्शने वा वमनविरेचनरुधिरस्रावे अशुचेः अप्रयतस्य वा चैत्यदेवायतनाभिगमने वा मांसमधुतिलगुडमद्योच्छिष्टे वा दिग्वाससि वा निशि नगरनिगमचतुष्पथोपवनश्मशानाघातनाभिगमने वा द्विजगुरुसुरयतिपूज्याभिधर्षणे वा धर्माख्यानव्यतिक्रमे वा अन्यस्य वा कर्मणोऽप्रशस्तस्यारम्भे इत्यभिघातकाला व्याख्याता भवन्ति ।

– चरकसंहिता, निदानस्थान, अध्याय ७, सूत्र १४

अर्थ : पापकर्मोंके प्रारंभ करते समय, पूर्वजन्ममें किये गए पापोंके फलित होनेका समय आनेपर, संध्याकालमें असावधान अथवा अपवित्र होनेपर, निर्जन व एकांत वास्तुमें अकेले होनेपर, पौर्णिमा या आमावास्याके दिनोंमें स्त्रीसंग करनेपर; अध्ययन, बली, मंगल, होम त्रूटीपूर्ण विधिसे किए जानेपर, नियम एवं ब्रह्मचर्यका भंग करनेपर, महायुद्धके समय, देश, कुल अथवा नगरके विनाशकालमें, दीर्घ ग्रह(अनिष्टकारी शक्ति) के संपर्क में आनेपर, स्त्रीके प्रसवकालमें, विविध अपवित्र एवं अशुभ पदार्थोंका स्पर्श करनेपर, वमन, विरेचन, रक्तमोक्षण ( उपचारार्थ रक्त निकालते समय) इत्यादि कर्म घटित होनेपर, अपवित्रावस्थामें मंदिराआदि पवित्र स्थानमें प्रवेश करनेपर, जूंठा मांस, मधु, तिल, गुड,मद्य का सेवन करनेपर, नग्नावस्थामें, रातमें नगर,गांव आदिके चारागाह , उपवन, स्मशानमें जानेसे; ब्राह्मण, गुरु, देव, संन्यासी, पूजनीय व्यक्तियोंका अपमान करनेसे, धर्म-विरुद्ध आचरण करनेसे अथवा अन्यकोई पाप करनेपर अतींद्रिय शक्तियां पछाड सकती हैं ।
   

२ ई. भूतोन्मादके लक्षण (अतींद्रिय शक्ति द्वारा पछाडे जानेके लक्षण)

अत्यात्मबलवीर्यपौरुषपराक्रमग्रहणधारणस्मरणज्ञानवचनविज्ञानानि  अनियतश्‍चोन्मादकालः ।

– चरकसंहिता, निदानस्थान, अध्याय ७, सूत्र १३

अर्थ : भूतोन्मादके लक्षण निम्नानुसार हैं । पछाडे हुए व्यक्तिको  अतिमानवीय बल, शौर्‍य, पौरुष, पराक्रम, ग्रहण, धारण, स्मरण, ज्ञान, वाणी एवं विज्ञान प्राप्त हुए रहते हैं । उनका उन्माद कालभी अनिश्चित होता है ।
 

२ उ. अतींद्रिय शक्तियों द्वारा पछाडे जानेके हेतु

त्रिविधं तु खलून्मादकराणां भूतानामुन्मादेन प्रयोजनं भवति तद्यथा हिंसा रतिः अभ्यर्चनं चेति । तत्र हिंसार्थिनोन्माद्यमानोऽग्निं प्रविशति अप्सु निमज्जति स्थलाच्छ्वभ्रे वा पतति शस्त्रकशाकाष्ठलोष्टमुष्टिभिः हन्ति आत्मानम् अन्यच्च प्राणवधार्थमारभते किञ्चित् ।

– चरकसंहिता, निदानस्थान, अध्याय ७, सूत्र १५

अर्थ : हिंसा करना, रती(प्रेम) करना अथवा पूजन करना, ये अतींद्रिय शक्तियोंके उन्माद  उत्पन्न करनेके पीछे तीन हेतु होते हैं । उसमेंसे हिंसाकरनेके हेतुसे जिस व्यक्तिको पछाडाजाता है, वह आत्मदाह करलेता है । किसी बडे जलाशयमे छलांग लगाता है, किसी ऊंचे स्थानसे नीचे छलांग लगाता है; शस्त्र, चाबुक, छडी, पथ्थर या मुठियासे अपने आपपर वार करता है अथवा किसी अन्य प्रकारसे आत्महत्याका प्रयास करता है ।
 

२ ऊ. पछाडे जानेपर किये जानेवाले आयुर्वेदोक्त उपाय

तयोः साधनानि मन्त्रौषधिमणिमङ्गलबल्युपहारहोमनियमव्रतप्रायश्‍चित्तोप-वासस्वस्त्ययनप्रणिपातगमनादीनि ।

– चरकसंहिता, निदानस्थान, अध्याय ७, सूत्र १६

अर्थ : मंत्र, मणीधारण, मांगलिम कर्म, बली देना, होम-हवन करना, नियम, व्रत, प्रायश्चित्त, उपवास, स्वस्तिवाचन, नमन करना आदि उपचार पछाडे  हुए व्यक्तिके लिए बताये गए हैं ।
 

३. ग्रहबाधा, पछाडना आदि कपोल कल्पना नहीं है !

उपरोक्त सभी संदर्भोंका चिंतन करनेसे विदित होता है, कि यह सब कपोल कल्पना  है, ऐसा कहनेकी जल्दबाजी करना विवेक पूर्ण नहीं होगा । अनादिकालसे मानव जाति उपरोक्त उल्लेखित लक्षणोंका अनुभव ले रहा है, एवं उसका संदर्भ आयुर्वेदके प्राचीनतम ग्रंथोंमें मिलता है ।हमारे ऋषि-मुनियोंने उपरोक्त संदर्भ लोगोंमें डरकी निर्मिति करनेके उद्देशसे निश्चित नहीं दिये हैं वरन इस ज्ञानका लाभ लेकर, ऐसे रुग्णोंका  व्याधिमुक्त किया जासके, इस मात्र एक करुणामय हेतुसे किया है ।

सांप्रतकालमें बहुतसे ऐसे रुग्ण दिखाई देते हैं; परंतु इन तत्त्वोंको विवेचनके अभावमें आजकल कपोलकल्पनाकी संज्ञा दीये जानेके कारण, आयुर्वेद प्रणित योग्य उपचार नहीं किए जाते । आधुनिक वैद्यकशास्त्रानुसार आज अनेक रोग जन्तुओंके संसर्गसे होते हैं ऐसी मान्यता है। इस सत्यको नकारकर जंतु आदि कपोलकल्पना है, यह कहना जितना हास्यस्पद होगा, उतना ही अयोग्य, अध्ययनके अभावमें अतींद्रिय शक्तियोंके अस्तित्त्वको नकारना होगा । आयुर्वेद शास्त्रमें उपरोक्त एवं उसी प्रकार अनेक संदर्भ होते हुए तथा ये सभी लक्षण समाजमें दिखाई देते हुए, केवल अहंकार व स्वार्थके चश्में पहनकर भारतीय ज्ञानसूर्यको दुर्लक्षित करनेवाले शासनको किसकी उपमा देनी चाहिए यह समझसे बाहरे है ।

 

प्रार्थना !

शासनकी ग्रीवापर बैठे हुए नास्तिकता एवं ढोंगी पुरोगामित्वके भूतको उताकर आयुर्वेदके मूलको काटनेवाला यह जादूटोनाविरोधी कायदा निरस्त करनेकी सुबुद्धि शासनको प्राप्त हो, यही भगवान धनवंतरीके चरण कमलोंमें प्रार्थना ! – वैद्य मेघराज माधव पराडकर, आयुर्वेदीय चिकित्सक, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा. (३.१२.२०१३)
 

स्त्रोत : दैनिक सनातन प्रभात

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