मोदी सरकार ने भारतीय स्टेट बँक के इस्लामिक फंड को रोका

मुस्लिम निवेशकों को आकर्षित करने के लिए शरीया कानून के तहत इक्विटी म्यूचुअल फंड स्कीम लॉन्चिंग को टालने के भारतीय स्टेट बैंक के निर्णय पर यह चर्चा गरम हो गई है कि क्या भारत को इस्लामिक वित्तीय व्यवस्था के लिए अपने दरवाजे खोल देने चाहिए और शरीया कानून के तहत फाइनैंशल प्रॉडक्ट्स के लिए मार्केट का मार्ग प्रशस्त किया जाना चाहिए।

अंग्रेजी वेबसाइट ‘फर्स्ट पोस्ट’ की रिपोर्ट के मुताबिक, एसबीआई म्यूचुअल फंड के मैनेजिंग डायरेक्टर और सीईओ दिनेश कुमार खारा ने बताया कि यह निर्णय आरंभ में कमर्शल उद्देश्यों की पूर्ति के लिए लिया गया था। उन्होंने कहा, ‘हमें इस प्रॉडक्ट की और स्टडी करने की जरूरत है।’ लेकिन, कांग्रेस सदस्य के.रहमान खान ने बुधवार को संसद में कहा कि निर्णय राजनीतिक हस्तक्षेप के कारण लिया गया था।

इस मामले की जानकारी रखने वाले लोगों के अनुसार एसबीआई का म्यूचुअल फंड में शरीया कानून के तहत निवेश की योजना टालने का निर्णय राजनीतिक दबाव में लिया गया। उनके मुताबिक भाजपा के वरिष्ठ नेता सुब्रमण्यन स्वामी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखकर शरीया म्यूचुअल फंड प्रॉडक्ट लॉन्च करने के एसबीआई के कदम को रोकने के लिए नरेंद्र मोदी से हस्तक्षेप करने का आग्रह किया था। पत्र में स्वामी ने तर्क दिया था कि इस्लामिक फाइनैंस की अनुमति देना राजनीतिक और आर्थिक दोनों रूप से भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए खतरनाक होगा। ध्यान रहे कि स्वामी शरीया फाइनैंस सिस्टम के लम्बे समय से घोर विरोधी हैं।

इंडियन सेंटर फॉर इस्लामिक फाइनैंस के जनरल सेक्रटरी अब्दुर रकीब के अनुसार, एसबीआई के शरीया फंड को अंतिम क्षणों में रद्द कर दिया गया, जबकि इसे सेबी की मंजूरी मिल गई थी। रकीब ने बताया, ‘फंड के लॉन्च होने की तारीख से कुछ दिनों पहले दिनेश कुमार खारा ने मुझे आमंत्रित किया था और वह निवेश को लेकर बहुत ही आश्वस्त थे और मुझे इसमें समर्थन करने के लिए कहा था। लेकिन बाद में इसे अचानक रद्द कर दिया गया।

भारत में इस्लामिक बैंकिंग को अनुमति दी जाए या नहीं इस पर देश में काफी लम्बे समय से चर्चा हो रही है लेकिन स्थानीय राजनीतिज्ञों के विरोध और रेग्युलेटरी बाधाओं के कारण यह मॉडल सफल नहीं हो पाया। स्थानीय राजनीतिज्ञों का तर्क है कि इस मॉडल का उपयोग आतंकी गतिविधियों की फंडिंग के लिए किए जाने का खतरा है।

पिछले साल के मध्य में रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया (आरबीआई) ने भारत में इस्लामिक बैंकिंग के रेग्युलेशन की समीक्षा की प्रक्रिया शुरू की थी। आरबीआई ने मामले की जांच के लिए एक आंतरिक कमिटी गठित की थी। लेकिन, इस मामले में अधिक प्रगति नहीं हो सकी। आरबीआई ने तीन सदस्यी कमिटी गठित की थी जिसमें आरबीआई के वरिष्ठ अधिकारी, बैंकिंग ऑपरेशंस विभाग के डेप्युटी जनरल मैनेजर राजेश वर्मा, नॉन बैंकिंग सुपरविजन की जनरल मैनेजर अर्चना मंगलागिरी और जॉइंट लीगल अडवाइजर बिंदु वासु शामिल थीं।

२००७ में भी आरबीआई ने तत्कालीन ऐग्जिक्युटिव डायरेक्टर आनंद सिन्हा के नेतृत्व में एक वर्किंग ग्रुप को नियुक्त किया था जिसने यह कहते हुए देश में इस्लामिक बैंक को खारिज कर दिया था कि वर्तमान रेग्युलेशन में इस मॉडल की अनुमति नहीं दी जा सकती।

२०१२ में राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के तत्कालीन चेयरमैन वजाहत हबीबुल्लाह ने वित्त मंत्रालय के समक्ष इस्लामिक बैंकिंग की पैरवी की थी जिसके बाद इस मामले पर चर्चा का बाजार गर्म हो गया था। लेकिन, इस्लामिक बैंकिंग में ब्याज के शामिल नहीं होने के कारण आरबीआई के गवर्नर डी.सुब्बाराव के कार्यकाल में इसे खारिज कर दिया गया था।

दुनिया की बात करें तो इस्लामिक बैंकिंग कई देशों में प्रचलित है और स्टैंडर्ड चार्टर्ड एवं हांगकांग ऐंड शंघाई बैंकिंग कॉर्पोरेशन अपने पंरपरागत बैंकिंग ऑपरेशन के साथ इस्लामिक बैंकिंग को भी चला रहे हैं।

क्या है इस्लामिक बैंकिंग ?

परंपरागत बैंकिंग और इस्लामिक बैंकिंग में मुख्य रूप से दो अंतर है। इस्लामिक बैंकिंग के तहत ब्याज लेने या देने की अनुमति नहीं है और इसमें अल्कोहल, जुआ और पोर्नोग्राफी जैसे पाप समझे जाने वाले मैन्युफैक्चर में निवेश करने की अनुमति नहीं है। इस मॉडल के तहत जमा को स्वीकार नहीं किया जाता है सिर्फ और सिर्फ निवेश की ही अनुमति है। इस्लामिक बैंकिंग में कई वित्तीय प्रॉडक्ट्स हैं जैसे सुकूक बॉन्ड्स।

स्त्रोत : नवभारत टाइम्स

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