पौष कृष्ण ८, कलियुग वर्ष ५११५
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१. निधर्मीपनके नामपर हिंदुओंका राष्ट्रीय सनातन विरासत, सनातन धर्म तथा संस्कृतिकी हत्या की जा रही है !
भारतके हिंदुओंके लिए सर्वाधिक दुःखकी बात यह है कि उन्हें इस आधुनिक भ्रष्ट, नीच धर्मनिरपेक्षताका बलपूर्वक साक्षी बननेके लिए विवश होना पड रहा है । निधर्मीपनका इतना नीच, इतना निकृष्ट, इतना भ्रष्ट रूप देखनेके लिए विवश होना पडा रहा है । नेहरू तथा उनके सहयोगियोंने इस निधर्मीपनकी चापलूसी की । उन्होंने ही इस निधर्मीपनको अत्यंत अधम एवं अति भ्रष्ट रूप दिया । इस निधर्मी राष्ट्रके नामपर ही उन्होंने हिंदुओंका सनातन धर्म, सनातन संस्कृति, हिंदुओंका राष्ट्रीय विरासत, संस्कृत भाषा, इन सभीका गला घोंटकर उन्हें सीमापार किया । ये सब केवल निधर्मीपनके परदेके पीछे हो रहा है । कनिष्कका गला दबाकर उसकी हत्या की । साथ ही निधर्मीपनके नामपर हिदुंओंका राष्ट्रीय सनातन विरासत, सनातन धर्म, संस्कृतिकी हत्या की जा रही है । उनकी धर्मनिरपेक्षता अर्थात ‘हिंदु विरोध’ !
२. हिंदुओंको हिंदू संस्कृतिका अभ्यास करना असंभव हो, इसलिए निधर्मी शासनने संस्कृत भाषाको पूरी तरहसे चेतनाहीन सिद्ध करनेका प्रयास किया ।
भारतके हिंदुद्वेषी निधर्मी शासन संस्कृतको चेतनाहीन सिद्ध करनेके लिए सारी सत्ता तथा धनका व्यय कर रहा है । यदि भारतके निधर्मीवाद सिद्ध करने हेतु संस्कृत सीखना नहीं, तो क्या सीखना ? अरबी, चायनीज, जापानी ? शिक्षण संस्थामें हिंदुओंके ग्रंथ, रामायण, महाभारत, पुराण सीखनेके लिए पाबंदी क्यों डाली गई ? संस्कृतपर पाबंदी क्यों ? हिंदू जीवनके साथ कितना भी द्रोह करें तथा विसंगत हो क्या यह बुदि्धमानी है ? निधर्मीवादियोंको ही इस देशका अधिनियम बनानेके अधिकार क्यों प्राप्त होते हैं ? यह कितना बडा अत्याचार ! हिंदुस्थानमें यदि हमें हमारी श्रुति-स्मृति, पुराणोंका अभ्यास करना असंभव है, तो हम अपनी संस्कृतिका अभ्यास कहां करें ? हॉवर्ड, शिकागो, ऑक्सफर्ड, अथवा केंब्रिजमें ?
– गुरुदेव डॉ. काटेस्वामीजी (घनगर्जित, अप्रैल २०१०)
स्त्रोत : दैनिक सनातन प्रभात