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पाश्चात्त्य सभ्यता छोड़ यहां पाया सुख और बन गए रिचर्ड से ‘स्वामी’!

माघ कृष्ण पक्ष २, कलियुग वर्ष ५११५

रांची – आज पूरी दुनिया नहीं तो कम से कम भारत का एक औसत युवा लाइफ के हर निर्णय के लिए पश्चिम की ओर ताक रहा है। रहन सहन से लेकर करियर तक में अमेरिकन प्रभाव साफ दिखाई देता है। पर इसका मतलब यह नहीं है कि अमेरिकन या पश्चिमी देशों के लोग अपने कल्चर और सुख सुविधाओं से भरी जिंदगी से से काफी खुश हैं या संतुष्ट हैं। धर्म आध्यात्म की इसी भूख और असंतुष्टि ने आज से करीब ४४ पहले अमेरिकी शहर शिकागो के युवक को ऐसा बेचैन किया कि उसने अपने संपन्न घर की सभी सुख सुविधाओं को छोड़ भारत का रुख कर लिया। जैसे तैसे हजारों तरह की तकलीफों से जूझते हुए यहां पहुंचे। यहां आध्यात्मिक साधनाएं की और बन गए हिन्दू संत।

आज राधानाथ स्वामी का प्रचार क्षेत्र पूरी दुनिया में है। उनके हजारों शिष्यों में सैकड़ों नौजवान मेडिकल, आईआईटी, आईआईएम के स्नातक हैं, मुंबई के दर्जनों बड़े उद्योगपति हैं। हावर्ड यूनिवर्सिटी से लेकर एचएसबीसी बैंक जैसी जगहों पर इन्हें लेक्चर के लिए बुलाया जाता है।

अपने विशेष प्रवास पर रांची पहुंचे स्वामी का रिचर्ड से राधानाथ बनने का सफर बहुत ही रोमांचक है। अपनी पुस्तक 'द जर्नी होम' में उन्होंने वे सारे अनुभव लिखे हैं। किताब का हिन्दी अनुवाद 'अनोखा सफर' के नाम से प्रकाशित हुआ है जिसका रांची में भी विमोचन किया गया।

जनवरी २०१० में तत्कालीन राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल से मिलने पहुंचे अमेरिकन संत से जब उन्होंने पूछा कि उन्हें भारत की संस्कृति में ऐसा क्या लगा जो वे भारत के होकर रह गए। राधानाथ स्वामी का जवाब था कि भारत की संस्कृति एक महासागर है। जिसमें सारी दुनिया की संस्कृतियों का समावेश है। यह बात १९५० में शिकागो के एक सम्पन्न यहूदी परिवार में जन्में रिचर्ड को तब समझ में आयी जब उसने । १९ साल की उम्र में गृहत्याग कर आध्यात्मिक सफर की शुरूआत की।

अमरीका से यूरोप और यूरोप से पश्चिम एशिया का ६ महीने तक रोमांच, अवसाद और खतरों से भरा सफर करते हुए रिचर्ड पाकिस्तान की ओर से भारत में प्रवेश करने के लिए बाघा सीमा पर पहुंचा। वहां खड़े भारत के आव्रजक अधिकारी ने इस धूल-धूसरित फटेहाल अमरीकी नौजवान से कहा कि 'भारत में पहले ही बहुत भिखारी हैं, मैं तुम्हें प्रवेश नहीं दूंगा।'

कुछ घंटे बाद जब उसकी ड्यूटी बदली तो एक उम्रदराज सरदार जी ड्यूटी पर आए। उन्होंने इस नौजवान की दयनीय दशा और आद्र प्रार्थना सुनकर उसे भारत में आने दिया। इसके सके बाद कई वर्षों तक, बिना पैसे के, अयाचक भाव से देशभर में घूम-घूम कर रिचर्ड ने पूरे भारत की आध्यात्मिक परंपराओं का नजदीकी से अध्ययन किया। देश के सभी बड़े संतों से सत्संग किया और अंत में भक्तियोग का मार्ग अपना लिया और उसका नाम हुआ राधानाथ स्वामी।आज राधानाथ स्वामी का प्रचार क्षेत्र पूरा विश्व है।


उनके हजारों शिष्यों में सैकड़ों नौजवान मेडिकल, आईआईटी, आईआईएम के स्नातक हैं, मुंबई के दर्जनों बड़े उद्योगपति हैं। यह सब हजारों शिष्य चाहे गरीब हो या अमीर आपसी प्रेम और सहयोग के साथ एक वृहद परिवार के रूप में रहते हैं। कोई किसी की निंदा नहीं करता। दूसरे को अपनी सेवा, दीनता व प्रेम से जीतने का प्रयास करते हैं। ऐसा अद्भुत अनुभव कम स्थानों पर ही होता है।

रिचर्ड से राधानाथ स्वामी तक का अनोखा सफर बहुत रोमांचकारी था। जिसे अब ४० वर्ष बाद स्वामी जी ने 'द जर्नी होम' या 'अनोखा सफर' नाम से प्रकाशित अपनी पुस्तकों में लिखा है। मशहूर क्रिकेट खिलाड़ी सौरभ गांगुली का कहना है कि, 'यह पुस्तक पूरी युवा पीढ़ी के लिए उत्कृष्ट भेंट है। अशांति से भरे हमारे संसार में यह एक अमरीकी युवक द्वारा संतुष्टि की खोज की कथा है।' आज भारत का युवा पश्चिम की चमक-दमक से चकाचौंध है। डीजे, डिस्को, ड्रग्स, सेक्स व उपभोगतावाद के जाल में उलझता जा रहा है।

दूसरी तरफ रिचर्ड ने १९ वर्ष की आयु में संपन्नता के शिखर पर बैठे अमरीकी समाजाज को छोड़ा था तो वहां संपन्नता से उकताये लाखों युवा हिप्पी बन रहे थे। रिचर्ड भी बन सकता थे। पर उसे तलाश थी जीवन के ध्येय की जो उसे मिला भारत की सनातन संस्कृति में।

'अनोखा सफर' एक ऐसी सम-सामायिक पुस्तक है जिसे पढ़कर भारत के युवा, विशेषकर वे युवा जो पश्चिम से आकर्षित हैं, भारत की संस्कृति में ही अपनी कुंठाओं के हल खोज सकते हैं। ३३ पेज की यह पुस्तक इतनी सरल भाषा में लिखी गयी है कि पाठक को हर क्षण लगता है कि वह रिचर्ड के साथ इस रोमांचक यात्रा को स्वयं कर रहा है। राधानाथ स्वामी ने इस्लाम, ईसाइयत, बौद्धधर्म, तांत्रिक व औघड़ पंरपरायें, हठयोग जैसी अनेक आध्यात्मिक धाराओं का अनुभव किया।  इस अनुभव को इतनी खूबसूरती से इस पुस्तक में जड़ दिया कि बिना किसी के प्रति नकारात्मक भाव अभिव्यक्ति किये ही भारत की सनातन संस्कृति की ही श्रेष्ठता को पाठकों के लिए प्रस्तुत कर दिया।

आज से कई दशक पहले १९४६ में एक पुस्तक प्रकाशित हुई थी 'एक योगी की आत्मकथा।' इस पुस्तक ने दुनियाभर में तहलका मचा दिया था। आज दशकों बाद भी इस पुस्तक की ढेरों प्रतियां पूरे विश्व में बिकती रहती हैं। उस पुस्तक के लेखक परमहंस योगानंद एक भारतीय स्वामी थे। जिन्होंने हठयोग और ध्यान की अपनी सिद्धि को स्थापित कर पश्चिमी जगत को चमत्कृत किया था। आज दशकों बाद एक अमरीकी स्वामी ने अपनी आध्यात्मिक खोज को युवा पीढ़ी के सामने इस तरह प्रस्तुत किया है कि उसे जीवन का सही रास्ता खोजने की प्रेरणा मिल सके।

स्वामी जी ने बहुत संजीदगी, संवेदनशीलता और कलात्मक आकर्षण के साथ कृष्णभक्ति और भगवान की लीलास्थली ब्रज क्षेत्र की महिमा को भी प्रस्तुत किया है और इसे ही अपने जीवन का अंतिम पड़ाव बनाया है। यही कारण है कि उनके हजारों अनुयायी ब्रज भूमि और कृष्णभक्ति के प्रति अगाध श्रद्धा रखते हैं और इस भूमि के लिए हर तरह की सेवा करने को तत्पर रहते हैं।

अनोखी बात है कि एक अमरीकी युवा इतने कम समय में भारत के प्रबुद्ध और संपन्न लोगों को कृष्ण भक्ति व ब्रज भक्ति के प्रति आकर्षित करने में सफल रहा।

स्त्रोत : दैनिक भास्कर

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