मारते मारते मरनेकी कठोर हठ करनेवाले वीर एवं क्षात्रधर्म बतानेवाले वीरोंके घरकी स्त्रियां !

पौष कृष्ण ८ , कलियुग वर्ष ५११५


पच्चीस वर्ष आयुके सहस्रों युवा वीरोंको पानीपतके युद्धमें वीरगति प्राप्त हुई । अठारह वर्षके विश्वासराव युद्धभूमिपर वीरगति प्राप्त करते हैं । लाहौरसे लेकर दिल्लीतक तथा यमुनासे लेकर नर्मदा तक पानीपतका युद्धक्षेत्र ! देहपर अत्यधिक कठोर आघात होनेपर भी हटे नहीं । पानीपतकी युद्धभूमिका वह मराठी वीर विभूति ! उन्हें सामर्थ्य कहांसे मिला ? मारते मारते मरनेका कठोर हठ एवं क्षात्रधर्मका बल कहांसे प्राप्त हुआ ?

१. उदाहरण

१ अ. एक पतिव्रता 

वह पतिव्रता फटकारते हुए कहती है कि जयाजी शिंदेको चारों लडकियां हुइं, वैसी ही तू भी एक हुई होती, तो एक और जमाई आता । शूरताका बीडा उठाया है । कठोर व्रत लिया है । इसे संभालना धर्मशास्त्र ही है ! मरना तो अनिवार्य है ही । चाहे स्वदेशमें हो चाहे विदेशमें, मृत्युने किसीको भी नहीं छोडा अथवा मरनेपर कोई हमें संजोकर नहीं रखता । जो आया है, उसे जाना ही है; परंतु इस लोकमें कीर्ति कर परलोक साधन करना ही दुर्लभ है ! युद्धभूमिपर वीरगति प्राप्त करना स्त्री-पुरुषोंको अपने जीवनका सार्थक करनेका अवसर प्रतीत होता है । साहस कर मारते मारते मर जाएं, यह निश्चय है । मरनेसे असफलता बुरी बोचरे !

१ आ. दत्ताजी शिंदे 

रणभूमिपर घावोंसे व्याकुल होकर दत्ताजी शिंदे मृत्युशय्यापर उलटे पडे हैं । ‘बचेंगे तो और भी लडेंगे ।’ मृत्यु समक्ष दिखते हुए भी वह नजीबखानको फटकारते हैं । ‘हतो का प्राप्यसि स्वर्गं जित्वा का भोक्ष्यसे महीम्’ ।, अर्थात लडते हुए वीरगतिको प्राप्त हुआ, तो स्वर्ग मिलेगा तथा युद्धमें विजयी हुआ तो पृथ्वीका स्वामी होगा । यही क्षात्रधर्म है ! वीरवृत्ति, निर्भयता, अभिमान अर्थात दत्ताजी शिंदे ! वह अभिमानसे कहते हैं कि क्षत्रिय स्वधर्म यह है कि युद्धमें विमुख नहीं होना चाहिए । रण छोडकर भागनेसे दोनों लोकमें वंचित रहना पडता है । इधर नरकसाधन, तो उधर असफलता प्राप्त होती है जो मृत्युसे भी निरर्थक है । इसमें मरते ही स्वर्गप्राप्ति होती है, जो उत्तम है !

१ इ. गौतमाबाई

शोक करनेवाले मल्हाररावको उनकी पत्नी गौतमाबाई निश्चित रूपसे कहती हैं, ‘आपके अंतिम दिन आ गए हैं, आप साहस कर मारते मारते मरें । यह प्रलाप स्त्री जातिको करना चाहिए ! मल्हारराव कहते हैं, ‘आप चाहती हैं कि हम मरें’, तो गौतमाबाई शांतिसे उत्तर देती हैं, ‘पति रहते हुए वैधव्यकी आशा कौन करेगा ? ऐसा कोई नहीं है । किसी भी स्थितिमें हरिद्रा-कुंकुम रहे यही सबकी चाह होती है । हमारी शूरताका भाग है । हमने कठिन व्रत धारण किया है । धर्मशास्त्र कहता है कि उसे संजोए रखना चाहिए ।

१ ई. बलवंतराव मेहेंदले एवं उनकी पत्नी 

रणसंग्राममें मरनेवाले बलवंतराव मेहेंदले पत्नीको कहते हैं, ईश्वरने सफलता दी तो उत्तम, अन्यथा आपकी हमारी भेंट स्वर्गमें होगी ! वह महापतिव्रता उत्तर देती है, उत्तम है । शतवर्षमें कभी तो मरना ही है । इस संग्राममें आए, तो बहुत अच्छा हुआ । उसकी चिंता क्यों करें ? आप लौकिक कर गए, तो मैं भी नहीं रहूंगी । आपकी सहयोगी रहूंगी ।

१ उ. सती जानेवाली मां

मांकी गोदमें जाकर बच्चा कहता है कि हमें छोडकर न जाएं । आपके सहगमनके लिए जानेपर हम अन्न तथा जल किससे मांगेंगे एवं किसपर रूठेंगे ? मांने कहा, आपको ईश्वरसे अन्न जल मांगना चाहिए । ईश्वरसे रूठना चाहिए । हमें मिथ्या मायामें न फंसाएं । ऐसा कह पुत्रको अलग कर वह सहगमनके लिए सिद्ध हो गइं । 

२. पानीपतके युद्धके ऐन घमासान लडाईमें पराक्रम 

अ. चाहे कितनी भी आपत्तियां आइं, तो भी सदाशिवराव भाऊ कल्पान्तके आदित्यके समान धधकते हैं । 
आ. सिरच्छेद हुआ, तो भी धड नाचता है ऐसे बहुत पराक्रम हैं !
इ. स्त्रियां पीठपर घाव सहन करनेवाले पुरुषोंका मुख भी नहीं देखतीं । ऐसी स्त्रियोंका साहस कबतक लिखें ?
हम पुनः इस ज्वलंत सनातन परंपराको संजीवनी देंगे ! हमें मृत्युपर विजय पाना सिखाया गया है । देखते देखते हम परिस्थितिमें परिवर्तन करेंगे । निरपेक्षतावादियोंके नाम भी शेष नहीं रखेंगे ।

३. धर्मकी अपरंपार निष्ठामें पातिव्रत्य धर्मका पालन करनेवाली एवं धर्मके लिए प्राणार्पण करेनेके लिए सिद्ध स्त्रियोंके ज्वलंत सामर्थ्यका बीज होता है ।

हमें युद्धके घमासानमें मिलनेवाली स्त्रियां; स्त्रीधर्म, पातिव्रत्य धर्मका पालन करनेवाली तथा पति एवं परिवारको विशेष रूपसे सिखानेवाली धर्मके लिए प्राणार्पण करनेके लिए सिद्ध अविस्मरणीय स्त्रियोंके ज्वलंत सामथ्र्यका बीज किसमें है ? निश्चितरूपसे श्रुति-स्मृति, पुराणोक्त ऐसे सनातन धर्मकी अपरंपार निष्ठामें है ।

– गुरुदेव डॉ. काटेस्वामीजी (घनगर्जित, नवंबर २०१०)

स्त्रोत : दैनिक सनातन प्रभात

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