पौष शुक्ल पक्ष ५, कलियुग वर्ष ५११५
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चेन्नई – पांडव सत्त्वशील थे तथा कौरव मात्र दुर्जन थे ऐसा महर्र्षि व्यासकृत महाभारतमें कहा गया है । ऐसा होते हुए भी हिंदुओंकी सहिष्णुता एवं अनास्थाका अपलाभ उठाकर कोई भी उठता है तथा स्वयंको सभी प्राचीन ग्रंथरचनाकारोंसे अधिक बुदि्धवादी समझकर धर्मग्रंथोंकी विडंबना करता है । हिंदुओंके लिए यह कोई नई बात नहीं रही । ऐसी ही घटना आनंद निलकंठन् नामक लेखकद्वारा लिखित अंग्रेजी पुस्तक ‘अजय’में हुई है । इसी लेखकने इससे पूर्व असुर नामक पुस्तक लिखी है । (हिंदुओंको चाहिए कि ऐसे विकृत मानसिकताके लेखकोंको वैधानिक मार्गसे फटकारना चाहिए तथा सरकारसे उनकी पुस्तकोंपर प्रतिबंध लगानेकी मांग करनी चाहिए ! – संपादक, दैनिक सनातन प्रभात )
निलकंठन्ने कहा है कि उन्हें केरल राज्यमें ‘मलानदा’ नामक एक मंदिर मिला । कहा जाता है कि यह मंदिर दुर्योधनका है, जिससे निलकंठन्को उपर्युक्त पुस्तक लिखनेकी प्रेरणा मिली । (भारतमें एक स्थानपर रावण एवं मंदोदरीका भी मंदिर है; इसलिए किसीने रावणको नायक एवं श्रीरामको खलनायक संबोधकर नई पुस्तक नहीं लिखी । – संपादक, दैनिक सनातन प्रभात )
इस पुस्तकमें पांडवोंकी अश्लाघ्य भाषामें आलोचना की गई है । पांडवोंके जन्मदाता कौन थे, पता नहीं । उन्होंने एक ही पत्नी बांटकर ली । उसे जुवेमें हराया, इस प्रकारकी आलोचना की गई है । परंतु दुर्योधनके स्थानपर सुयोधन, दु:शासनके स्थानपर सुशासन इत्यादि संबोधकर कौरवोंका सम्मान किया गया है । यह पुस्तक अनेक विषैले शब्दोंसे भरी हुई है ।
स्त्रोत : दैनिक सनातन प्रभात