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जानिए भयंकर तबाही के बाद भी कैसे बच गए केदारनाथ तथा पशुपतीनाथ के प्राचीन मंदिर !

२५ अप्रैल २०१५ को भारत के करीबी देश नेपाल में भयंकर भूकंप आया, इससे काठमांडू और आसपास के क्षेत्रों को काफी नुकसान पहुंचा है। भूकंप के कारण जहां एक ओर बड़ी-बड़ी और पुरानी इमारतें गिर गईं। वहीं, दूसरी ओर इस तबाही के बाद भी यहां स्थित प्राचीन पशुपतिनाथ मंदिर को कोई बड़ी क्षति नहीं हुई है। इससे पूर्व जून २०१३ में भारत के केदारनाथ धाम में भी जल सैलाब आया था, इस तबाही से भी पूरा क्षेत्र बर्बाद हो गया था, लेकिन केदारनाथ मंदिर बच गया। दोनों ही मंदिर शिवजी के हैं और दोनों त्रासदियों के बाद शिवजी के ये प्राचीन मंदिर आज भी सुरक्षित हैं। ऐसे में प्रश्न यही उठता है कि इन त्रासदियों के बाद भी ये मंदिर सुरक्षित कैसे बच गए… यहां जानिए इस चमत्कार के पीछे कौन-कौन से कारण हो सकते हैं…

वैदिक पद्धति से किया गया था शिव मंदिरों का निर्माण

प्राचीन समय में मंदिरों का निर्माण ऐसे स्थानों पर किया जाता था, जहां पृथ्वी की चुंबकीय तरंगे श्रेष्ठ होती थीं। साथ ही, मंदिर के स्थान पर प्राकृतिक आपदा आने की संभावनाओं पर भी विचार किया जाता था। यदि प्राकृतिक आपदा आती भी है तो उसका असर सबसे कम जिस स्थान पर होने की संभावना होती थी, वहीं मंदिर का निर्माण किया जाता था। प्राचीन शिव मंदिरों में शिवलिंग ऐसे स्थान पर स्थापित किया जाता था, जहां चुंबकीय तरंगों का नाभिकीय क्षेत्र विद्यमान हो। शिवलिंग स्थापना के समय मंदिर का गुंबद और शिवलिंग एक ही सीध में स्थापित किए जाते थे। पुरानी मान्यताओं के अनुसार यह ज्ञान शिवजी के द्वारा ही दिया गया है। जिसे भूतत्त्व विज्ञान के नाम से भी जाना जाता है।

वास्तु के नियमों का रखा जाता था ध्यान

मंदिर का निर्माण करते समय वास्तु के नियमों का भी ध्यान रखा जाता था। वास्तु में सभी प्रकार की आपदाओं और दोषों से बचने के लिए नियम बताए गए हैं। इन नियमों का पालन करने पर इमारत सभी आपदाओं से सुरक्षित रहती है। वास्तु के अनुसार पशुपतिनाथ गर्भगृह में एक मीटर ऊंचा चारमुखी शिवलिंग स्थित है। हर एक मुखाकृति के दाएं हाथ में रुद्राक्ष की माला व बाएं हाथ में कमंडल स्थित है। शिवलिंग के चारों मुखों के अलग-अलग गुण हैं। दक्षिण मुख को अघोर, पूर्व मुख को तत्पुरुष, उत्तर मुख को अर्धनारीश्वर या वामदेव और पश्चिम दिशा वाले मुख को साध्योजटा कहा जाता है। इस शिवलिंग के ऊपरी भाग निराकार मुख को ईशान कहते हैं।

केदारनाथ और पशुपतिनाथ का संबंध

स्कंदपुराण में बताया गया है कि केदारनाथ और पशुपतिनाथ मंदिर, एक-दूसरे से मुख और पुच्छ से जुड़े हुए हैं। इन दोनों मंदिरों के निर्माण में वास्तु ज्ञान का उपयोग किया गया है। सभी शिव मंदिरों में शिवलिंग जितना भूस्थल से ऊपर होता है, उतना ही या उससे अधिक भूस्थल के नीचे भी स्थित होता है। यहां विज्ञान के एक सिद्धांत उपयोग किया जाता है, जिसे सेंटर ऑफ ग्रैविटी यानी गुरत्वाकर्षण केंद्र कहा जाता है। विज्ञान का यह सिद्धांत वास्तु शास्त्र में दिया गया है।

कारीगर भी होते थे वास्तु और ज्योतिष के जानकार

वास्तु की प्रामाणिक किताब विश्वकर्मा प्रकाश में उल्लेख है कि भवनों का निर्माण करने वाले प्रमुख कारीगरों को वास्तु, ज्योतिष आदि विद्याओं का जानकार होना चाहिए। जिससे वे लंबी अवधि तक टिके रहने वाले भवन का निर्माण कर सकते हैं। केदारनाथ और पशुपतिनाथ मंदिर सहित अन्य मंदिरों का निर्माण करने वाले कारीगर भी वास्तु व मुहूर्त शास्त्र के जानकार होते थे, जिन्होंने कलियुग तक की परिस्थितियों को ध्यान में रखकर इन मंदिरों का निर्माण किया है।

मंत्रों की शक्तियां भी करती है बचाव

मंदिरों में निरंतर वैदिक मंत्रों का उच्चारण हो रहता है। जिससे वहां एक बहुत सशक्त सकारात्मक ऊर्जा का घेरा तैयार हो जाता है। मंत्रों के स्वर, आरोह, अवरोह ऊर्जा को बनाए रखते हैं। इससे मंदिर और उसके आसपास नकारात्मकता टिक नहीं पाती है। हम मंदिर में कितने ही विचलित मन और नकारात्मक विचारों के साथ प्रवेश करें, मंदिर में जाते ही हमारे भीतर की सारी नकारात्मकता समाप्त हो जाती है। इसी तरह इन मंदिरों के आसपास विनाशकारी शक्तियां काम नहीं कर पाती हैं। मंत्रों और शंख, घंटियां आदि की मंगल ध्वनियों से मंदिर परिसर एक दिव्य ऊर्जा से घिरे रहते हैं।

स्त्रोत : दैनिक भास्कर

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