माघ कृष्ण पक्ष १, कलियुग वर्ष ५११५
१९ जनवरी १९९० – ये वही काली तिथि है जब लाखों कश्मीरी हिंदुओं को सदैव के लिए अपनी धरती, अपना घर छोड कर अपने ही देश में शरणार्थी होना पडा । वे आज भी शरणार्थी हैं । उन्हें वहां से भागने के लिए बाध्य करने वाले भी कहने को भारत के ही नागरिक थे, और आज भी हैं । उन कश्मीरी इस्लामिक आतंकवादियों को वोट डालने का अधिकार भी है, पर इन हिंदु शरणार्थियों को वो भी नहीं !
वर्ष १९९० के आते आते फारूख अब्दुल्ला की सरकार आत्म-समर्पण कर चुकी थी । हिजबुल मुजाहिद्दीन ने ४ जनवरी १९९० को प्रेस नोट जारी किया, जिसे कश्मीर के उर्दू समाचारपत्रों `आफताब’ और `अल सफा’ ने छापा । प्रेस नोट में हिंदुओं को कश्मीर छोड कर जाने का आदेश दिया गया था । कश्मीरी हिंदुओं की खुले आम हत्याएं आरंभ हो गयी थीं । कश्मीर की मस्जिदों के ध्वनि प्रक्षेपक जो अब तक केवल `अल्लाह-ओ-अकबर’ के स्वर छेडते थे, अब भारत की ही धरती पर हिंदुओं को चीख चीख कहने लगे कि, ‘कश्मीर छोड कर चले जाओ और अपनी बहू बेटियां हमारे लिए छोड जाओ ! `कश्मीर में रहना है तो अल्लाह-अकबर कहना है’, `असि गाची पाकिस्तान, बताओ रोअस ते बतानेव सन’ (हमें पाकिस्तान चाहिए, हिंदु स्त्रियों के साथ, किंतु पुरुष नहीं’), ये नारे मस्जिदों से लगाये जाने वाले कुछ नारों में से थे ।
दीवारों पर पोस्टर लगे हुए थे कि कश्मीर में सभी इस्लामी वेशभूषा पहनें, सिनेमा पर भी प्रतिबन्ध लगा दिया गया । कश्मीरी हिंदुओं की दुकानें, घर और व्यापारिक प्रतिष्ठान चिह्नित कर दिए गए । यहां तक कि लोगों की घडियों का समय भी भारतीय समय से बदल कर पाकिस्तानी समय पर करनेके लिए उन्हें बाध्य किया गया । २४ घंटे में कश्मीर छोड दो या फिर मारे जाओ – कश्मीरमें `काफिरों का कत्ल करो’ का सन्देश गूंज रहा था । इस्लामिक दमन का एक वीभत्स चेहरा जिसे भारत सदियों तक झेलने के बाद भी मिल-जुल कर रहने के लिए भूल चुका था, वह एक बार पुन: अपने सामने था !
आज कश्मीर घाटी में हिंदु नहीं हैं । जम्मू और दिल्ली में आज भी उनके शरणार्थी शिविर हैं । २२ साल से वे वहां जीने को बाध्य हैं । कश्मीरी पंडितों की संख्या ३ से ७ लाख के लगभग मानी जाती है, जो भागने पर प्रेरित हुए । एक पूरी पीढी नष्ट हो गयी । कभी धनवान रहे ये हिंदु आज सामान्य आवश्यकताओं के लिए भी पराश्रित हो गए हैं । उनके मन में आज भी उस दिन की प्रतीक्षा है जब वे अपनी धरती पर वापस जा पाएंगे । उन्हें भगाने वाले गिलानी जैसे लोग आज भी जब चाहे दिल्ली आके कश्मीर पर भाषण देकर जाते हैं और उनके साथ अरुंधती रॉय जैसे भारत के तथाकथित सेकुलर बुद्धिजीवी शान से बैठते हैं ।
कश्यप ऋषि की धरती, भगवान शंकर की भूमि कश्मीर जहां कभी पांडवों की २८ पीढियों ने राज्य किया था, वो कश्मीर जिसे आज भी भारत मां का मुकुट कहा जाता है, वहां भारत का ध्वज लेकर जाने पर सांसदों को पुलिस पकड लेती है और आम लोगों पर डंडे बरसाती है । ५०० साल पूर्व तक भी यही कश्मीर अपनी शिक्षा के लिए जाना जाता था । औरंगजेब का बड़ा भाई दारा शिकोह कश्मीर विश्वविद्यालय में संस्कृत पढने गया था । किंतु कुछ समय पश्चात उसे औरंगजेब ने इस्लाम से निष्कासित कर भरे दरबार में उसका क़त्ल कर दिया था । भारतीय संस्कृति के अभिन्न अंग और प्रतिनिधि रहे कश्मीर को आज अपना कहने में भी सेना की सहायता लेनी पड़ती है । ‘हिंदु घटा तो भारत बंटा’ के `तर्क’ की कोई काट उपलब्ध नहीं है ! कश्मीर उसी का एक उदाहरण मात्र है ।
मुस्लिम वोटों की भूखी तथाकथित सेकुलर पार्टियों और हिंदु संगठनों को पानी पी पी कर कोसने वाले मिशनरी स्कूलों से निकले अंग्रेजीके पत्रकारों और समाचार चैनलों को उनकी याद भी नहीं आती ! गुजरात दंगों में मरे साढे सात सौ मुस्लिमोंके लिए जीनोसाईड जैसे शब्दों का प्रयोग करने वाले सेकुलर चिंतकों को अल्लाह के नाम पर कत्ल किए गए दसों सहस्र कश्मीरी हिंदुओं का ध्यान स्वप्न में भी नहीं आता ! सरकार कहती है कि कश्मीरी हिंदु `स्वेच्छा से’ कश्मीर छोड कर भागे । इस घटना को जनस्मृति से विस्मृत होने देने का षडयंत्र भी रचा गया है । आज की पीढी में कितने लोग उन विस्थापितों के दुःख को जानते हैं जो आज भी विस्थापित हैं । भोगने वाले भोग रहे हैं । जो जानते हैं, दुःख से उनकी छाती फटती है, और याद करके आंखें आंसुओं के समंदर में डूब जाती हैं और सर लज्जा से झुक जाता है । रामायण की देवी सीता को शरण देने वाले भारत की धरती से उसके अपने पुत्रों को भागना पडा ! कवि हरि ओम पवार ने इस दशा का वर्णन करते हुए जो लिखा, वही प्रत्येक जानकार की मनोदशा का प्रतिबिम्ब है – `मन करता है फूल चढा दूं लोकतंत्र की अर्थी पर, भारत के बेटे शरणार्थी हो गए अपनी ही धरती पर’ !
स्त्रोत : IBTL