एक बूढ़े आदमी हाथ में पेंसिल लेकर यूंही पूरे घर में चक्कर काट रहे हैं। कभी अख़बार, कभी कॉपी, कभी दीवार, कभी घर की रेलिंग, जहां भी उनका मन करता, वहां कुछ लिखते, कुछ बुदबुदाते हुए।
घर वाले उन्हें देखते रहते हैं, कभी आंखों में आंसू तो कभी चेहरे पर मुस्कराहट ओढ़े।
यह ७० साल का ‘पगला सा’ आदमी अपने जवानी में ‘वैज्ञानिक जी’ के नाम से मशहूर था। मिलिए महान गणितज्ञ वशिष्ठ नारायण सिंह से।
किताब, कॉपी, पेंसिल
तकरीबन ४० साल से मानसिक बीमारी सिज़ोफ्रेनिया से पीड़ित वशिष्ठ नारायण सिंह पटना के एक अपार्टमेंट में गुमनामी का जीवन बिता रहे हैं। अब भी किताब, कॉपी और एक पेंसिल उनकी सबसे अच्छी दोस्त है।
पटना में उनके साथ रह रहे भाई अयोध्या सिंह बताते है, “अमरीका से वह अपने साथ १० बक्से किताबें लाए थे, जिन्हें वह आज भी पढ़ते हैं। बाकी किसी छोटे बच्चे की तरह ही उनके लिए तीन-चार दिन में एक बार कॉपी, पेंसिल लानी पड़ती है।”
वशिष्ठ नारायण सिंह ने आंइस्टीन के सापेक्ष सिद्धांत को चुनौती दी थी। उनके बारे में मशहूर है कि नासा में अपोलो की लांचिंग से पहले जब 31 कंप्यूटर कुछ समय के लिए बंद हो गए तो कंप्यूटर ठीक होने पर उनका और कंप्यूटर्स का कैलकुलेशन एक था।
पटना साइंस कॉलेज में बतौर छात्र ग़लत पढ़ाने पर वह अपने गणित के अध्यापक को टोक देते थे। कॉलेज के प्रिंसिपल को जब पता चला तो उनकी अलग से परीक्षा ली गई जिसमें उन्होंने सारे अकादमिक रिकार्ड तोड़ दिए।
पांच भाई-बहनों के परिवार में आर्थिक तंगी हमेशा डेरा जमाए रहती थी। लेकिन इससे उनकी प्रतिभा पर ग्रहण नहीं लगा।
प्रतिभा की पहचान
वशिष्ठ नारायण सिंह जब पटना साइंस क़ॉलेज में पढ़ते थे तभी कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जॉन कैली की नज़र उन पर पड़ी। कैली ने उनकी प्रतिभा को पहचाना और 1965 में वशिष्ठ नारायण अमरीका चले गए।
साल १९६९ में उन्होंने कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी से पीएचडी की और वॉशिंगटन विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर बन गए। नासा में भी काम किया लेकिन मन नहीं लगा और 1971 में भारत लौट आए।
पहले आईआईटी कानपुर, फिर आईआईटी बंबई, और फिर आईएसआई कोलकाता में नौकरी की।
इस बीच १९७३ में उनकी शादी वंदना रानी सिंह से हो गई। घरवाले बताते हैं कि यही वह वक्त था जब वशिष्ठ जी के असामान्य व्यवहार के बारे में लोगों को पता चला।
उनकी भाभी प्रभावती बताती हैं, “छोटी-छोटी बातों पर बहुत ग़ुस्सा हो जाना, पूरा घर सर पर उठा लेना, कमरा बंद करके दिन-दिन भर पढ़ते रहना, रात भर जागना उनके व्यवहार में शामिल था। वह कुछ दवाइयां भी खाते थे लेकिन वे किस बीमीरी की थीं, इस सवाल को टाल दिया करते।”
बीमारी और सदमा
इस असामान्य व्यवहार से वंदना भी जल्द परेशान हो गईं और तलाक़ ले लिया। यह वशिष्ठ नारायण के लिए बड़ा झटका था।`तक़रीबन यही वक्त था जब वह आईएसआई कोलकाता में अपने सहयोगियों के बर्ताव से भी परेशान थे।
भाई अयोध्या सिंह कहते हैं, “भइया (वशिष्ठ जी) बताते थे कि कई प्रोफ़ेसर्स ने उनके शोध को अपने नाम से छपवा लिया, और यह बात उनको बहुत परेशान करती थी। “
साल १९७४ में उन्हें पहला दौरा पड़ा, जिसके बाद शुरू हुआ उनका इलाज। जब बात नहीं बनी तो १९७६ में उन्हें रांची में भर्ती कराया गया।
घरवालों के मुताबिक़ इलाज अगर ठीक से चलता तो उनके ठीक होने की संभावना थी। लेकिन परिवार ग़रीब था और सरकार की तरफ से मदद कम।
१९८७ में वशिष्ठ नारायण अपने गांव लौट आए। लेकिन ८९ में अचानक ग़ायब हो गए। साल 1993 में वह बेहद दयनीय हालत में डोरीगंज, सारण में पाए गए।
‘रद्दी हो जाएगा सब’![](https://ichef.bbci.co.uk/news/ws/304/amz/worldservice/live/assets/images/2015/05/05/150505161129_vashishtha_narayan_singh_telegraph_1993_issue_281x351_seetutiwari.jpg)
आर्मी से सेवानिवृत्त डॉ वशिष्ठ के भाई अयोध्या सिंह बताते हैं, ” उस वक्त तत्कालीन रक्षा मंत्री के हस्तक्षेप के बाद मेरा बेंगलुरु तबादला किया गया जहां भइया का इलाज हुआ। लेकिन फिर मेरा तबादला कर दिया गया और इलाज नहीं हो सका। तब से अब तक वह घर पर हैं।”
डॉ वशिष्ठ का परिवार उनके इलाज को लेकर अब नाउम्मीद हो चुका है। घर में किताबों से भरे बक्से, दीवारों पर वशिष्ठ बाबू की लिखी हुई बातें, उनकी लिखी कॉपियां अब उनको डराती हैं। डर इस बात का कि क्या वशिष्ठ बाबू के बाद ये सब रद्दी की तरह बिक जाएगा।
जैसी कि उनकी भाभी प्रभावती कहती भी हैं, “हिंदुस्तान में मिनिस्टर का कुत्ता बीमार पड़ जाए तो डॉक्टरों की लाइन लग जाती है। लेकिन अब हमें इनके इलाज की नहीं किताबों की चिंता है। बाक़ी तो यह पागल खुद नहीं बने, समाज ने इन्हें पागल बना दिया।”
स्त्रोत : बी बी सी