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हर ४१ साल बाद यहां आते हैं हनुमानजी…

श्रीराम ! सात महामानव पिछले कई हजार वर्षों से आज भी जीवित हैं उनमें से ही एक है श्री हनुमानजी। हनुमानजी इस कलयुग के अंत तक अपने शरीर में ही रहेंगे। वे आज भी धरती पर विचरण करते हैं। जब कल्कि रूप में भगवान विष्णु अवतार लेंगे तब हनुमान, परशुराम, अश्वत्थामा, कृपाचार्य, विश्वामित्र, विभीषण और राजा बलि सार्वजनिक रूप से प्रकट हो जाएंगे।

उक्त सातों महामानवों ने समय-समय पर अपने धरती पर होने का सबूत दिया है। एक ओर जहां अश्वत्थामा के कुछ जगह पर आने और उन्हें देखे जाने की चर्चा है तो कुछ जगह पर हनुमानजी भी कुछ लोगों को नजर आए हैं। इसी तरह परशुराम और विभीषण को भी देखे जाना का लोग दावा करते हैं।

ताजा मामले में एक वेबसाइट ने दावा किया है कि एक ऐसी जगह है जहां हनुमानजी प्रत्येक ४१ वर्ष बाद आते हैं और कुछ दिनों तक वहां रहने के बाद वापस चले जाते हैं। सवाल यह उठता है कि कहां चले जाते हैं? प्रत्येक ४१ वर्ष बाद जहां आते हैं उसको बताने से पहले जानिए कि आखिर कहां चले जाते हैं हनुमानजी…

प्रकट होकर यहां चले जाते हैं हनुमान?

हनुमानजी कलियुग में गंधमादन पर्वत पर निवास करते हैं, ऐसा श्रीमद् भागवत में वर्णन आता है…उल्लेखनीय है कि अपने अज्ञातवास के समय हिमवंत पार करके पांडव गंधमादन के पास पहुंचे थे। एक बार भीम सहस्रदल कमल लेने के लिए गंधमादन पर्वत के वन में पहुंच गए थे, जहां उन्होंने हनुमान को लेटे देखा और फिर हनुमान ने भीम का घमंड चूर कर दिया था।

”यत्र-यत्र रघुनाथ कीर्तन तत्र कृत मस्तकान्जलि।
वाष्प वारि परिपूर्ण लोचनं मारुतिं नमत राक्षसान्तक॥”

अर्थात: कलियुग में जहां-जहां भगवान श्रीराम की कथा-कीर्तन इत्यादि होते हैं, वहां हनुमानजी गुप्त रूप से विराजमान रहते हैं। सीताजी के वचनों के अनुसार- अजर-अमर गुन निधि सुत होऊ।। करहु बहुत रघुनायक छोऊ॥

गंधमादन पर्वत क्षेत्र और वन

गंधमादन पर्वत का उल्लेख कई पौराणिक हिन्दू धर्मग्रंथों में हुआ है। महाभारत की पुरा-कथाओं में भी गंधमादन पर्वत का वर्णन प्रमुखता से आता है। हिन्दू मान्यताओं के अनुसार माना जाता है कि यहां के विशालकाय पर्वतमाला और वन क्षेत्र में देवता रमण करते हैं। पर्वतों में श्रेष्ठ इस पर्वत पर कश्यप ऋषि ने भी तपस्या की थी। गंधमादन पर्वत के शिखर पर किसी भी वाहन से नहीं पहुंचा जा सकता। गंधमादन में ऋषि, सिद्ध, चारण, विद्याधर, देवता, गंधर्व, अप्सराएं और किन्नर निवास करते हैं। वे सब यहां निर्भीक विचरण करते हैं।

वर्तमान में कहां है गंधमादन पर्वत?

इसी नाम से एक और पर्वत रामेश्वरम के पास भी स्थित है, जहां से हनुमानजी ने समुद्र पार करने के लिए छलांग लगाई थी, लेकिन हम उस पर्वत की नहीं बात कर रहे हैं। हम बात कर रहे हैं हिमालय के कैलाश पर्वत के उत्तर में (दक्षिण में केदार पर्वत है) स्थित गंधमादन पर्वत की। यह पर्वत कुबेर के राज्यक्षेत्र में था। सुमेरू पर्वत की चारों दिशाओं में स्थित गजदंत पर्वतों में से एक को उस काल में गंधमादन पर्वत कहा जाता था। आज यह क्षेत्र तिब्बत के इलाके में है।

पुराणों के अनुसार जम्बूद्वीप के इलावृत्त खंड और भद्राश्व खंड के बीच में गंधमादन पर्वत कहा गया है, जो अपने सुगंधित वनों के लिए प्रसिद्ध था।

कैसे पहुंचे गंधमादन

पुराणों के अनुसार जम्बूद्वीप के इलावृत्त खंड और भद्राश्व खंड के बीच में गंधमादन पर्वत कहा गया है, जो अपने सुगंधित वनों के लिए प्रसिद्ध था। इस क्षेत्र में दो रास्तों से जाया जा सकता है। पहला नेपाल के रास्ते मानसरोवर से आगे और दूसरा भूटान की पहाड़ियों से आगे और तीसरा अरुणाचल के रास्ते चीन होते हुए। संभवत महाभारत काल में अर्जुन ने असम के एक तीर्थ में जब हनुमानजी से भेंट की थी, तो हनुमानजी भूटान या अरुणाचल के रास्ते ही असम तीर्थ में आए होंगे। गौरतलब है कि एक गंधमादन पर्वत उड़िसा में भी बताया जाता है लेकिन हम उस पर्वत की बात नहीं कर रहे हैं।

मातंग आदिवासी

सेतु एशिया नामक एक वेबसाइट ने दावा किया है कि श्रीलंका के जंगलों में एक आदिवासी समूह से हनुमानजी प्रत्येक ४१ साल बाद मिलने आते हैं।

सेतु के शोधानुसार श्रीलंका के जंगलों में एक ऐसा कबीलाई समूह रहता है जोकि पूर्णत: बाहरी समाज से कटा हुआ है। उनका रहन-सहन और पहनावा भी अलग है। उनकी भाषा भी प्रचलित भाषा से अलग है।

सेतु एशिया नाम इस आध्यात्मिक संगठन का केंद्र कोलंबों में है जबकि इसका साधना केंद्र पिदुरुथालागाला पर्वत की तलहटी में स्थित एक छोटे से गांव नुवारा में है। इस संगठन का उद्देश्य मानव जाति को फिर से हनुमानजी से जोड़ना है।

सेतु नामक इस आध्यात्मिक संगठन का दावा है कि इस बार २७ मई २०१४ हनुमानजी ने इन आदिवासी समूह के साथ अंतिम दिन‍ बिताया था। इसके बाद अब २०५५ में फिर से मिलने आएंगे हनुमानजी।

सेतु संगठन अनुसार इस कबीलाई या आदिवासी समूह को मातंग लोगों का समाज कहा जाता है। उल्लेखनीय है कि कर्नाटक में पंपा सरोवर के पास मातंग ऋषि का आश्रम है जहां हनुमानजी का जन्म हुआ था। इस समूह का कहीं न कहीं यहां से संबंध हो सकता है।

श्रीलंका के पिदुरु पर्वत के जंगलों में रहने वाले मातंग कबीले के लोग संख्या में बहुत कम हैं और श्रीलंका के अन्य कबीलों से काफी अलग हैं। सेतु संगठन ने उनको और अच्छी तरह से जानने के लिए जंगली जीवन शैली अपनाई और इनसे संपर्क साधना शुरू किया। संपर्क साधने के बाद उन समूह से उन्हें जो जानकारी मिली उसे जानकर वे हैरान रह गए।

‘हनु पुस्तिका’ में सब कुछ लिखा है

अध्ययनकर्ताओं अनुसार मातंगों के हनुमानजी के साथ विचित्र संबंध हैं जिसके बारे में पिछले साल ही पता चला। फिर इनकी विचित्र गतिविधियों पर गौर किया गया, तो पता चला कि यह सिलसिला रामायण काल से ही चल रहा है।

इन मातंगों की यह गतिविधियां प्रत्येक ४१ साल बाद ही सक्रिय होती है। मातंगों अनुसार हनुमानजी ने उनको वचन दिया था कि मैं प्रत्येक ४१ वर्ष में तुमसे मिलने आऊंगा और आत्मज्ञान दूंगा। अपने वचन के अनुसार उन्हें हर ४१ साल बाद आत्मज्ञान देकर आत्म शुद्धि करने हनुमानजी आते हैं।

सेतु अनुसार जब हनुमानजी उनके पास ४१ साल बाद रहने आते हैं, तो उनके द्वारा उस प्रवास के दौरान किए गए हर कार्य और उनके द्वारा बोले गए प्रत्येक शब्द का एक-एक मिनट का विवरण इन आदिवासियों के मुखिया बाबा मातंग अपनी ‘हनु पुस्तिका’ में नोट करते हैं। २०१४ के प्रवास के दौरान हनुमानजी द्वारा जंगल वासियों के साथ की गई सभी लीलाओं का विवरण भी इसी पुस्तिका में नोट किया गया है। इस नोट को जानने के लिए इस वेबसाइट पर जा सकते हैं…www.setu.asia/

सेतु ने दावा किया है कि हमारे संत पिदुरु पर्वत की तलहटी में स्थित अपने आश्रम में इस पुस्तिका तो समझकर इसका आधुनिक भाषाओँ  में अनुवाद करने में जुटे हुए हैं ताकि हनुमानजी के चिरंजीवी होने के रहस्य जाना जा सके, लेकिन इन आदिवासियों की भाषा पेचीदा और हनुमानजी की लीलाएं उससे भी पेचीदा होने के कारण इस पुस्तिका को समझने में काफी समय लग रहा है।

कहां है यह पर्वत

यह पर्वत श्रीलंका के बीचोबीच स्थित है जो श्रीलंका के नुवारा एलिया शहर में स्थित है। पर्वतों की इस श्रृंखला के आसपास घंने जंगल है। इन जंगलों में आदिवासियों के कई समूह रहते हैं।

‘नुवारा एलिया’ पर्वत श्रृंखला

वाल्मीकिय-रामायण अनुसार श्रीलंका के मध्य में रावण का महल था। ‘नुवारा एलिया’ पहाड़ियों से लगभग 90 किलोमीटर दूर बांद्रवेला की तरफ मध्य लंका की ऊंची पहाड़ियों के बीचोबीच सुरंगों तथा गुफाओं के भंवरजाल मिलते हैं। यहां ऐसे कई पुरातात्विक अवशेष मिलते हैं जिनकी कार्बन डेटिंग से इनका काल निकाला गया है।

श्रीलंका में नुआरा एलिया पहाड़ियों के आसपास स्थित रावण फॉल, रावण गुफाएं, अशोक वाटिका, खंडहर हो चुके विभीषण के महल आदि की पुरातात्विक जांच से इनके रामायण काल के होने की पुष्टि होती है।

मातंगों ने की थी हनुमानज की सेवा

कहते हैं कि जब प्रभु श्रीरामजी ने अपना मानव जीवन पूरा करके जल समाधि ले ली थी, तब हनुमानजी पुनः अयोध्या छोड़कर जंगलों में रहने चले गए थे। किष्किंधा आदि जगह होते हुए वे लंका के जंगलों में भ्रमण हेतु गए। उस वक्त वहां विभीषण का राज था। विभीषण को भी चिरंजीवी होने का वरदान प्राप्त था।

हनुमानजी ने कुछ दिन श्रीलंका के जंगलों में गुजारे जहां वे प्रभु श्रीराम का ध्यान किया करते थे। उस दौरान पिदुरु पर्वत में रहने वाले कुछ मातंग आदिवासियों ने उनकी खूब सेवा की। उनकी सेवा से प्रसंन्न होकर हनुमानजी ने उनको वचन दिया कि प्रत्येक ४१ साल बाद में तुमसे मिलने आऊंगा। यही कारण है कि हनुमानजी आज भी इस वचन का पालन करते हैं।

रहस्यमय मंत्र

सेतु वेबसाइट का दावा है कि मातंगों के पास एक ऐसा रहस्यमय मं‍त्र है जिसका जाप करने से हनुमानजी सूक्ष्म रूप में प्रकट हो जाते हैं। वे आज भी जीवित हैं और हिमालय के जंगलों में रहते हैं। जंगलों से निकलकर वे भक्तों की सहायता करने मानव समाज में आते हैं, लेकिन किसी को दिखाई नहीं देते।

मातंगों अनुसार हनुमानजी को देखने के लिए आत्मा का शुद्ध होना जरूरी है। निर्मल चित्त के लोग ही उनको देख सकते हैं। मंत्र जप का असर तभी होता है जबकि भक्त में हनुमानजी के प्रति दृढ़ श्रद्धा हो और उसका हनुमानजी से आत्मिक संबंध हो।

सेतु का दावा है कि जिस जगह पर यह मंत्र जपा जाता है उस जगह के ९८० मीटर के दायरे में कोई भी ऐसा मनुष्य उपस्थित न हो जो आत्मिक रूप से हनुमानजी से जुड़ा न हो। अर्थात उसका हनुमानजी के साथ आत्मा का संबंध होना चाहिए।

मंत्र : कालतंतु कारेचरन्ति एनर मरिष्णु , निर्मुक्तेर कालेत्वम अमरिष्णु।

यह मंत्र स्वयं हनुमानजी ने पिदुरु पर्वत के जंगलों में रहने वाले कुछ आदिवासियों को दिया था। पिदुरु (पूरा नाम पिदुरुथालागाला Pidurutalagala) श्री लंका का सबसे ऊंचा पर्वत माना जाता है।

स्त्रोत : वेब दुनिया

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