माघ कृष्ण पक्ष त्रयोदशी, कलियुग वर्ष ५११५
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वैराग्य का दूसरा नाम श्री गुरु रामदास जो छत्रपति शिवाजी के गुरु थे । रामदास जी के बचपनका नाम नारायण था । वह गंगाराम पंत के छोटे भाई थे । नारायणका जन्म सन १६०८ इसवी मे चैत्र शुद्ध नवमी को सूर्यपंत और रानुदेवी के घर में हुआ था । यही तिथि प्रभु श्रीराम के जन्मदिन की थी । इसलिये नारायण का नाम रामदास रखा गया । रामदास का मन औपचारिक पीडी मे नही लगता था । उन्हे तो तालाब मे तैरना, पेड़ो पर चढ़ना और इसी प्रकार की अन्य शैतानिया करना पसंद था । रामदास के सामने जो भी बोला जाता था वो रामदास तुरंत याद कर लेते थे । नारायण का मन वैराग्य से भरा हुआ था । नारायण की माँ रामदेवी नारायण की अवस्था देख-देख कर बहुत चिंतित थी । उन्होने उनका विवाह कर देने का सोचा जिससे उनका ध्यान बदल जायेगा तथा इस दिशा मे प्रयत्न करने शुरू कर दिये । विवाह की तयारी होने लगी, बारात लड़कीवालो के घर ‘आसन’ गौण मे पहुँच गयी । पुरोहितजी मंत्र पाठ करने लगे और पाठ के अंत मे “शुभम लग्नम सावधानं भव” सावधान शब्द पड़ते ही रामदास भाग खडे हुए । देखते ही देखते नारायण जी लापता हो गये, किसी प्रकार छुपते-छुपाते नासिक पहुंचे और गोदावरी के तट पर पंचवटी में बनी एक गुफा मे बैठ कर समाधि लगा ली । नारायण वहा पर १२ वर्ष तक रहे । गोदावरी के पानी में खडे होकर वह घंटो श्रीराम का ध्यान करते । एक बार आपने पानी मे खडे होकर १३ लाख बार इस मंत्र का जाप किया, श्री राम जय राम जय जय राम मंत्र का जाप करने की समाप्ति पर ही, श्रीराम साक्षात उनके सामने प्रकट हुए । वह हमेशा कहते थे ।। जय जय रघुवीर समर्थ ।।, इसलिये लोग नारायण को समर्थ गुरु रामदास कहने लगे ।
देश भर मे ६०० से भी अधिक मंदिरों का निर्माण करवाया । माघ की नवमी को वह ब्रह्मलीन हो गये । उन्होने कई ग्रंथो की रचना कि है जिनके नाम है — चौदह शतक, जन्स्वभावा, पञ्च समाधी, पुकाश मानस पूजा, जुना राय बोध्ह रामगीत । समर्थ गुरु रामदास जी ने बाल्मीकि की पूरी रामायण अपने हाथ से लिखी । यह पाण्डुलिपि आज भी धुबलिया के श्री एस एस देव के संग्रहालय में सुरक्षित है । रामदास जी के हजारो शिष्यों में छत्रपति शिवाजी और अम्बा जी उनकी हर प्रकार से सेवा करते और उनके वचनों को कलमबद्ध करते थे ।
एक धनी व्यक्ति अग्निहोत्री जी की मृत्यु हो गयी, अग्निहोत्री जी की पत्नी ने सती होने का प्रण लिया था । अत वह समस्त आभूषणों से सुसज्जित अपने पति की चिता पर अपने को बलिदान करने जा रही थी । तभी एक संत उधर से गुजरे और बिना शव को देखे उस महिला के प्रणाम करने पर उसको आशीर्वाद दे डाला “अस्तापुत्र सोभागय्वती भव ” उसने रोते-रोते संत को उधर शव की और देखने का संकेत किया । संत ने पास की बह रही गोदावरी नदी से चुल्लू भर पानी लिया और ईश्वर से प्रार्थना करते हुए वह जल शव पर झिड़क दिया । मुर्दे मे जान आ गयी और अग्निहोत्री जी उठ गये । यह संत और कोई नहीं, शिवाजी के गुरु समर्थ स्वामी रामदास
जी थे ।
छत्रपति शिवाजी और रामदास स्वामी पहली बार १६७४ मे मिले । शिवाजी ने रामदास स्वामी को अपना धार्मिक गुरु माना है । समर्थ गुरु रामदास जी ने अपना समस्त जीवन राष्ट्र को अर्पित कर दिया ।
स्त्रोत : लोकचेतना