फाल्गुन शुक्ल प्रतिपदा, कलियुग वर्ष ५११५
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अब लेफ्ट बुद्धिजीवी पेंगुइन के पीछे हाथ-धोकर पड़ गए हैं। सवाल पूछ रहे हैं कि उसने वैंडी डोंगियर की किताब ‘दि हिन्दू-एन अलटरनेटिव हिस्ट्री’ (The Hindu- An Alternative History) को वापस लेने की हिमाकत क्यों की। जरा सोचिए कि ये किस हद तक जा सकते हैं। पर पहले कुछ खास बिंदुओं पर बात हो जाए- पेगुइन ने पांच बरस पहले वैंडी की किताब को प्रकाशित किया था। तब से किताब के कटेंट को लेकर विवाद बढ़ गया था। उसकी कठोर निंदा शुरू हो गई थी। किताब के कंटेट को पढ़कर साफ है कि इसका एकमात्र मकसद हिन्दुत्व पर कीचड़ उछालना था । यही नहीं, इरादा हिन्दू देवी-देवताओं पर आपत्तिजनक टिप्पणी करना भी था।
अब ये निरा संयोग हो सकता है कि वैंडी की हिन्दुओं और हिन्दुत्व पर घटिया राय ईसाई धर्म का प्रचार करने वाले पेस्टर एमजी मैथ्यू के पेपर ‘हकीकत’ में इतनी समानता है। मैं इन दोनों के कंटेट पर चर्चा नहीं करूंगा क्योंकि इस तरह का कोई भी प्रयास इन्हें प्रचार दिलवा सकता है। साल २०११ में शिक्षा बचाओ आंदोलन से जु़ड़े दीनानाथ बतरा ने पेंगुइन और वेंडी के खिलाफ केस दायर किया। उनकी मांग थी कि उपर्युक्त पुस्तक को वापस लिया जाए। उऩका तर्क था कि किताब में अनेक अधकचरी जानकारियां दी गईं हिन्दू धर्म और देवी-देवताओं को लेकर। तीन साल के बाद इस केस को आगे लड़ने की बजाय पेंगुइन ने फैसला किया कि वो किताब को वापस ले लेगा।
पेंगुइन ने इससे पहले भी इस तरह का कदम उठाया है। जब इसके खुशवंत सिंह सलाहाकार थे, तब इसने सलमान रश्दी की किताब ‘दि सेटेनिक वर्सेज’ (The Satanic Verses) को बेन (Ban) करने की सिफारिश की थी। राजीव गांधी ने इस सिफारिश को माना। पेंगुइन ने फैसले को मानते हुए बाजार से रश्दी की किताब को मंगवा लिया।
करीब ३० साल पहले वरिष्ठ पत्रकार सुनंदा कुमार दत्ता रे की किताब- स्मेश एंड ग्रेब- दि एनेक्सेशन आफ सिक्किम को विकास पब्लिशर्स ने बाजार से वापस ले लिया था। सिक्किम के राज परिवार के एक सदस्य को लेकर किताब में की गई कथित टिप्पणी के विरोध में प्रकाशक ने ये फैसला लिया। उसे कुछ शिकायतें मिली तब उसकी तरफ से इस तरह का फैसला आया। अगर लेफ्ट बुद्धिजीवी खफा हैं तो वे अपना गुस्सा पेंगुइन पर निकाले। कुछ साल पहले बड़ौदा के एमएस विश्वविद्लायल के एक छात्र ने दो आपत्तिजनक कलाकृतियां बनाईं। एक में ईसा मसीह को और दूसरे में दुर्गा को आपत्तिजनक तरीके से पेश किया गया था। तब भी लेफ्ट वालों ने हिन्दुओं को ही बुरा-भला कहने की कोशिश की थी। हालांकि तब विरोध के स्वर ईसाई संगठनों की तरफ से उठे थे।
बेशक आपत्तिजनक कंटेट से भरी किताबों पर रोक लगाना या जलाना बेहतर विकल्प नहीं है। पर, ये भी अस्वीकार्य है कि कोई लेखक अकारण ही किसी समाज या धर्म पर छींटाकशी करे। इस पूरे सवाल पर लेफ्ट बुद्धिजीवियों का आचरण शर्मनाक रहा है।
स्त्रोत : निती सेन्ट्रल