फाल्गुन कृष्ण पक्ष प्रतिपदा, कलियुग वर्ष ५११५
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नई देहली : दिल्ली सरकार ने सभी नियमों को ताक पर रखकर जनलोकपाल बिल को सदन में रखने की कोशिश की। हालांकि इस कोशिश को सदन ने खारिज कर दिया। विधि के जानकार कहते हैं कि अरविंद केजरीवाल ने इस तरह का कदम उठा कर एक गलत परम्परा को जन्म दिया है। सनद रहे कि दिल्ली के उप राज्यपाल नजीब जंग ने विधानसभा अध्यक्ष एमएस धीर को पत्र लिखकर सलाह दी थी कि वो विधानसभा में जनलोकपाल विधेयक पेश न होने दें। उन्होंने कहा कि जनलोकपाल के मुद्दे पर सही प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया। इसी तरह से केंद्र सरकार ने भी इस मुद्दे पर कई बार अपना रुख़ स्पष्ट किया है और कहा है कि बिना केंद्र की सहमति के ये विधेयक विधानसभा में पेश नहीं किया जा सकता।
विधि विशेषज्ञों के अनुसार, बिना उपराज्यपाल की अनुमति के असेंबली में लाया ही नहीं जा सकता, इसके लिए उपराज्यपाल की सलाह जरूरी है, ये उपराज्यपाल पर निर्भर करता है कि वे बिल को असेंबली से पास कराने का सुझाव देते हैं, अपने पास रखते हैं या निर्णय ना लेने की स्थिति में राष्ट्रपति को भेजते हैं। जिसपर आखिरी फैसला राष्ट्रपति का होता है। इस एक्ट के अनुसार संचित निधि ,वित्तीय मामलों से जुड़े हुए कुछ ऐसे प्रावधान है जिनके अनुसार हैं बिल को असेंबली में तब तक नहीं लाया जा सकता है जब तक उसे उपराज्यपाल या राष्ट्रपति की सहमति न मिल जाए। चूंकि इस बिल में वित्त का मसला भी जुड़ा हुआ है इसीलिए इसे सीधे विधानसभा में नहीं पेश किया जा सकता है। सरकार को इस मसले पर संवैधानिक प्रक्रिया का पालन करना ही चाहिए।
इसी तरह से संविधान विशेषज्ञ सुभाष कश्यप ने कहा कि दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा हासिल नहीं है,ऐसे में केंद्र सरकार को बाईपास करके कोई बिल दिल्ली विधानसभा में सीधे पेश करना संविधान के खिलाफ होगा। दिल्ली के मामले में केंद्र का कानून ही सर्वोपरि है।
वे कहते हैं कि अगर कोई कानून केंद्र और विधानसभा दोनों से पास होता है, तब भी केंद्र का कानून ही मान्य होता है.चूंकि केंद्र सरकार जनलोकपाल बिल पास कर चुकी है, ऐसे में दिल्ली के अपने लोकपाल का कोई मतलब नहीं है।
स्त्रोत : निती सेन्ट्रल