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धर्मांध आक्रमकोंद्वारा हिंदुस्थानकी संस्कृति नष्ट करने हेतु आक्रमण करना

फाल्गुन कृष्ण पक्ष तृतीया, कलियुग वर्ष ५११५


 प्रा. प्रभाकर मांडेद्वारा लिखित `शिक्षणनीतिका राजकारण’ पुस्तकसे निम्नांकित विचार देखनेपर पता चलता है कि धर्मांध आक्रामक तथा सत्ताधीशोंने हिंदुस्थानके बहुसंख्य हिंदुओंका जीना कैसे दूभर कर दिया था । अपमानित तथा नागरिकताके अधिकारोंसे वंचित, हिंदुस्थानके हिंदु ऐसा जीवन जी रहे थे । संपूर्ण हिंदुस्थानमें निरंतर दो संस्कृतियोंका संघर्ष चलता आया दिखता है । प्रस्तुत सूत्र उसका प्रमाण है ।

१. हिंदु तथा मूर्तिपूजकोंने `सुरक्षा कर’ (जरे जिम्मिया) एवं ‘जिझिया’(वह कर जो धर्मांध शासक अन्य धर्मियोंपर लगाते थे और उसके बदले उनके जान मालकी रक्षाका भार अपने ऊपर लेते थे तथा उन्हें सेनामें भर्ती होनेके कर्तव्यसे
मुक्त कर देते थे ।) देना स्वीकार किया है । इस करके बदले उन्हें, उनके परिवारकीसुरक्षाका विश्वास दिलाया जा रहा है । ये लोग अब इतने निर्भय हो गए है कि बेझिझक सार्वजनिक स्थानोंपर मंदिर स्थापित कर रहे हैं । इन काफिरोंके नेताओंपर मैंने प्रहार किए हैं । उन्हें देहदंड भी दिया है । यह भयंकर दंड देखकर कोई भी व्यक्ति आगे भविष्यमें इस प्रकारका दुष्टकृत्य करनेका साहस नहीं करेगा । (फिरोजशाह तुगलकद्वारा लिखित ‘फुतूहाते फिरोजशाही’ ग्रंथमें व्यक्त धन्योद्गार)
२. धर्मांध बनो, नहीं तो, मरनेको सिद्ध हो जाओ, ऐसा इस ब्राह्मणको बताया गया था । उसने धर्मांध बननेसे अस्वीकार किया, इसपर उसके हाथ-पांव बांधकर जलती आगमें फैक दिया गया । (फिरोजशाहके समयमें आफिक नामके तवारिखकारद्वारा लिखित वृत्तांत)
 ३. काफिरोंको निष्प्रभ कर हिंदुस्थानके नेता – ब्राह्मणोंका सिर काटना असंभव है । मूर्तिपूजकोंको नष्ट करनेका, उन्हें अपमानित करनेका, तथा गुलाम बनानेका निर्धार बादशाहको करना चाहिए । अल्लाके दिए स्थानोंका तथा सत्ताका यथोचित उपयोग न कर मूर्तिपूजकोंद्वारा दिए गए जिझिया करके साथ बादशाह संतुष्ट हो जाएगा, अपनी सत्ताका तथा स्थानका उपयोग मूर्तिपूजकोंका विध्वंस करनेके काममें न करनेवाला हो, तो हिंदु रईस तथा इस्लामी बादशाहमें क्या अंतर रह जाएगा ? (झियाउद्दीन बरनीद्वारा इस्लामी धर्मशास्त्रानुसार सुलतान कैसे आचरण करें, `फतवा-ए-जहांदारी’ ग्रंथमें किया गया मार्गदर्शन)
४. हमारे धर्मयोद्धाओंकी तलवारोंकी सहायतासे यह सारा देश आगमें जलकर राख बने काटोंके जंगल जैसा बन गया है । हमारी तलवारका बहुत सारा पानी इस भूमिने सोख लिया है । मूर्तिपूजाकी भाप हवामें घुल गई है । सामर्थ्यवान हिंदुओंको पांवतले कुचल दिया गया है । मूर्तिपूजा नष्ट कर दी गई है । इन लागोंको जिझियाके बदलेमें जीवित रहनेका अवसर न दिया गया होता, तो इस देशसे हिंदु नाम भी शेष हो गया होता । (अमीर खुसरो नामके तथाकथित सुसंस्कृत व्यक्तिद्वारा आत्मसंतुष्टिके उद्गार ।)
 
५. गजनीके महमूदने इस देशका वैभव मिट्टीमें मिला दिया । हिंदुओंकी अवस्था धूलके कणों जैसी हो गई है । ये सर्वत्र बिखर गए हैं । इधर-उधर फैले देशके वैभवके अवशेष हिंदुओंके मनमें धर्मांधोंके प्रति अत्यंत द्वेष उत्पन्न करते हैं । (अल्बेरुनी नामके धर्मांध इतिहासकारद्वारा किया गया वर्णन)
 मध्ययुगीन इतिहासकारोंकी लिखाईमें ये तथा इस प्रकारके निर्देश इधर-उधर बिखरे हुए पाए जाते हैं । धर्मांध शासकोंके कालमें राज्यसत्ता धर्मसत्ताके चिह्न कैसे थे तथा धर्मांध प्रशासकोंका हिंदु प्रजाकी ओर देखनेका दृष्टिकोण कैसा था, यह बात स्पष्ट हो; इस हेतु अबतक इस विषयकी चर्चा विस्तारसे की । इससे स्पष्ट होता है कि धर्मांध आक्रामकोंने केवल संपत्तिके लोभसे अथवा राज्य विस्तार हेतु हिंदुस्थानपर आक्रमण नहीं किए, अपितु विशेषकर इस्लाम धर्मके प्रसार तथा हिंदुस्थानकी संस्कृति उद्ध्वस्त करने हेतु ये आक्रमण किए गए थे; इसी कारण उन्होंने हिंदुस्थानके सांस्कृतिक केंद्र, शैक्षणिक केंद्र तथा मंदिर नष्ट किए । उनके मकतबे (छोटे बच्चोंकी पाठशाला) तथा मदरसोंद्वारा दी जानेवाली शिक्षाका उद्देश्य ही खुले आम धर्मप्रसारका था । उनकी शिक्षणनीतिद्वारा हिंदुस्थानमें मुख्य रूपसे सांस्कृतिक संघर्ष ही दिखता है । महम्मद गोरीने हिंदुस्थानमें ११९२ में ‘मदरसा’ नामकी शिक्षण संस्थाओंका आरंभ किया । स्वतंत्र शैक्षणिक संस्था मदरसेके रूपमें ही हिंदुस्थानमें आरंभ हुई, ऐसा कहा, तो कुछ आपत्तिजनक नहीं होगा । ( संदर्भ : मासिक शिवरायांचा देशधर्म )

स्त्रोत : दैनिक सनातन प्रभात

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