समाजके अधिकांश हिंदुत्ववादियोंको प्रतीत होता है कि सभी हिंदुओंको अपना संप्रदाय, संगठन, पक्ष इत्यादि भूलाकर राष्ट्र और धर्मरक्षा हेतु सदाके लिए संगठित होना चाहिए; परंतु पिछले अनेक दशकोंमें हिंदुओंका ऐसा दीर्घकालीन एवं व्यापक संगठन नहीं बन पाया है । इस प्रकारका संगठन बनाते समय कार्यमें आनेवाली महत्त्वपूर्ण अडचनोंको अस्वीकार करना अथवा उनकी ओर ध्यान न देना, यह हिंदुओंके लिए उचित नहीं होगा । ये अडचनें और उनपर की जानेवाली उपाययोजना, साथ ही धर्मरक्षा हेतु हिंदुओंद्वारा क्या प्रयास होने चाहिए, इस विषयका तर्कपूर्ण विवेचन इस पूरे लेखमें किया है । इस लेखके कारण हिंदुधर्मके प्रति वास्तविकरूपसे आत्मीयता रखनेवालोंको हिंदुसंगठनकी ओर देखनेकी नई दृष्टिका लाभ होगा, साथ ही हिंदुधर्मके विषयमें कुछ भी न करनेवाले जन्महिंदुओंको अंतर्मुख होनेमें सहायता होगी ।
हिंदु धर्मियोंका संगठन बननेमें आनेवाली प्रमुख अडचनें
१. हिंदुओंका धर्मविषयक अज्ञान
अपने धर्मके प्रति कुछ विषयमें हिंदु धर्मियोंमें जितना अज्ञान है, उतना अज्ञान अन्य धर्मियोंमें कदाचित् ही होगा । अनेक लोगोंको निश्चितरूपसे अपने देवी-देवता क्या हैं तथा उनकी मूर्तियां क्यों बनाई जाती हैं, इस बातका ज्ञान ही नहीं होता । हिंदु धर्ममें बताए गए चार पुरुषार्थ, वर्णव्यवस्था, अनेक देवी-देवताओंकी उपासनामें उनका स्थान, मूर्तिपूजा, कर्मकांड इत्यादिके विषयमें निश्चितरूपसे महत्त्व तथा मर्यादा, जैसे अनेक विषयमें समाजमें अधिक मात्रामें अज्ञान एवं गलत धारणाएं पाई जाती हैं । प्रत्येक व्यक्ति स्वयंको अपेक्षित पद्धतिके अनुसार इन बातोंका अर्थ लगाते हैं ।
संतोंको तीव्र साधना एवं तपोबलके कारण सूक्ष्मदृष्टि प्राप्त होती है । उसकी सहायतासे वे धर्ममें विद्यमान विविध बातोंका सात्त्विक विश्लेषण कर सकते हैं; परंतु दुर्भाग्य की बात यह है कि इसका भान आजकल नहीं रखा जाता । दक्षिणेश्वरमें जब एक मूर्तिके भंग होनेके विषयमें अनेक धर्मपंडितोंमें एकमत नहीं हो पाया, तब वह प्रकरण रामकृष्ण परमहंसके सामने सर्व सहमतिसे रखा गया कि उनका निर्णय अंतिम होगा । इस उदाहरणसे यह स्पष्ट होता है कि धर्मविषयक मार्गदर्शन करनेका अधिकार किसका होता है । वर्तमानमें स्थिति ऐसी है कि कोई भी उठता है और हिंदु धर्मके विषयमें कुछ भी कहने लगता है । उदा. एक बार ‘सह्याद्री’ नामक प्रसारप्रणालपर हुए एक कार्यक्रममें डॉ. श्रीराम लागुद्वारा वक्तव्य किया गया कि ‘परमेश्वर तथा धर्म नामक कल्पना एवं संकल्पना पागलपन ही है ।’
आजकल हास्य-रसात्मक नाटकोंमें देवी-देवताओंका खुले आम उपहास उडाया जाता है । इससे देवताओंका अनादर ही होता है । परंतु सामान्य हिंदुओंको इसमें कुछ भी आक्षेपार्ह नहीं प्रतीत होता । यही नहीं अपितु ऐसे प्रसंगमें देवी-देवताओंके अनादरका विरोध करनेवाले हिंदु उन्हें मूलतत्त्ववादी दिखाई देते हैं । किसी विषयमें अज्ञान होना एक बार ठीक है; परंतु गलतधारणा होना अत्यंत घातक है । जानकारी होनेके पश्चात् अज्ञान दूर हो सकता है, परंतु गलतधारणाके विषयमें पहले उस बातको काट देना पडता है और तदनंतर वास्तविकताका ज्ञान देना पडता है । धर्मविषयक अज्ञान एवं गलतधारणाके प्रभावके कारण धर्मविषयक अज्ञानमूलक प्रश्न लगातार उत्पन्न होते हैं; इसी कारण हिंदु दीर्घकालतक एकत्रित नहीं रह सकते । उनमें अज्ञान तथा गलतधारणाके कारण मतभेद होते ही हैं ! इससे यह स्पष्ट होता है कि इन सभी बातोंके कारण प्रभावी संगठन होनेके लिए हिंदुधर्मके विषयमें उत्तम प्रबोधन होना आवश्यक है, यह ध्यानमें आता है ।
२. हिंदुओंका खोखला धर्माभिमान
यदि शुद्ध धर्महेतुसे हिंदुसंगठन बनाना हो, तो इसमें सबसे बडी अडचन यह है कि धर्मके दृष्टिकोणमें वास्तविक अर्थसे हिंदु जाग्रत नहीं हैं । अधिकांश हिंदुओंको अपने धर्मके विषयमें होनेवाला अभिमान केवल अपने वंशजोंकी अथवा स्वधर्ममें होनेवाली तत्त्वज्ञानकी महानता बतानेतक ही सिमित होता है । यदि किसीके द्वारा इस महानताको कलंकित करनेका प्रयास हो रहा हो, तो उनके विरोधमें वे कुछ भी नहीं करते । ऐसे हिंदु स्वधर्ममें बताए गए तत्त्वज्ञानके अनुसार जीनेका अथवा वंशजोंके सद्गुण स्वयंमें लानेका प्रयास करते हुए नहीं पाए जाते ।
एक समय सर्वश्रेष्ठ मान्यता प्राप्त हिंदु समाज आज इतना हीन-दीन क्यों हो गया है, ऐसा प्रश्न भी उनके मनमें नहीं आता; इसलिए केवल धर्माभिमानकी बातें करनेवाले अथवा धर्मकी महानताका कथन करनेवाले हिंदु स्वधर्मके लिए कुछ ठोस कृत्य करेंगे, यह संभव नहीं । ऐसा आचरण करनेवालोंसे संगठन कैसे साध्य होगा अथवा ऐसे लोग संगठनमें आनेपर भी किस कामके ? ऐसे लोगोंके कारण सामान्य हिंदुओंको लगता है कि हिंदु धर्मके महानताकी चर्चा करना ही हंदुत्वके लिए कुछ करना है । हिंदुओंका संगठन बनाना है, तो धर्माभिमानियोंकी बातें करनेवाले प्रत्येक संगठनमें सहभागी होकर वह धर्माभिमान अन्य लोगोंमें जाग्रत करनेके लिए प्रत्यक्षरूपसे कुछ करना चाहिए ।
३. हिंदुओंमें विद्यमान धर्मबंधुत्वका अभाव
कुछ वर्ष पहले अमरीकाके राष्ट्राध्यक्ष श्री. जॉर्ज बुश भारतमें आए थे । उस समय इरान (इस्लाम राष्ट्र)के साथ युद्धकी घोषणाके प्रकरणमें उसका निषेध करने हेतु मुंबईमें चार लाख मुसलमान एकत्रित हुए थे । संसदपर आक्रमण करनवाले अफजलकी फांसीके विरोधमें कश्मीरमें अनेक स्थानोंपर मुसलमान सडकपर उतर आए थे । धर्मबंधुओंकी सहायताके लिए जगमें कहीं कुछ भी हो जाए, तो मुसलमान तुरंत दौडकर आते हैं और उनकी सहायता करते हैं । क्या हिंदुओंमें ऐसा धर्मबंधुत्व दिखाई देता है ? धर्मबंधुत्व नहीं होगा, तो हिंदुओंका संगठन कैसे बनेगा ? हिंदुसंगठनकी इच्छा करनेवाले प्रत्येक हिंदुको अपनेआपको मैं धर्मबंधुत्वका कितना पालन करता हूं, यह प्रश्न पूछना चाहिए और स्वयंके साथ अन्योंमें भी योग्य परिवर्तन हो, इसलिए प्रत्यक्ष कृत्य करना चाहिए ।
– प.पू. डॉ. जयंत आठवले