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कोल्हापुर (महाराष्ट्र) में रासायनिक संवर्धन की गई श्री महालक्ष्मीदेवी की प्रतिमा पर नाग का प्रतीक ही नहीं !

प्रतिमा में अशास्त्रीय परिवर्तन करने के कारण पुरातत्व विभाग जिम्मेदार होने के शब्द का क्या जनपदाधिकारी पालन करेंगे ?

मुंबई : मूर्ति अभ्यासकोंने अपना मत व्यक्त करते समय बताया कि, ‘तीन शक्तिपिठों में से एक करवीरनिवासिनी श्री महालक्ष्मी पर २५ जुलाई को रासायनिक प्रक्रिया आरंभ की गई है तथा वह प्रक्रिया एवं पूजाविधी पूर्ण कर ६ अगस्त से श्रध्दालुओंके दर्शन के लिए उसकी प्रतिष्ठापना की गई।

श्री महालक्ष्मीदेवी की रासायनिक संवर्धन की प्रक्रिया पूर्ण होने के पश्चात अब प्रतिमा के मस्तक पर विद्यमान नाग, योनी तथा लिंग इन तीन प्रतिको में से नाग का प्रतीक नहीं है।’ कोल्हापुर के जनपदाधिकारियोंने श्री महालक्ष्मीदेवी का रासायनिक प्रक्रिया से पूर्व का तथा रासायनिक प्रक्रिया के पश्चात का छायाचित्र प्रकाशित किया है। उसी कारण इस बात का पता चला।

देखिये …

वर्ष १८९४ का छायाचित्र नाग प्रतीक मस्तक पर स्पष्ट दिखाई दे रहा है, वह स्थान वलयांकित किया है।
वर्ष १९५५ का छायाचित्र नाग प्रतीक मस्तक पर दिखाई दे रहा है, वह वलय में स्पष्ट दिखाई दे रहा है।
वर्ष २०१५ का छायाचित्र रासायनिक मुलामा करने के पश्चात नाग का प्रतीक मस्तक पर नहीं दिखाई देता है।

मुर्तिअभ्यासकोंने नाग प्रतीक मुद्रित करना आवश्यक है, यह बताने के पश्चात भी रासायनिक प्रक्रिया बनानेवालोंने वह प्रतीक मुद्रित नहीं किया !

रासायनिक प्रक्रियाद्वारा प्रतिमा के संवर्धन का कार्य करने से पूर्व मुर्ति अभ्यासक एवं ज्ञातोंने प्रतिमा के छायाचित्रं, ग्रंथोंका संदर्भ तथा प्रतिमा की सूचना पुरातत्व विभाग को प्रदान की थी। इतना ही नहीं, तो प्रतिमा पर नाग का चिन्ह होना आवश्यक ही है, ऐसे भी बताया था। किंतु अधिकारियोंने तीन वेटोले वाले नाग के फणे के स्थानपर बडा मुकुट बनाया है। (रासायनिक संवर्धन आरंभ था, उस समय पुरातत्व विभाग ने प्रक्रिया उचित पद्धती से की जा रही है या नहीं, इस का निरीक्षण क्यों नहीं किया ? हिन्दुओंके शक्तिपिठ की महत्त्वपूर्ण देवता होते हुए भी तथा हिन्दू जनजागृति समिति समान संगठनोंकी ओर से धोखे के संदर्भ में पूर्व सूचना प्राप्त होते हुए भी शासन, जनपदाधिकारी, पुरातत्व विभाग, श्रीपूजकों में से किसी ने भी इस प्रक्रिया की ओर विशेष ध्यान क्यों नहीं दिया ? अब इस अपराध का दायित्व किस पर होगा ? – संपादक, दैनिक सनातन प्रभात)

संवर्धन का कार्य जब आरंभ किया, उस समय नागफणी दिखाई नहीं दी ! – डॉ. मॅनेजर सिंह, औरंगाबाद पुरातत्व विभाग कार्यालय के अधीक्षक एवं रसायनतज्ञ

संवर्धन का कार्य आरंभ किया, उस समय प्रतिमा के मस्तिष्क पर नागफणी दिखाई नहीं दी। जिस समय हम ने प्रतिमा अपने अधिकार में ली, उस समय प्रतिमा के १९९२ के छायाचित्रं अंकित किए थे। उस में प्रतिमा पर नाग का प्रतीक नहीं था।

श्रीपूजकोंका अभ्यासहीन मत – ‘प्रतिमा पर नाग का प्रतीक नहीं था’ !

श्रीपूजकोंका मत है कि, श्री महालक्ष्मी की प्रतिमा के मस्तक पर नाग का प्रतीक कभी दिखाई नहीं दिया। ८१ वर्ष के जेष्ठ श्रीपूजक बाबुराव ठाणेकर ने बताया कि, मैं ८ वर्ष का था, उस समय से मैं अंबाबाई की प्रतिमा देख रहा हूं। १९५५ में वज्रलेप किया गया था, उस समय भी मैं उपस्थित था। विवरण पुराना होगा; किंतु वह समयानुसार परिवर्तन हुए हैं। मेरी जानकारी नुसार मस्तक पर मातृलिंग है; किंतु नाग का प्रतीक मैंने नहीं देखा। श्रीपूजक मंडल के सहसचिव अधिकारी अजित ठाणेदार ने बताया कि, गत ४३ वर्षोंसे नाग प्रतीक स्पष्ट रूप से दिखाई नहीं दे रहा है।

प्रतिमा के मस्तिष्क पर नाग प्रतीक था, इस बात के मुर्ति अभ्यासक श्री. उमासिंह राणाद्वारा बताए गए पृथक प्रमाण !

१. बारह वे शतक में यादव राजा का प्रधान पंडित हेमाद्रीद्वारा लिखीत चतुर्वर्ग चितांमणी इस ग्रंथ में देवी का विवरण करते समय ऐसा उल्लेख किया गया है, नाग, लिंग, योनी प्रतीक धारण करनेवाली करवीरा एकमात्र देवी।

२. करवीर महात्म्य में १३ वे अध्याय के सातवे श्लोक में देवी का विवरण इस प्रकार किया है, पन्नागांकित मस्तकम् अर्थात् मस्तक पर नाग धारण करनेवाली देवी।

३. देवी के नित्य आरती में भी यह उल्लेख है कि, मस्तकी लिंग, महिधर, हस्तकी दिव्य गदा …

४. श्री महालक्ष्मी मंदिर के प्रांगण में गणपती के मंदिर की सोपान चढते समय दाए ओर के खंबे के पूर्व ओर यादव सिंघण द्वितीय के कार्यक्षेत्र के समय मुद्रित किया गया शिलालेख है। इ.स. १२१८ का यह शिलालेख संस्कृत में है। इस में भी स्पष्ट उल्लेख इस प्रकार किया गया है, शिरसालिंगम् शेषाघौघहारिणी।

५. दुर्गासप्तशती ग्रंथ में भी मस्तक पर नाग प्रतीक वाली अंबाबाई ऐसा स्पष्ट उल्लेख है।

प्रतिमा पर नाग होने का आध्यात्मिक महत्त्व !

१. मुर्तिशास्त्र की दृष्टि से आवश्यक लक्षणों में से नाग, लिंग, गदा, खेटक, पानपात्र, म्हाळुंग इत्यादि चिन्ह तथा आयुधोंवाली प्रतिमा ही करवीरनिवासिनी अंबाबाई की प्रतिमा सिद्ध होती है। इन में से कोई भी चिन्ह इधर-उधर हुआ, तो प्रतिमा के स्वरूप में ही परिवर्तन होता है।

२. प्रतिमा पर लिंग, नाग, योनी प्रतीक होने के कारण ही यह देवी आदिशक्ति का रूप है, यह स्पष्ट होता है ! – श्री. उमासिंह राणा, मुर्ति अभ्यासक

भक्तों, क्या प्रतिमा संवर्धन हेतु किया गया अल्कोहोल का उपयोग आप सहन करेंगे ?

१. प्रतिमा को अल्कोहोलमिश्रीत रेती का सलाईन दिया ! – डॉ. सिंह

दैनिक सनातन प्रभात के प्रतिनिधी से बातचीत करते हुए रासायनिक प्रक्रिया के प्रमुख डॉ. मॅनेजर सिंह ने बताया कि, प्रतिमा को आरंभ में अल्कोहोल मिश्रीत रेती का सलाईन दिया। यह द्रव्य जर्मनी से लाया गया था। इस विधान को पुष्टि देनेवाला समाचार भी प्रकाशित किया गया है। उस में यह प्रस्तुत किया है कि, इथिल सिलिका नामक रसायन इंजेक्शनद्वारा (ड्रिलिंग के अतिरिक्त) प्रतिमा में छोडा गया। इथिल नामक रसायन हवा में उड जाता है; किंतु सिलिका अर्थात रेती के कण रहते हैं तथा वह प्रतिमा में स्थिर रहते हैं। उन के कारण प्रतिमा के सभी छिद्रं एवं भेगा बंद हो जाते हैं।

२. स्थानीय हिन्दूत्वनिष्ठोंके आग्रह के कारण प्राकृतिक लेपन का बहाना !

जनपदाधिकारियोंकी बैठक में रासायनिक प्रक्रिया करने का निश्चित हुआ था। तत्पश्चात कुछ समाचारपत्रोंने प्राकृतिक पदार्थोंका उपयोग करने का समाचार प्रकाशित किया था। इस संदर्भ में दैनिक सनातन प्रभात के प्रतिनिधी ने डॉ. सिंह से संपर्क किया। उस समय उन्होंने बताया कि, स्थानीय हिन्दूत्वनिष्ठोंने प्राकृतिक पद्धती से प्रक्रिया करने के लिए बताया था। यदि उसी प्रकार का लेपन है, तो वहीं उपलब्ध करना, ऐसे बताने के पश्चात स्थानीयोंने वह उपलब्ध किया। रासायनिक प्रक्रिया के पश्चात ही वह लेपन प्रक्रिया की गई।

३. डॉ. सिंह ने बताया कि, जिस स्थान पर प्रतिमा की घीस अधिक मात्रा में हुई थी, उस स्थान पर एम्सील का इतना उपयोग किया गया था कि, वह स्वच्छ करने में हमारा अधिक समय व्यय हुआ। उनका यह वक्तव्य भी समाचारपत्र में प्रकाशित हुआ है।

देवी भक्तों, रासायनिक प्रक्रियाद्वारा किया गया यह श्री महालक्ष्मीदेवी की प्रतिमा का क्या एक प्रकार से अनादर नहीं है ?

इस प्रकार हुई श्री महालक्ष्मी प्रतिमा पर रासायनिक प्रक्रिया !

१. प्रथम प्रतिमा का ड्रॉईंग डॉक्युमेंटेशन किया गया।
२. पश्चात वह केमिकलद्वारा स्वच्छ की गई।
३. प्रतिमा का विशिष्ट हिस्सा छिद्र (भेग), खड्डे विशिष्ट स्टोन पावडर से मसलें गए।
५. उसका उलटा हुआ हाथ का पंजा ठीक किया गया।
६. एक पैर का पंजा नहीं था, उसे आकार दिया गया।
७. पश्चात दाए हाथ को आधार देने हेतु नटबोल्ड, पट्टियां, प्लेट का उपयोग किया गया।

स्त्रोत : दैनिक सनातन प्रभात

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